HI/BG 8.5
श्लोक 5
- अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
- यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥५॥
शब्दार्थ
अन्त-काले—मृत्यु के समय; च—भी; माम्—मुझको; एव—निश्चय ही; स्मरन्—स्मरण करते हुए; मुक्त्वा—त्याग कर; कलेवरम्—शरीर को; य:—जो; प्रयाति—जाता है; स:—वह; मत्-भावम्—मेरे स्वभाव को; याति—प्राह्रश्वत करता है; न—नहीं; अस्ति—है; अत्र—यहाँ; संशय:—सन्देह।
अनुवाद
और जीवन के अन्त में जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरन्त मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है | इसमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं है |
तात्पर्य
इस श्लोक में कृष्णभावनामृत की महत्ता दर्शित की गई है | जो कोई भी कृष्णभावनामृत में अपना शरीर छोड़ता है, वह तुरन्त परमेश्र्वर के दिव्य स्वभाव (मद्भाव) को प्राप्त होता है | परमेश्र्वर शुद्धातिशुद्ध है, अतः जो व्यक्ति कृष्णभावनाभावित होता है, वह भी शुद्धातिशुद्ध होता है | स्मरन् शब्द महत्त्वपूर्ण है | श्रीकृष्ण का स्मरण उस अशुद्ध जीव से नहीं हो सकता जिसने भक्ति में रहकर कृष्णभावनामृत का अभ्यास नहीं किया | अतः मनुष्य को चाहिए कि जीवन के प्रारम्भ से ही कृष्णभावनामृत का अभ्यास करे | यदि जीवन के अन्त में सफलता वांछनीय है तो कृष्ण का स्मरण अनिवार्य है | अतः मनुष्य को निरन्तर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे | हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – इस महामन्त्र का जप करना चाहिए | भगवान चैतन्य ने उपदेश दिया है कि मनुष्य को वृक्ष के समान सहिष्णु होना चाहिए (तरोरिवसहिष्णुना) | हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे | हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – का जप करने वाले व्यक्ति को अनेक व्यवधानों का सामना करना पड़ सकता है | तो भी इस महामन्त्र का जप करते रहना चाहिए, जिससे जीवन के अन्त समय कृष्णभावनामृत का पूरा-पूरा लाभ प्राप्त हो सके |