HI/BG 4.19: Difference between revisions

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Revision as of 14:21, 1 August 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 19

j

शब्दार्थ

यस्य—जिसके; सर्वे—सभी प्रकार के; समारम्भा:—प्रयत्न, उद्यम; काम—इन्द्रियतृह्रिश्वत के लिए इच्छा पर आधारित; सङ्कल्प—निश्चय; वॢजता:—से रहित हैं; ज्ञान—पूर्ण ज्ञान की; अग्नि—अग्नि द्वारा; दग्ध—भस्म हुए; कर्माणम्—जिसका कर्म; तम्—उसको; आहु:—कहते हैं; पण्डितम्—बुद्धिमान्; बुधा:—ज्ञानी।

अनुवाद

जिस व्यक्ति का प्रत्येक प्रयास (उद्यम) इन्द्रियतृप्ति की कामना से रहित होता है, उसे पूर्णज्ञानी समझा जाता है | उसे ही साधु पुरुष ऐसा कर्ता कहते हैं, जिसने पूर्णज्ञान की अग्नि से कर्मफलों को भस्मसात् कर दिया है |

तात्पर्य

केवल पूर्णज्ञानी ही कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के कार्यकलापों को समझ सकता है | ऐसे व्यक्ति में इन्द्रियतृप्ति की प्रवृत्ति का अभाव रहता है, इससे यह समझा जाता है कि भगवान् के नित्य दास रूप में उसे अपने स्वाभाविक स्वरूप का पुर्नज्ञान है जिसके द्वारा उसने अपने कर्मफलों को भस्म कर दिया है | जिसने ऐसा पूर्णज्ञान प्राप्त कर लिया है वह सचमुच विद्वान है | भगवान् की नित्य दासता के इस ज्ञान के विकास की तुलना अग्नि से की गई है | ऐसी अग्नि एक बार प्रज्ज्वलित हो जाने पर कर्म के सारे फलों को भस्म कर सकती है |