HI/BG 7.12

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 12

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥१२॥

शब्दार्थ

ये—जो; च—तथा; एव—निश्चय ही; सात्त्विका:—सतोगुणी; भावा:—भाव; राजसा:—रजोगुणी; तामसा:—तमोगुणी; च—भी; ये—जो; मत्त:—मुझसे; एव—निश्चय ही; इति—इस प्रकार; तान्—उनको; विद्धि—जानो; न—नहीं; तु—लेकिन; अहम्—मैं; तेषु—उनमें; ते—वे; मयि—मुझमें।

अनुवाद

तुम जान लो कि मेरी शक्ति द्वारा सारे गुण प्रकट होते हैं, चाहे वे सतोगुण हों, रजोगुण हों या तमोगुण हों | एक प्रकार से मैं सब कुछ हूँ, किन्तु हूँ स्वतन्त्र | मैं प्रकृति के गुणों के अधीन नहीं हूँ, अपितु वे मेरे अधीन हैं |

तात्पर्य

संसार के सारे भौतिक कार्यकलाप प्रकृति के गुणों के अधीन सम्पन्न होते हैं | यद्यपि प्रकृति के गुण परमेश्र्वर कृष्ण से उद्भूत हैं, किन्तु भगवान् उनके अधीन नहीं होते | उदाहरणार्थ, राज्य के नियमानुसार कोई दण्डित हो सकता है, किन्तु नियम बनाने वाला राजा उस नियम के अधीन नहीं होता | इसी प्रकार प्रकृति के सभी गुण – सतो, रजो तथा तमोगुण – भगवान् कृष्ण से उद्भूत हैं, किन्तु कृष्ण प्रकृति के अधीन नहीं हैं | इसीलिए वे निर्गुण हैं, जिसका तात्पर्य है कि सभी गुण उनसे उद्भूत हैं, किन्तु ये उन्हें प्रभावित नहीं करते | यह भगवान् का विशेष लक्षण है |