HI/BG 4.39: Difference between revisions

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Revision as of 16:04, 1 August 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 39

k

शब्दार्थ

श्रद्धा-वान्—श्रद्धालु व्यक्ति; लभते—प्राह्रश्वत करता है; ज्ञानम्—ज्ञान; तत्-पर:—उसमें अत्यधिक अनुरक्त; संयत—संयमित; इन्द्रिय:—इन्द्रियाँ; ज्ञानम्—ज्ञान; लब्ध्वा—प्राह्रश्वत करके; पराम्—दिव्य; शान्तिम्—शान्ति; अचिरेण—शीघ्र ही; अधिगच्छति—प्राह्रश्वत करता है।

अनुवाद

जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान में समर्पित है और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरन्त आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त होता है |

तात्पर्य

श्रीकृष्ण में दृढ़विश्र्वास रखने वाला व्यक्ति ही इस तरह का कृष्णभावनाभावित ज्ञान प्राप्त कर सकता है | वही पुरुष श्रद्धावान कहलाता है जो यह सोचता है कि कृष्णभावनाभावित होकर कर्म करने से वह परमसिद्धि प्राप्त कर सकता है | यह श्रद्धा भक्ति के द्वारा तथा हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे | हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे– मन्त्र के जाप द्वारा प्राप्त की जाती है क्योंकि इससे हृदय की सारी भौतिक मलिनता दूर हो जाती है | इसके अतिरिक्त मनुष्य को चाहिए कि अपनी इन्द्रियों पर संयम रखे | जो व्यक्ति कृष्ण के प्रति श्रद्धावान् है और जो इन्द्रियों को संयमित रखता है, वह शीघ्र ही कृष्णभावनामृत के ज्ञान में पूर्णता प्राप्त करता है |