HI/BG 4.18

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 18

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥१८॥

शब्दार्थ

कर्मणि—कर्म में; अकर्म—अकर्म; य:—जो; पश्येत्—देखता है; अकर्मणि—अकर्म में; च—भी; कर्म—सकाम कर्म; य:—जो; स:—वह; बुद्धि-मान्—बुद्धिमान् है; मनुष्येषु—मानव समाज में; स:—वह; युक्त:—दिव्य स्थिति को प्राह्रश्वत; कृत्स्न-कर्म-कृत्—सारे कर्मों में लगा रहकर भी।

अनुवाद

जो मनुष्य कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह सभी मनुष्यों में बुद्धिमान् है और सब प्रकार के कर्मों में प्रवृत्त रहकर भी दिव्य स्थिति में रहता है |

तात्पर्य

कृष्णभावनामृत में कार्य करने वाला व्यक्ति स्वभावतः कर्म-बन्धन से मुक्त होता है | उसके सारे कर्म कृष्ण के लिए होते हैं, अतः कर्म के फल से उसे कोई लाभ या हानि नहीं होती | फलस्वरूप वह मानव समाज में बुद्धिमान् होता है, यद्यपि वह कृष्ण के लिए सभी तरह के कर्मों में लगा रहता है | अकर्म का अर्थ है – कर्म के फल के बिना | निर्विशेषवादी इस भय से सारे कर्म बन्द कर देता है, कि कर्मफल उसके आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में बाधक न हो, किन्तु सगुणवादी अपनी इस स्थिति से भलीभाँति परिचित रहता है कि वह भगवान् का नित्य दास है | अतः वह अपने आपको कृष्णभावनामृत के कार्यों में तत्पर रखता है | चूँकि सारे कर्म कृष्ण के लिए किये जाते हैं, अतः इस सेवा के करने में उसे दिव्य सुख प्राप्त होता है | जो इस विधि में लगे रहते हैं वे व्यक्तिगत इन्द्रियतृप्ति की इच्छा से रहित होते हैं | कृष्ण के प्रति उसका नित्य दास्यभाव उसे सभी प्रकार के कर्मफल से मुक्त करता है |