HI/BG 9.9

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 9

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥९॥

शब्दार्थ

न—कभी नहीं; च—भी; माम्—मुझको; तानि—वे; कर्माणि—कर्म; निबध्नन्ति—बाँधते हैं; धनञ्जय—हे धन के विजेता; उदासीन-वत्—निरपेक्ष या तटस्थ की तरह; आसीनम्—स्थित हुआ; असक्तम्—आसक्तिरहित; तेषु—उन; कर्मसु—कार्यों में।

अनुवाद

हे धनञ्जय! ये सारे कर्म मुझे नहीं बाँध पाते हैं | मैं उदासीन की भाँति इन सारे भौतिक कर्मों से सदैव विरक्त रहता हूँ |

तात्पर्य

इस प्रसंग में यह नहीं सोच लेना चाहिए कि भगवान् के पास कोई काम नहीं है | वे अपनेवैकुण्ठलोक में सदैव व्यस्त रहते हैं | ब्रह्मसंहिता में (५.६) कहा गया है – आत्मारामस्य तस्यास्ति प्रकृत्या न समागमः– वे सतत दिव्य आनन्दमय आध्यात्मिक कार्यों में रत रहते हैं, किन्तु इन भौतिक कार्यों से उनका कोई सरोकार नहीं रहता | सारे भौतिक कार्य उनकी विभिन्न शक्तियों द्वारा सम्पन्न होते रहते हैं | वे सदा ही इस सृष्टि के भौतिक कार्यों के प्रति उदासीन रहते हैं | इस उदासीनता को ही यहाँ पर उदासीनवत् कहा गया है | यद्यपि छोटे से छोटे भौतिक कार्य पर उनका नियन्त्रण रहता है, किन्तु वे उदासीनवत् स्थित रहते हैं | यहाँ पर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का उदाहरण दिया जा सकता है, जो अपने आसन पर बैठा रहता है | उसके आदेश से अनेक तरह की बातें घटती रहती हैं – किसी को फाँसी दी जाती है, किसी को कारावास की सजा मिलती है, तो किसी को प्रचुर धनराशी मिलती है, तो भी वह उदासीन रहता है | उसे इस हानि-लाभ से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता | वेदान्तसूत्र में (२.१.३४) यह कहा गया है – वैषम्यनैर्घृण्ये न– वे इस जगत् के द्वन्द्वों में स्थित नहीं है | वे इन द्वन्द्वों से अतीत हैं | न ही इस जगत् की सृष्टि तथा प्रलय में ही उनकी आसक्ति रहती है | सारे जीव अपने पूर्वकर्मों के अनुसार विभिन्न योनियाँ ग्रहण करते रहते हैं और भगवान् इसमें कोई व्यवधान नहीं डालते |