HI/BG 17.20: Difference between revisions

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Revision as of 16:58, 14 August 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 20

j

शब्दार्थ

दातव्यम्—देने योग्य; इति—इस प्रकार; यत्—जो; दानम्—दान; दीयते—दिया जाता है; अनुपकारिणे—प्रत्युपकार की भावना के बिना; देशे—उचित स्थान में; काले—उचित समय में; च—भी; पात्रे—उपयुक्त व्यक्ति को; च—तथा; तत्—वह; दानम्—दान; सात्त्विकम्—सतोगुणी, सात्त्विक; स्मृतम्—माना जाता है।

अनुवाद

जो दान कर्तव्य समझकर, किसी प्रत्युपकार की आशा के बिना, समुचित काल तथा स्थान में और योग्य व्यक्ति को दिया जाता है, वह सात्त्विक माना जाता है ।

तात्पर्य

वैदिक साहित्य में ऐसे व्यक्ति को दान देने की संस्तुति है, जो आध्यात्मिक कार्यों में लगा हो । अविचार पूर्ण ढंग से दान देने की संस्तुति नहीं है । आध्यात्मिक सिद्धि को सदैव ध्यान में रखा जाता है । अतएव किसी तीर्थ स्थान में,सूर्य या चन्द्रग्रहण के समय, मासान्त में या योग्य ब्राह्मण अथवा वैष्णव (भक्त) को, या मन्दिर में दान देने की संस्तुति है । बदले में किसी प्रकार की प्राप्ति की अभिलाषा न रखते हुए ऐसे दान किये जाने चाहिए । कभी-कभी निर्धन को दान करुणा वश दिया जाता है । लेकिन यदि निर्धन दान देने योग्य (पात्र) नहीं होता, तो उससे आध्यात्मिक प्रगति नहीं होती । दूसरे शब्दों में, वैदिक साहित्य में अविचार पूर्ण दान की संस्तुति नहीं है ।