HI/BG 7.22
श्लोक 22
- स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
- लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥२२॥
शब्दार्थ
स:—वह; तया—उस; श्रद्धया—श्रद्धा से; युक्त:—युक्त; तस्य—उस देवता की; आराधनम्—पूजा के लिए; ईहते—आकांक्षा करता है; लभते—प्राह्रश्वत करता है; च—तथा; तत:—उससे; कामान्—इच्छाओं को; मया—मेरे द्वारा; एव—ही; विहितान्—व्यवस्थित; हि—निश्चय ही; तान्—उन।
अनुवाद
ऐसी श्रद्धा से समन्वित वह देवता विशेष की पूजा करने का यत्न करता है और अपनी इच्छा की पूर्ति करता है | किन्तु वास्तविकता तो यह है कि ये सारे लाभ केवल मेरे द्वारा प्रदत्त हैं |
तात्पर्य
देवतागण परमेश्र्वर की अनुमति के बिना अपने भक्तों को वर नहीं दे सकते | जीव भले ही यह भूल जाय कि प्रत्येक वस्तु परमेश्र्वर की सम्पत्ति है, किन्तु देवता इसे नहीं भूलते | अतः देवताओं की पूजा तथा वांछित फल की प्राप्ति देवताओं के कारण नहीं, अपितु उनके माध्यम से भगवान् के कारण होती है | अल्पज्ञानी जीव इसे नहीं जानते, अतः वे मुर्खतावश देवताओं के पास जाते हैं | किन्तु शुद्धभक्त आवश्यकता पड़ने पर परमेश्र्वर से ही याचना करता है परन्तु वर माँगना शुद्धभक्त का लक्षण नहीं है | जीव सामान्यता देवताओं के पास इसीलिए जाता है, क्योंकि वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए पगलाया रहता है | ऐसा तब होता है जब जीव अनुचित कामना करता है जिसे स्वयं भगवान् पूरा नहीं करते | चैतन्यचरितामृत में कहा गया है कि जो व्यक्ति परमेश्र्वर की पूजा के साथ-साथ भौतिकभोग की कामना करता है वह परस्पर विरोधी इच्छाओं वाला होता है | परमेश्र्वर की भक्ति तथा देवताओं की पूजा समान स्तर पर नहीं हो सकती, क्योंकि देवताओं की पूजा भौतिक है और परमेश्र्वर की भक्ति नितान्त आध्यात्मिक है |
जो जीव भगवद्धाम जाने का इच्छुक है, उसके मार्ग में भौतिक इच्छाएँ बाधक हैं | अतः भगवान् के शुद्धभक्त को वे भौतिक लाभ नहीं प्रदान किये जाते, जिनकी कामना अल्पज्ञ जीव करते रहते हैं, जिसके कारण वे परमेश्र्वर की भक्ति न करके देवताओं की पूजा में लगे रहते हैं |