HI/BG 18.35: Difference between revisions
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:न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ॥३५॥ | |||
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Latest revision as of 07:22, 18 August 2020
श्लोक 35
- यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।
- न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ॥३५॥
शब्दार्थ
यया—जिससे; स्वह्रश्वनम्—स्वह्रश्वन; भयम्—भय; शोकम्—शोक; विषादम्—विषाद, खिन्नता; मदम्—मोह को; एव—निश्चय ही; च—भी; न—कभी नहीं; विमुञ्चति—त्यागती है; दुर्मेधा—दुर्बुद्धि; धृति:—धृति; सा—वह; पार्थ—हे पृथापुत्र; तामसी—तमोगुणी।
अनुवाद
हे पार्थ! जो धृति स्वप्न, भय, शोक, विषाद तथा मोह के परे नहीं जाती,ऐसी दुर्बुद्धिपूर्ण धृति तामसी है |
तात्पर्य
इससे यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि सतोगुणी मनुष्य स्वप्न नहीं देखता | यहाँ पर स्वप्न का अर्थ अति निद्रा है | स्वप्न सदा आता है, चाहे वह सात्त्विक हो, राजस हो या तामसी, स्वप्न तो प्राकृतिक घटना है | लेकिन जो अपने को अधिक सोने से नहीं बचा पाते, जो भौतिक वस्तुओं को भोगने के गर्व से नहीं बच पाते,जो सदैव संसार पर प्रभुत्व जताने का स्वप्न देखते रहते हैं और जिनके प्राण, मन तथा इन्द्रियाँ इस प्रकार लिप्त रहतीं हैं, वे तामसी धृति वाले कहे जाते हैं |