HI/BG 8.12

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 12

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूध्न्या।र्धायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥१२॥

शब्दार्थ

सर्व-द्वाराणि—शरीर के समस्त द्वारों को; संयम्य—वश में करके; मन:—मन को; हृदि—हृदय में; निरुध्य—बन्द कर; च—भी; मूॢध्न—सिर पर; आधाय—स्थिर करके; आत्मन:—अपने; प्राणम्—प्राणवायु को; आस्थित:—स्थित; योग-धारणाम्—योग की स्थिति।

अनुवाद

समस्त ऐन्द्रिय क्रियाओं से विरक्ति को योग की स्थिति (योगधारणा) कहा जाता है | इन्द्रियों के समस्त द्वारों को बन्द करके तथा मन को हृदय में और प्राणवायु को सिर पर केन्द्रित करके मनुष्य अपने को योग में स्थापित करता है |

तात्पर्य

इस श्लोक में बताई गई विधि से योगाभ्यास के लिए सबसे पहले इन्द्रियभोग के सारे द्वार बन्द करने होते हैं | यह प्रत्याहार अथवा इन्द्रियविषयों से इन्द्रियों को हटाना कहलाता है | इसमें ज्ञानेन्द्रियों – नेत्र, कान, नाक, जीभ तथा स्पर्श को पूर्णतया वश में करके उन्हें इन्द्रियतृप्ति में लिप्त होने नहीं दिया जाता | इस प्रकार मन हृदय में स्थित परमात्मा पर केन्द्रित होता है और प्राणवायु को सर के ऊपर तक चढ़ाया जाता है | इसका विस्तृत वर्णन छठे अध्याय में हो चुका है | किन्तु जैसा कि पहले कहा जा चुका है अब यह विधि व्यावहारिक नहीं है | सबसे उत्तम विधि तो कृष्णभावनामृत है | यदि कोई भक्ति में अपने मन को कृष्ण में स्थिर करने में समर्थ होता है, तो उसके लिए अविचलित दिव्य समाधि में बने रहना सुगम हो जाता है |