HI/Prabhupada 0720 - कृष्ण भावनामृत द्वारा तुम अपने कामुक इच्छा को नियंत्रित कर सकते हो: Difference between revisions

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कुत्ता बहुत गर्व महसूस करता है, भौंकते हुए "भौ! भौ! भौ!" वह जानता नहीं है कि , "मैं बंभा हुअा हूँ ।" (हंसते हुए) वह इतना बेवकूफ है, कि जैसे ही मालिक - " चलो ।" (हंसी) तो माया मालिक है: "हे दुष्ट, यहाँ आअो ।" "हाँ ।" और उसे हम देखते हैं, अभीमानी : मैं कुछ हूँ ।" यह कुत्तों की प्रवृत्ति रखने वाली सभ्यता, नष्ट बुद्धया, सभी बुद्धिमत्ता खो देना.... कम बुद्धिमान ये कहलाते हैं । कामम् दुष्पूरम् । तो कामम्, कामुक इच्छाऍ ... इस शरीर की वजह से कामुक इच्छा है । हम यह इनकार नहीं कर सकते हैं । लेकिन उसे दुष्पूरम् मत बनाअो - कभी न तृप्त होने वाली । तब समाप्त । उसे सीमित करो । उसे सीमित करो । इसलिए, वैदिक सभ्यता के अनुसार, कामुक इच्छा तो है लेकिन इसका इस्तेमाल नहीं कर सकते हो सिवाय अच्छे बच्चे को पैदा करने के उद्देश्य के अलावा । यही पूरम कहा जाता हैं, मतलब प्रतिबंधित । तो ब्रह्मचारी इस तरह से शिक्षित किया जाता है । पच्चीस साल तक वह एक जवान औरत को नहीं देख सकता है । वह देख भी नहीं सकता । यही ब्रह्मचारी है । वह नहीं देख सकता । फिर उसे इस तरह से प्रशिक्षित किया जाता है, ताकि वह ब्रह्मचारी जीवन जारी रख सके । नैष्ठिक-ब्रह्मचारी । लेकिन अगर वह असमर्थ है, तो उसे शादी करने के लिए अनुमति दी जाती है । यही गृहस्थ जीवन कहा जाता है, गृहस्थ जीवन । क्योंकि पच्चीस साल अौर पचास वर्षों के बीच, यही युवा का समय है, इसलिए उसकी कामुक इच्छाओं बहुत मजबूत हैं । जो नियंत्रण करने में सक्षम नहीं है .....बिल्कुल नहीं । कई नैष्ठिक-ब्रह्मचारी हैं । नैष्ठिक-ब्रह्मचारी - जीवन भर, ब्रह्मचर्य । लेकिन यह इस युग में संभव नहीं है, न तो एक ब्रह्मचारी बनना संभव है । युग बदल गया है, यह युग । इसलिए तुम कृष्ण भावनामृत द्वारा तुम अपने कामुक इच्छा को नियंत्रित कर सकते हो । अन्यथा यह संभव नहीं है , यद अवधि मम चेत: कृष्ण पदारविन्दे । एक सम्राट, वह राजा था, तो स्वाभाविक रूप से वह भी कामुक था । तो उसने उस जीवन को त्याग दिया, एक भक्त बन गया । तो जब वह पूर्ण तरह से स्थित था, तो उसने कहा यमुनाचार्य - वे रामानुजाचार्य के गुरु थे - तो उन्होंने कहा यद अवधि मम चेत: कृष्ण पदारविन्दे : "क्योंकि मैं अपने मन को प्रशिक्षित किया है, कृष्ण के चरण कमलों की सेवा में" यद अवधि मम चेत: कृष्ण पदारविन्दे नव नव धामनि उद्तम रस "नित्य मैं कृष्ण को सेवा प्रदान कर रहा हूँ, मुखे नई नई प्रसन्नता मिलती है ।" आध्यात्मिक जीवन का मतलब है ... अगर वास्तव में आध्यात्मिक जीवन में कोई स्थित है, तो वह पाएगा आध्यात्मिक प्रसन्नता, दिव्य आनंद, अधिक से अधिक सेवा के द्वारा, नए नए । यही आध्यात्मिक जीवन है । तो यमुनाचार्य नें कहा, यद अवधि मम चेत: कृष्ण पदारविन्दे नव नव धामनि उद्यतम रंतुम अासीत " " जब मैं अब दिव्य अानंद का एहसास कर रहा हूँ कृष्ण के चरण कमलों की सेवा करके हर पल " तद-अवधि, "तब से," बत नारी-संगमे ... कभी कभी हम सूक्ष्म खुशी का आनंद लेते हैं, सेक्स जीवन के बारे में सोच कर । यही नारी-संगमे कहा जाता है । नारी का मतलब है औरत, और संग का मतलब है संघ । तो जिनको अादत है, तो वास्तव में कोई संघ न होते हुए भी, वे संघ के बारे में सोचते हैं तो यमुनाचार्य कहते हैं "वास्तव में संघ नहीं नारी के साथ, पर अगर मैं सोचता हूँ," तद अवधी बत नारी संगमे स्मर्यमाने, स्मर्यमाने, "केवल सोचने से" भवति मुख विकार:, "ओह, तुरंत मैं घृणा करता हूँ : 'आह, यह गंदी बात क्या है?" सुश्ठु निष्ठी ... (थूकने की ध्वनि बनाते हुए ) यह बिल्कुल सही है । (हँसते हुए) यह पूर्णता है । हाँ । जब तक हम यह सोचते हैं, यह सूक्ष्म सेक्स कहा जाता है, सोचना । वे सेक्स साहित्य पढ़ते हैं । यही सूक्ष्म सेक्स है । सकल सेक्स और सूक्ष्म सेक्स । तो हमें कामुक इच्छाओं से पूरी तरह से मुक्त होना है फँसना नहीं है उसमें जो कभी पूरा नहीं होगा - अपूर्ण- दुष्पूरम ।
कुत्ता बहुत गर्व महसूस करता है, भौंकते हुए "भौ! भौ! भौ!" वह जानता नहीं है कि, "मैं बंधा हुअा हूँ ।" (हंसते हुए) वह इतना बेवकूफ है, कि जैसे ही मालिक - "चलो ।" (हंसी) तो माया मालिक है: "हे दुष्ट, यहाँ आअो ।" "हाँ ।" और उसे हम देखते हैं, अभिमानी: "मैं कुछ हूँ ।" यह कुत्तों की प्रवृत्ति रखने वाली सभ्यता, नष्ट बुद्धया, सभी बुद्धिमत्ता खो देना... ये कम बुद्धिमान कहलाते हैं । कामम दुष्पूरम । तो कामम, कामुक इच्छाऍ... इस शरीर की वजह से कामुक इच्छा है । हम इसको इनकार नहीं कर सकते हैं । लेकिन उसे दुष्पूरम मत बनाअो - कभी न तृप्त होने वाली । फिर समाप्त । उसे सीमित करो । उसे सीमित करो ।  
 
इसलिए, वैदिक सभ्यता के अनुसार, कामुक इच्छा तो है, लेकिन इसका इस्तेमाल नहीं कर सकते हो सिवाय अच्छे बच्चे को पैदा करने के उद्देश्य के अलावा । यही पूरम कहा जाता हैं, मतलब प्रतिबंधित । तो ब्रह्मचारी इस तरह से शिक्षित किया जाता है । पच्चीस साल तक वह एक युवान स्त्री को नहीं देख सकता है । वह देख भी नहीं सकता । यही ब्रह्मचारी है । वह नहीं देख सकता । फिर उसे इस तरह से प्रशिक्षित किया जाता है, ताकि वह ब्रह्मचारी जीवन जारी रख सके । नैष्ठिक-ब्रह्मचारी । लेकिन अगर वह असमर्थ है, तो उसे शादी करने के लिए अनुमति दी जाती है । यही गृहस्थ जीवन कहा जाता है, गृहस्थ जीवन । क्योंकि पच्चीस साल अौर पचास वर्षों के बीच, यही युवा समय है, इसलिए उसकी कामुक इच्छाए बहुत मजबूत हैं । जो नियंत्रण करने में सक्षम नहीं है... हर किसी के लिए नहीं ।  
 
कई नैष्ठिक-ब्रह्मचारी हैं । नैष्ठिक-ब्रह्मचारी - जीवन भर, ब्रह्मचर्य । लेकिन यह इस युग में संभव नहीं है, न तो एक ब्रह्मचारी बनना संभव है । युग बदल गया है, यह युग । इसलिए तुम कृष्ण भावनामृत द्वारा तुम अपनी कामुक इच्छा को नियंत्रित कर सकते हो । अन्यथा यह संभव नहीं है, यद अवधि मम चेत: कृष्ण पदारविन्दे । एक सम्राट, वह राजा था, तो स्वाभाविक रूप से वह भी कामुक था । तो उसने उस जीवन को त्याग दिया, एक भक्त बन गया । तो जब वह पूर्ण तरह से स्थित था, तो उसने कहा यमुनाचार्य - वे रामानुजाचार्य के गुरु थे - तो उन्होंने कहा यद अवधि मम चेत: कृष्ण पदारविन्दे: "जबसे मैंने अपने मन को प्रशिक्षित किया है, कृष्ण के चरण कमलों की सेवा में," यद अवधि मम चेत: कृष्ण पदारविन्दे नव नव धामनि उद्तम रस, "नित्य मैं कृष्ण को सेवा प्रदान कर रहा हूँ, मुझे नई नई प्रसन्नता मिलती है ।"  
 
आध्यात्मिक जीवन का मतलब है... अगर वास्तव में आध्यात्मिक जीवन में कोई स्थित है, तो वह पाएगा आध्यात्मिक प्रसन्नता, दिव्य आनंद, अधिक से अधिक सेवा के द्वारा, नए नए । यही आध्यात्मिक जीवन है । तो यमुनाचार्य नें कहा, यद अवधि मम चेत: कृष्ण पदारविन्दे नव नव धाम्नी उद्यतम रंतुम अासीत:" "जब मैं कृष्ण के चरण कमलों की सेवा करके अब हर पल दिव्य अानंद का एहसास कर रहा हूँ," तद-अवधि, "तब से," बत नारी-संगमे... कभी कभी हम सूक्ष्म खुशी का आनंद लेते हैं, यौन जीवन के बारे में सोच कर । यही नारी-संगमे कहा जाता है । नारी का मतलब है औरत, और संग का मतलब है संघ ।  
 
तो जिनको अादत है, तो वास्तव में कोई संग न होते हुए भी, वे संग के बारे में सोचते हैं | तो यमुनाचार्य कहते हैं "वास्तव में संग नहीं नारी के साथ, पर अगर मैं सोचता हूँ," तद अवधी बत नारी संगमे स्मर्यमाने, स्मर्यमाने, "केवल सोचने से," भवति मुख विकार:, "ओह, तुरंत मैं घृणा करता हूँ: 'आह, यह गंदी बात क्या है?" सुश्ठु निष्ठी... (थूकने की ध्वनि बनाते हुए) यह बिल्कुल सही है । (हँसते हुए) यह पूर्णता है । हाँ । जब तक हम यह सोचते हैं, यह सूक्ष्म यौन जीवन कहा जाता है, सोचना । वे यौन साहित्य पढ़ते हैं । यही सूक्ष्म यौन जीवन  है । स्थूल यौन जीवन और सूक्ष्म यौन जीवन । तो हमें कामुक इच्छाओं से पूरी तरह से मुक्त होना है, फँसना नहीं है उसमें जो कभी पूरा नहीं होगा - अपूर्ण, दुष्पूरम ।  
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



Lecture on BG 16.10 -- Hawaii, February 6, 1975

कुत्ता बहुत गर्व महसूस करता है, भौंकते हुए "भौ! भौ! भौ!" वह जानता नहीं है कि, "मैं बंधा हुअा हूँ ।" (हंसते हुए) वह इतना बेवकूफ है, कि जैसे ही मालिक - "चलो ।" (हंसी) तो माया मालिक है: "हे दुष्ट, यहाँ आअो ।" "हाँ ।" और उसे हम देखते हैं, अभिमानी: "मैं कुछ हूँ ।" यह कुत्तों की प्रवृत्ति रखने वाली सभ्यता, नष्ट बुद्धया, सभी बुद्धिमत्ता खो देना... ये कम बुद्धिमान कहलाते हैं । कामम दुष्पूरम । तो कामम, कामुक इच्छाऍ... इस शरीर की वजह से कामुक इच्छा है । हम इसको इनकार नहीं कर सकते हैं । लेकिन उसे दुष्पूरम मत बनाअो - कभी न तृप्त होने वाली । फिर समाप्त । उसे सीमित करो । उसे सीमित करो ।

इसलिए, वैदिक सभ्यता के अनुसार, कामुक इच्छा तो है, लेकिन इसका इस्तेमाल नहीं कर सकते हो सिवाय अच्छे बच्चे को पैदा करने के उद्देश्य के अलावा । यही पूरम कहा जाता हैं, मतलब प्रतिबंधित । तो ब्रह्मचारी इस तरह से शिक्षित किया जाता है । पच्चीस साल तक वह एक युवान स्त्री को नहीं देख सकता है । वह देख भी नहीं सकता । यही ब्रह्मचारी है । वह नहीं देख सकता । फिर उसे इस तरह से प्रशिक्षित किया जाता है, ताकि वह ब्रह्मचारी जीवन जारी रख सके । नैष्ठिक-ब्रह्मचारी । लेकिन अगर वह असमर्थ है, तो उसे शादी करने के लिए अनुमति दी जाती है । यही गृहस्थ जीवन कहा जाता है, गृहस्थ जीवन । क्योंकि पच्चीस साल अौर पचास वर्षों के बीच, यही युवा समय है, इसलिए उसकी कामुक इच्छाए बहुत मजबूत हैं । जो नियंत्रण करने में सक्षम नहीं है... हर किसी के लिए नहीं ।

कई नैष्ठिक-ब्रह्मचारी हैं । नैष्ठिक-ब्रह्मचारी - जीवन भर, ब्रह्मचर्य । लेकिन यह इस युग में संभव नहीं है, न तो एक ब्रह्मचारी बनना संभव है । युग बदल गया है, यह युग । इसलिए तुम कृष्ण भावनामृत द्वारा तुम अपनी कामुक इच्छा को नियंत्रित कर सकते हो । अन्यथा यह संभव नहीं है, यद अवधि मम चेत: कृष्ण पदारविन्दे । एक सम्राट, वह राजा था, तो स्वाभाविक रूप से वह भी कामुक था । तो उसने उस जीवन को त्याग दिया, एक भक्त बन गया । तो जब वह पूर्ण तरह से स्थित था, तो उसने कहा यमुनाचार्य - वे रामानुजाचार्य के गुरु थे - तो उन्होंने कहा यद अवधि मम चेत: कृष्ण पदारविन्दे: "जबसे मैंने अपने मन को प्रशिक्षित किया है, कृष्ण के चरण कमलों की सेवा में," यद अवधि मम चेत: कृष्ण पदारविन्दे नव नव धामनि उद्तम रस, "नित्य मैं कृष्ण को सेवा प्रदान कर रहा हूँ, मुझे नई नई प्रसन्नता मिलती है ।"

आध्यात्मिक जीवन का मतलब है... अगर वास्तव में आध्यात्मिक जीवन में कोई स्थित है, तो वह पाएगा आध्यात्मिक प्रसन्नता, दिव्य आनंद, अधिक से अधिक सेवा के द्वारा, नए नए । यही आध्यात्मिक जीवन है । तो यमुनाचार्य नें कहा, यद अवधि मम चेत: कृष्ण पदारविन्दे नव नव धाम्नी उद्यतम रंतुम अासीत:" "जब मैं कृष्ण के चरण कमलों की सेवा करके अब हर पल दिव्य अानंद का एहसास कर रहा हूँ," तद-अवधि, "तब से," बत नारी-संगमे... कभी कभी हम सूक्ष्म खुशी का आनंद लेते हैं, यौन जीवन के बारे में सोच कर । यही नारी-संगमे कहा जाता है । नारी का मतलब है औरत, और संग का मतलब है संघ ।

तो जिनको अादत है, तो वास्तव में कोई संग न होते हुए भी, वे संग के बारे में सोचते हैं | तो यमुनाचार्य कहते हैं "वास्तव में संग नहीं नारी के साथ, पर अगर मैं सोचता हूँ," तद अवधी बत नारी संगमे स्मर्यमाने, स्मर्यमाने, "केवल सोचने से," भवति मुख विकार:, "ओह, तुरंत मैं घृणा करता हूँ: 'आह, यह गंदी बात क्या है?" सुश्ठु निष्ठी... (थूकने की ध्वनि बनाते हुए) यह बिल्कुल सही है । (हँसते हुए) यह पूर्णता है । हाँ । जब तक हम यह सोचते हैं, यह सूक्ष्म यौन जीवन कहा जाता है, सोचना । वे यौन साहित्य पढ़ते हैं । यही सूक्ष्म यौन जीवन है । स्थूल यौन जीवन और सूक्ष्म यौन जीवन । तो हमें कामुक इच्छाओं से पूरी तरह से मुक्त होना है, फँसना नहीं है उसमें जो कभी पूरा नहीं होगा - अपूर्ण, दुष्पूरम ।