HI/Prabhupada 0924 - केवल नकारात्मक्ता का कोई अर्थ नहीं है। कुछ सकारात्मक होना चाहिए: Difference between revisions
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जिसने पापी जीवन समाप्त कर दिया है । येषाम अंत | जिसने पापी जीवन समाप्त कर दिया है । येषाम अंत गतम पापम जनानाम पुण्य कर्मणाम ([[HI/BG 7.28|भ गी ७.२८]]) । कौन पापी जीवन समाप्त कर सकता है ? जो पुण्य कर्मों में लगा हुआ है । क्योंकि कर्म तो करना ही पड़ता है । तो अगर कोई धर्मपरायण कार्यों में लिप्त है, स्वाभाविक रूप से उसके पापी कर्म गायब हो जाएँगे । एक तरफ, स्वेच्छा से उसे पापी जीवन के खंभों को तोड़ने का प्रयास करना चाहिए । दूसरी तरफ, उसे पवित्र जीवन में खुद को संलग्न करना होगा । केवल सैद्धांतिक रूप से नहीं हो सकता है, क्योंकि हर किसी को कार्य तो करना ही है । अगर कोई पवित्र कार्य नही है, तो केवल सैद्धांतिक रूप से वह नहीं कर सकेगा । | ||
जैसे .. सब कुछ भगवद गीता में वर्णित है । जैसे अस्पताल में । अस्पताल में कई | उदाहरण के लिए, व्यावहारिक, आपकी सरकार इस नशे को रोकने के लिए करोड़ों डॉलर खर्च कर रहीहै । हर कोई जानता है । लेकिन सरकार विफल रही है । कैसे सिर्फ कानून द्वारा या व्याख्यान देने के द्वारा उन्हें एलएसडी या नशे से मुक्त कर सकते हो ? यह संभव नहीं है । तुम्हे उन्हें अच्छा कार्य देना चाहिए । तो फिर यह स्वतः ही हो जाएगा... और व्यावहारिक रूप से तुम देखते हो कि हमारे छात्र जो यहॉ अाते हैं हम शिक्षा देते हैं कि: "कोई नशा नहीं ।" तुरंत छोड़ देते हैं । और सरकार विफल रही है । यह व्यावहारिक है । परम दृष्टवा निवर्तते ([[HI/BG 2.59|भ गी २.५९]]) । अगर तुम किसी को अच्छा कार्य नहीं देते हो, तो तुम उसके बुरे कार्यों को रोक नहीं सकते हो । यह संभव नहीं है । इसलिए हम दोनों पक्ष दे रहे हैं - अच्छे कार्य, और साथ साथ निषेध भी । | ||
हम सिर्फ यह नहीं कहते की: "कोई अवैध मैथुन नहीं, कोई नशा नहीं, नहीं, नहीं..." केवल नकारात्मक्ता का कोई अर्थ नहीं है । कुछ सकारात्मक होना चाहिए । क्योंकि हर कोई कार्य चाहता है । क्योंकि हम जीव हैं । हम मृत पत्थर नहीं हैं । अन्य तत्वज्ञानी, वे ध्यान द्वारा मृत पत्थर बनने की कोशिश कर रहे हैं । "मुझे शून्य के विषय में सोचने दो, निर्विषेशवादी ।" तो कृत्रिम रूप से तुम इसे कैसे शून्य कर सकते हो ? तुम्हारा दिल, तुम्हारा मन कार्यों से भरा है । तो ये कृत्रिम बातें हैं । यह मानव समाज की मदद नहीं करेगा । तथाकथित योग, तथाकथित ध्यान, वे सब धूर्तता है । क्योंकि कोई कार्य नहीं है । यहाँ कार्य है । यहाँ हर कोई व्यस्त है सुबह जल्दी उठकर अर्च विग्रह की आरती करने के लिए । वे अच्छे भोजन की तैयारी कर रहे हैं । वे सजा रहे हैं, माला बना रहे हैं, कई कार्य । वे संकीर्तन पर जा रेह हैं, प्रचार कर रहे हैं, पुस्तकों की बिक्री के लिए । चौबीस घंटे कार्य । इसलिए वे इस पापी जीवन को त्यागने में सक्षम हैं । | |||
परम दृष्टवा निवर्तते ([[HI/BG 2.59|भ गी २.५९]]) । जैसे... सब कुछ भगवद गीता में वर्णित है । जैसे अस्पताल में । अस्पताल में कई रोगी हैं जो एकादशी के दिन पर कुछ भी नहीं खाते हैं | क्या इसका मतलब है कि यह एकादशी व्रत का पालन कर रहे हैं ? (हंसी) वह केवल उत्कंठित हैं की "मैं कब खाऊँगा, मैं कब खाऊँगा, मैं कब खाऊँगा ?" लेकिन ये छात्र, वे स्वेच्छा से कुछ भी नहीं खाते हैं । हम, हम नहीं कहते हैं की तुम कुछ भी मत खाअो । कुछ फल, कुछ फूल । बस इतना ही । तो परम दृष्टवा निवर्तते ([[HI/BG 2.59|भ गी २.५९]]) । | |||
जैसे एक बच्चे की तरह । उसके हाथ में कुछ है; वह खा रहा है । अौ अगर तुम उसे कोई बेहतर चीज़ देते हो, वह घटिया चीज़ को फेंक देगा और बेहतर चीज को लेगा । तो यहॉ कृष्ण भावनामृत है, यह बेहतर कार्य, बेहतर जीवन, बेहतर तत्वज्ञान, बेहतर चेतना, बेहतर सब कुछ । इसलिए वे जीवन के पापी कर्मों को त्याग सकते हैं और यह कृष्ण भावनामृत में बदल जाएगा । तो ये कार्य केवल मानव समाज में ही नहीं हो रहे हैं । पशु समाज में भी । पशु समाज, जलचर, क्योंकि हर कोई श्री कृष्ण के अंशस्वरूप, संतान, हैं । तो वे इस भौतिक दुनिया में सड़ रहे हैं । तो श्री कृष्ण की एक योजना है, उनका उद्धार करने की एक बड़ी योजना है । वे स्वयं आते है । कभी कभी वे अपने बहुत गोपनीय भक्त को भेजते हैं । कभी कभी वे स्वयं अाते हैं । कभी कभी वे भगवद गीता की तरह निर्देश छोड़ जाते हैं । | |||
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Latest revision as of 17:44, 1 October 2020
730422 - Lecture SB 01.08.30 - Los Angeles
जिसने पापी जीवन समाप्त कर दिया है । येषाम अंत गतम पापम जनानाम पुण्य कर्मणाम (भ गी ७.२८) । कौन पापी जीवन समाप्त कर सकता है ? जो पुण्य कर्मों में लगा हुआ है । क्योंकि कर्म तो करना ही पड़ता है । तो अगर कोई धर्मपरायण कार्यों में लिप्त है, स्वाभाविक रूप से उसके पापी कर्म गायब हो जाएँगे । एक तरफ, स्वेच्छा से उसे पापी जीवन के खंभों को तोड़ने का प्रयास करना चाहिए । दूसरी तरफ, उसे पवित्र जीवन में खुद को संलग्न करना होगा । केवल सैद्धांतिक रूप से नहीं हो सकता है, क्योंकि हर किसी को कार्य तो करना ही है । अगर कोई पवित्र कार्य नही है, तो केवल सैद्धांतिक रूप से वह नहीं कर सकेगा ।
उदाहरण के लिए, व्यावहारिक, आपकी सरकार इस नशे को रोकने के लिए करोड़ों डॉलर खर्च कर रहीहै । हर कोई जानता है । लेकिन सरकार विफल रही है । कैसे सिर्फ कानून द्वारा या व्याख्यान देने के द्वारा उन्हें एलएसडी या नशे से मुक्त कर सकते हो ? यह संभव नहीं है । तुम्हे उन्हें अच्छा कार्य देना चाहिए । तो फिर यह स्वतः ही हो जाएगा... और व्यावहारिक रूप से तुम देखते हो कि हमारे छात्र जो यहॉ अाते हैं हम शिक्षा देते हैं कि: "कोई नशा नहीं ।" तुरंत छोड़ देते हैं । और सरकार विफल रही है । यह व्यावहारिक है । परम दृष्टवा निवर्तते (भ गी २.५९) । अगर तुम किसी को अच्छा कार्य नहीं देते हो, तो तुम उसके बुरे कार्यों को रोक नहीं सकते हो । यह संभव नहीं है । इसलिए हम दोनों पक्ष दे रहे हैं - अच्छे कार्य, और साथ साथ निषेध भी ।
हम सिर्फ यह नहीं कहते की: "कोई अवैध मैथुन नहीं, कोई नशा नहीं, नहीं, नहीं..." केवल नकारात्मक्ता का कोई अर्थ नहीं है । कुछ सकारात्मक होना चाहिए । क्योंकि हर कोई कार्य चाहता है । क्योंकि हम जीव हैं । हम मृत पत्थर नहीं हैं । अन्य तत्वज्ञानी, वे ध्यान द्वारा मृत पत्थर बनने की कोशिश कर रहे हैं । "मुझे शून्य के विषय में सोचने दो, निर्विषेशवादी ।" तो कृत्रिम रूप से तुम इसे कैसे शून्य कर सकते हो ? तुम्हारा दिल, तुम्हारा मन कार्यों से भरा है । तो ये कृत्रिम बातें हैं । यह मानव समाज की मदद नहीं करेगा । तथाकथित योग, तथाकथित ध्यान, वे सब धूर्तता है । क्योंकि कोई कार्य नहीं है । यहाँ कार्य है । यहाँ हर कोई व्यस्त है सुबह जल्दी उठकर अर्च विग्रह की आरती करने के लिए । वे अच्छे भोजन की तैयारी कर रहे हैं । वे सजा रहे हैं, माला बना रहे हैं, कई कार्य । वे संकीर्तन पर जा रेह हैं, प्रचार कर रहे हैं, पुस्तकों की बिक्री के लिए । चौबीस घंटे कार्य । इसलिए वे इस पापी जीवन को त्यागने में सक्षम हैं ।
परम दृष्टवा निवर्तते (भ गी २.५९) । जैसे... सब कुछ भगवद गीता में वर्णित है । जैसे अस्पताल में । अस्पताल में कई रोगी हैं जो एकादशी के दिन पर कुछ भी नहीं खाते हैं | क्या इसका मतलब है कि यह एकादशी व्रत का पालन कर रहे हैं ? (हंसी) वह केवल उत्कंठित हैं की "मैं कब खाऊँगा, मैं कब खाऊँगा, मैं कब खाऊँगा ?" लेकिन ये छात्र, वे स्वेच्छा से कुछ भी नहीं खाते हैं । हम, हम नहीं कहते हैं की तुम कुछ भी मत खाअो । कुछ फल, कुछ फूल । बस इतना ही । तो परम दृष्टवा निवर्तते (भ गी २.५९) ।
जैसे एक बच्चे की तरह । उसके हाथ में कुछ है; वह खा रहा है । अौ अगर तुम उसे कोई बेहतर चीज़ देते हो, वह घटिया चीज़ को फेंक देगा और बेहतर चीज को लेगा । तो यहॉ कृष्ण भावनामृत है, यह बेहतर कार्य, बेहतर जीवन, बेहतर तत्वज्ञान, बेहतर चेतना, बेहतर सब कुछ । इसलिए वे जीवन के पापी कर्मों को त्याग सकते हैं और यह कृष्ण भावनामृत में बदल जाएगा । तो ये कार्य केवल मानव समाज में ही नहीं हो रहे हैं । पशु समाज में भी । पशु समाज, जलचर, क्योंकि हर कोई श्री कृष्ण के अंशस्वरूप, संतान, हैं । तो वे इस भौतिक दुनिया में सड़ रहे हैं । तो श्री कृष्ण की एक योजना है, उनका उद्धार करने की एक बड़ी योजना है । वे स्वयं आते है । कभी कभी वे अपने बहुत गोपनीय भक्त को भेजते हैं । कभी कभी वे स्वयं अाते हैं । कभी कभी वे भगवद गीता की तरह निर्देश छोड़ जाते हैं ।