HI/BG 16.5: Difference between revisions
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:मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥५॥ | |||
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Latest revision as of 09:40, 13 August 2020
श्लोक 5
- दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
- मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥५॥
शब्दार्थ
दैवी—दिव्य; सम्पत्—सम्पत्ति; विमोक्षाय—मोक्ष के लिए; निबन्धाय—बन्धन के लिए; आसुरी—आसुरी गुण; मता—माने जाते हैं; मा—मत; शुच:—चिन्ता करो; सम्पदम्—सम्पत्ति; दैवीम्—दिव्य; अभिजात:—उत्पन्न; असि—हो; पाण्डव—हे पाण्डुपुत्र।
अनुवाद
दिव्य गुण मोक्ष के लिए अनुकूल हैं और आसुरी गुण बन्धन दिलाने के लिए हैं । हे पाण्डुपुत्र! तुम चिन्ता मत करो, क्योंकि तुम दैवी गुणों से युक्त होकर जन्मे हो ।
तात्पर्य
भगवान् कृष्ण अर्जुन को यह कह कर प्रोत्साहित करते हैं कि वह आसुरी गुणों के साथ नहीं जन्मा है । युद्ध में उसका सम्मिलित होना आसुरी नहीं है, क्योंकि वह उसके गुण-दोषों पर विचार कर रहा था । वह यह विचार कर रहा था कि भीष्म तथा द्रोण जैसे प्रतिष्ठित महापुरुषों का वध किया जाये या नहीं, अतएव वह न तो क्रोध के वशीभूत होकर कार्य कर रहा था, न झूठी प्रतिष्ठा या निष्ठुरता के अधीन होकर । अतएव वह आसुरी स्वभाव का नहीं था । क्षत्रिय के लिए शत्रु पर बाण बरसाना दिव्य माना जाता है और ऐसे कर्तव्य से विमुख होना आसुरी । अतएव अर्जुन के लिए शोक (संताप) करने का कोई कारण न था । जो कोई भी जीवन के विभिन्न आश्रमों के विधानों का पालन करता है, वह दिव्य पद पर स्थित होता है ।