HI/BG 9.33
श्लोक 33
- किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
- अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥३३॥
शब्दार्थ
किम्—क्या, कितना; पुन:—फिर; ब्राह्मणा:—ब्राह्मण; पुण्या:—धर्मात्मा; भक्ता:—भक्तगण; राज-ऋषय:—साधु राजे; तथा—भी; अनित्यम्—नाशवान; असुखम्—दुखमय; लोकम्—लोक को; इमम्—इस; प्राह्रश्वय—प्राह्रश्वत करके; भजस्व—प्रेमाभक्ति में लगो; माम्—मेरी।
अनुवाद
फिर धर्मात्मा ब्राह्मणों, भक्तों तथा राजर्षियों के लिए तो कहना ही क्या है! अतः इस क्षणिक दुखमय संसार में आ जाने पर मेरी प्रेमाभक्ति में अपने आपको लगाओ |
तात्पर्य
इस संसार में कई श्रेणियों के लोग हैं, किन्तु तो भी यह संसार किसी के लिए सुखमय स्थान नहीं है | यहाँ स्पष्ट कहा गया है – अनित्यम् असुखं लोकम्– यह जगत् अनित्य तथा दुखमय है और किसी भी भले मनुष्य के रहने लायक नहीं है | भगवान् इस संसार को क्षणिक तथा दुखमय घोषित कर रहे हैं | कुछ दार्शनिक, विशेष रूप से मायावादी, कहते हैं कि यह संसार मिथ्या है, किन्तु भगवद्गीता से हम यह जान सकते हैं कि यह संसार मिथ्या नहीं है, यह अनित्य है | अनित्य तथा मिथ्या में अन्तर है | यह संसार अनित्य है, किन्तु एक दूसरा भी संसार है जो नित्य है | यह संसार दुखमय है, किन्तु दूसरा संसार नित्य तथा आनन्दमय है |
अर्जुन का जन्म ऋषितुल्य राजकुल में हुआ था | अतः भगवान् उससे भी कहते हैं, "मेरी सेवा करो, और शीघ्र ही मेरे धाम को प्राप्त करो |" किसी को भी इस अनित्य संसार में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि यह दुखमय है | प्रत्येक व्यक्ति को भगवान् के हृदय से लगना चाहिए, जिससे वह सदैव सुखी रह सके | भगवद्भक्ति ही एकमात्र ऐसी विधि है जिसके द्वारा सभी वर्गों के लोगों की सारी समस्याएँ सुलझाई जा सकती हैं | अतः प्रत्येक व्यक्ति को कृष्णभावनामृत स्वीकार करके अपने जीवन को सफल बनाना चाहिए |