Category:HI-Quotes - Lectures, Bhagavad-gita As It Is
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H
- HI/Prabhupada 0004 - आधिकारिक स्रोत की शरण लो
- HI/Prabhupada 0011 - मन में कृष्ण की पूजा की जा सकती है
- HI/Prabhupada 0012 - ज्ञान का स्रोत श्रवण है
- HI/Prabhupada 0013 - आध्यात्मिक कार्य चौबीस घंटे
- HI/Prabhupada 0014 - भक्त इतने महान हैं
- HI/Prabhupada 0015 - मैं ये शरीर नहीं हूँ
- HI/Prabhupada 0016 - मैं काम करना चाहता हूँ
- HI/Prabhupada 0017 - परा शक्ति और अपरा शक्ति
- HI/Prabhupada 0034 - हर कोई अधिकारियों से ज्ञान प्राप्त करता है
- HI/Prabhupada 0035 - ये शरीर में दो जीव है
- HI/Prabhupada 0036 - जीवन का लक्ष्य है हमारे स्वाभाविक स्थिति को समझना
- HI/Prabhupada 0037 - जो कृष्ण को जानता है, वह गुरू है
- HI/Prabhupada 0038 - ज्ञान वेदों से उत्पन्न होता है
- HI/Prabhupada 0040 - यहाँ एक परम पुरुष हैं
- HI/Prabhupada 0041 - वर्तमान जीवन अशुभता से भरा है
- HI/Prabhupada 0043 - भगवद् गीता मुख्य सिद्धांत है
- HI/Prabhupada 0044 - सेवा का अर्थ है तुम गुरु के आदेश का अनुसरण करो
- HI/Prabhupada 0045 - ज्ञान का प्रयोजन ज्ञेयम है
- HI/Prabhupada 0047 - कृष्ण परब्रह्म हैं
- HI/Prabhupada 0048 - आर्यन सभ्यता
- HI/Prabhupada 0049 - हम प्रकृति के नियमों से बंधे हैं
- HI/Prabhupada 0050 - उनको पता नहीं है की अगला जीवन क्या है
- HI/Prabhupada 0055 - श्रवण द्वारा कृष्ण को छूना
- HI/Prabhupada 0058 - आध्यात्मिक शरीर का अर्थ है शाश्वत जीवन
- HI/Prabhupada 0059 - अपने वास्तविक कर्तव्य को मत भूलो
- HI/Prabhupada 0066 - हमें कृष्ण की इच्छाओं से सेहमत होना है
- HI/Prabhupada 0073 - वैकुण्ठ का अर्थ है चिंता के बिना
- HI/Prabhupada 0074 - आपको पशुओ को क्यों खाना चाहिए
- HI/Prabhupada 0081 - सूर्य लोक में शरीर अग्नि से बने हैं
- HI/Prabhupada 0082 - कृष्ण सर्वत्र हैं
- HI/Prabhupada 0084 - केवल कृष्ण का भक्त बनो
- HI/Prabhupada 0088 - हमारे साथ जो छात्र शामिल हुए हैं, वे श्रवणिक अभिग्रहण करते हैं
- HI/Prabhupada 0089 - कृष्ण का तेज सर्वस्व का स्रोत है
- HI/Prabhupada 0092 - हमे कृष्ण को संतुष्ट करने के लिए अपनी इंद्रियों को प्रशिक्षित करना चाहिए
- HI/Prabhupada 0094 - हमारा कार्य कृष्ण के शब्दों को दोहराना है
- HI/Prabhupada 0095 - हमारा काम है शरण लेना
- HI/Prabhupada 0096 - हमे व्यक्ति भागवत से अध्ययन करना चाहिए
- HI/Prabhupada 0099 - कैसे कृष्ण द्वारा मान्यता प्राप्त हो
- HI/Prabhupada 0104 - जन्म और मृत्यु के चक्र को रोको
- HI/Prabhupada 0107 - किसी भी भौतिक शरीर को फिर से स्वीकार न करें
- HI/Prabhupada 0119 - आत्मा सदाबहार है
- HI/Prabhupada 0126 - यह आंदोलन केवल मेरे आध्यात्मिक गुरु की संतुष्टि के लिए शुरू किया गया था
- HI/Prabhupada 0130 - कृष्ण इतने सारे अवतार में दिखाई दे रहे हैं
- HI/Prabhupada 0131 - पिता को समर्पण करना बहुत स्वाभाविक है
- HI/Prabhupada 0132 - वर्गहीन समाज बेकार समाज है
- HI/Prabhupada 0136 - ज्ञान अाता है परम्परा उत्तराधिकार द्वारा
- HI/Prabhupada 0137 - जीवन का उद्देश्य क्या है, भगवान क्या है
- HI/Prabhupada 0146 - अगर मेरी अनुपस्थिति में यह रिकॉर्ड चलाया जाता है , यह एकदम वही आवाज़ दोहराएगा
- HI/Prabhupada 0147 - साधारण चावल सर्वोच्च चावल नहीं कहा जाता है
- HI/Prabhupada 0152 - एक पापी मनुष्य श्री कृष्ण के प्रति जागरूक नहीं बन सकता है
- HI/Prabhupada 0163 - धर्म का मतलब है भगवान द्वारा दिए गए संहिता और कानून
- HI/Prabhupada 0165 - शुद्ध कार्यों को भक्ति कहते हैं
- HI/Prabhupada 0166 - तुम बर्फ को गिरने से नहीं रोक सकते
- HI/Prabhupada 0169 - कृष्ण को देखने के लिए कठिनाई कहां है
- HI/Prabhupada 0186 - भगवान भगवान है । जैसे सोना सोना है
- HI/Prabhupada 0196 - आध्यात्मिक चीजों की लालसा
- HI/Prabhupada 0199 - ये बदमाश तथाकथित टिप्पणीकार, वे कृष्ण से बचना चाहते हैं
- HI/Prabhupada 0221 - मायावादी, उन्हे लगता है कि वे भगवान के साथ एक हो गए हैं
- HI/Prabhupada 0228 - अमर होने का रास्ता समझो
- HI/Prabhupada 0230 - वैदिक सभ्यता के अनुसार, समाज के चार विभाजन हैं
- HI/Prabhupada 0231 - भगवान का मतलब है जो पूरे ब्रह्मांड के मालिक हैं
- HI/Prabhupada 0232 - तो भगवान से जलने वाले दुश्मन भी हैं । वे राक्षस कहे जाते हैं
- HI/Prabhupada 0233 - हमें गुरु और कृष्ण की दया के माध्यम से कृष्ण भावनामृत मिलती है
- HI/Prabhupada 0234 - एक भक्त बनना सबसे बड़ी योग्यता है
- HI/Prabhupada 0235 - अयोग्य गुरू का मतलब है जो शिष्य का मार्गदर्शन कैसे करना है यह नहीं जानता है
- HI/Prabhupada 0236 - एक ब्राह्मण, एक सन्यासी,भीख माँग सकते हैं, लेकिन एक क्षत्रिय नहीं, एक वैश्य नहीं
- HI/Prabhupada 0237 - हम कृष्ण के साथ संपर्क में आ जाते हैं उनका नाम जप कर, हरे कृष्ण
- HI/Prabhupada 0238 - भगवान अच्छे हैं, वे सर्व अच्छे हैं
- HI/Prabhupada 0239 - कृष्ण को समझने के लिए, हमें विशेष इंद्रियों की आवश्यकता है
- HI/Prabhupada 0240 - कोई अधिक बेहतर पूजा नहीं है गोपियों की तुलना में
- HI/Prabhupada 0241 - इन्द्रियॉ सर्पों की तरह हैं
- HI/Prabhupada 0242 - सभ्यता की मूल प्रक्रिया को हमारा वापस जाना बहुत मुश्किल है
- HI/Prabhupada 0243 - एक शिष्य गुरु के पास ज्ञान के लिए आता है
- HI/Prabhupada 0244 - हमारा तत्वज्ञान है कि सब कुछ भगवान के अंतर्गत आता है
- HI/Prabhupada 0245 - हर कोई अपने इन्द्रियों को संतुष्ट करने की कोशिश कर रहा है
- HI/Prabhupada 0246 - कृष्ण का भक्त जो बन जाता है , सभी अच्छे गुण उनके शरीर में प्रकट होते हैं
- HI/Prabhupada 0247 - असली धर्म का मतलब है भगवान से प्यार करना
- HI/Prabhupada 0248 - कृष्ण की १६१०८ पत्नियां थीं, और लगभग हर बार उन्हे लड़ना पड़ा, पत्नी को हासिल करने के लिए
- HI/Prabhupada 0249 - सवाल उठाया गया था कि , क्यों युद्ध होता है
- HI/Prabhupada 0250 - श्री कृष्ण के लिए कार्य करो, भगवान के लिए काम करो, अपने निजी हित के लिए नहीं
- HI/Prabhupada 0251 - गोपियॉ कृष्ण की शाश्वत संगी हैं
- HI/Prabhupada 0252 - हम सोच रहे हैं कि हम स्वतंत्र हैं
- HI/Prabhupada 0253 - असली खुशी भगवद गीता में वर्णित है
- HI/Prabhupada 0254 - वैदिक ज्ञान गुरु समझाता है
- HI/Prabhupada 0255 - भगवान की सरकार में इतने सारे निर्देशक होने चाहिए, वे देवता कहे जाते हैं
- HI/Prabhupada 0256 - इस कलियुग में कृष्ण उनके नाम के रूप में आए हैं, हरे कृष्ण
- HI/Prabhupada 0265 - भक्ति का मतलब है ऋषिकेश, इंद्रियों के मालिक, की सेवा करना
- HI/Prabhupada 0266 - कृष्ण पूर्ण ब्रह्मचारी हैं
- HI/Prabhupada 0267 - श्री कृष्ण क्या हैं व्यासदेव नें वर्णित किया है
- HI/Prabhupada 0268 - कृष्ण का शुद्ध भक्त बने बिना कोई भी कृष्ण को नहीं समझ सकता है
- HI/Prabhupada 0269 - बदमाश अर्थघटन द्वारा भगवद् गीता नहीं समझ सकते हो
- HI/Prabhupada 0270 - तो प्रत्येक व्यक्ति की अपनी प्राकृतिक प्रवृत्तियॉ है
- HI/Prabhupada 0271 - कृष्ण का नाम अच्युत है
- HI/Prabhupada 0272 - भक्ति दिव्य है
- HI/Prabhupada 0273 - आर्य का मतलब है जो कृष्ण भावनामृत में उन्नत है
- HI/Prabhupada 0274 - वैसे ही जैसे हम ब्रह्म सम्प्रदाय के हैं
- HI/Prabhupada 0275 - धर्म का मतलब है कर्तव्य
- HI/Prabhupada 0276 - गुरु का कार्य है कृष्ण देना, न कि भौतिक सामग्री देना
- HI/Prabhupada 0277 - तो कृष्ण भावनामृत का मतलब है हर प्रकार का ज्ञान होना
- HI/Prabhupada 0278 - शिष्य का मतलब है जो अनुशासन स्वीकार करे
- HI/Prabhupada 0279 - वास्तव में हम पैसे की सेवा कर रहे हैं
- HI/Prabhupada 0280 - भक्ति सेवा का मतलब है इंद्रियों को शुद्ध करना
- HI/Prabhupada 0281 - मनुष्य पशु है, लेकिन तर्कसंगत जानवर
- HI/Prabhupada 0282 - हमें आचार्यों के नक्शेकदम पर चलना होगा
- HI/Prabhupada 0317 - हम कृष्ण को आत्मसमर्पण नहीं कर रहे हैं, यही रोग है
- HI/Prabhupada 0318 - सूर्यप्रकाश में आओ
- HI/Prabhupada 0320 - हम कोशिश कर रहे हैं कि लोग भाग्यवान बनें
- HI/Prabhupada 0326 - भगवान सर्वोच्च मालिक हैं, भगवान परम मित्र है
- HI/Prabhupada 0330 - हर किसी को व्यक्तिगत रूप से खुद का ख्याल रखना होगा
- HI/Prabhupada 0333 - हर किसी को शिक्षित कर रहे है दिव्य बनने के लिए
- HI/Prabhupada 0335 - प्रथम श्रेणी के योगी बननें के लिए शिक्षित
- HI/Prabhupada 0338 - इस लोकतंत्र का मूल्य क्या है, सभी मूर्ख और दुष्ट
- HI/Prabhupada 0340 - तुम मौत के लिए नहीं बने हो, लेकिन प्रकृति तुम्हे मजबूर कर रही है
- HI/Prabhupada 0341 - जो बुद्धिमान है , वह इस प्रक्रिया को लेगा
- HI/Prabhupada 0343 - हम मूढों को शिक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं
- HI/Prabhupada 0347 - पहले तुम जन्म लो जहॉ कृष्ण अब मौजूद हैं
- HI/Prabhupada 0348 - अगर पचास साल हम केवल हरे कृष्ण मंत्र का जाप करते हैं, वह पूर्ण होगा यकीनन
- HI/Prabhupada 0350 - हम कोशिश कर रहे हैं लोगों को योग्य बनाने के लिए ताकि वे कृष्ण को देख सकें
- HI/Prabhupada 0358 - इस जीवन में ही हम एक समाधान निकालेंगे । और नहीं । अब अौर अाना नहीं होगा
- HI/Prabhupada 0359 - हमें परम्परा प्रणाली से इस विज्ञान को जानना चाहिए
- HI/Prabhupada 0361 - वे मेरे गुरु हैं । मैं उनका गुरु नहीं हूँ
- HI/Prabhupada 0367 - वृन्दावन का मतलब है कि कृष्ण केंद्र हैं
- HI/Prabhupada 0426 - जो विद्वान व्यक्ति है, वह न तो जीवित के लिए न ही मरे हुए व्यक्ति के लिए विलाप करता है
- HI/Prabhupada 0427 - आत्मा, स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर से अलग हैं
- HI/Prabhupada 0428 - इंसान का विशेषाधिकार है यह समझना कि मैं क्या हूँ
- HI/Prabhupada 0429 - कृष्ण भगवान का नाम है । कृष्ण का मतलब है पूर्ण आकर्षक
- HI/Prabhupada 0430 - चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि भगवान का हर नाम भगवान की तरह ही शक्तिशाली है
- HI/Prabhupada 0431 - भगवान वास्तव में सभी जीव के सही दोस्त हैं
- HI/Prabhupada 0435 - हम इन सभी सांसारिक समस्याओं से हैरान हैं, जो सभी झूठी हैं
- HI/Prabhupada 0436 - सभी हालतों में हंसमुख हो जाएगा, और वह केवल कृष्ण भावनामृत में दिलचस्पी रखेगा
- HI/Prabhupada 0437 - शंख बहुत शुद्ध और दिव्य माना जाता है
- HI/Prabhupada 0438 - गोबर और उसे जला कर राख करके, दंत मंजन के रूप में प्रयोग किया जाता है
- HI/Prabhupada 0439 - मेरे आध्यात्मिक गुरु ने मुझे एक महान मूर्ख पाया
- HI/Prabhupada 0440 - मायावादी सिद्धांत है कि परम आत्मा अवैयक्तिक है
- HI/Prabhupada 0441 - कृष्ण सर्वोच्च हैं, और हम आंशिक हिस्से हैं
- HI/Prabhupada 0442 ईसाई धर्ममें, वे चर्च में जाते है और भगवान से प्रार्थना करते है, 'हमें हमारी रोज़ीरोटी दो'
- HI/Prabhupada 0443 - उनका घर, सब कुछ है । तो अवैयक्तिकता का कोई सवाल नहीं है
- HI/Prabhupada 0444 - गोपी, वे बद्ध आत्मा नहीं हैं । वे मुक्त आत्मा हैं
- HI/Prabhupada 0490 - कई महीनों के लिए माँ के गर्भ में एक वायु रोधक हालत में
- HI/Prabhupada 0491 - मेरी मर्जी के खिलाफ कई पीडाऍ हैं, कई पीडाऍ
- HI/Prabhupada 0492 - बुद्ध तत्वज्ञान है कि तुम इस शरीर को उद्ध्वस्त करो, निर्वाण
- HI/Prabhupada 0493 - जब यह स्थूल शरीर आराम कर रहा है, सूक्ष्म शरीर काम कर रहा है
- HI/Prabhupada 0494 - नेपोलियन नें मजबूत निर्मित मेहराब का निर्माण किया, लेकिन वह कहाँ गया, कोई नहीं जानता
- HI/Prabhupada 0495 - मुझे अपनी आँखें बंद करने दो । मैं खतरे से बाहर हूँ
- HI/Prabhupada 0496 - श्रुति का मतलब है परम से सुनना
- HI/Prabhupada 0497 - हर कोई न मरने की कोशिश कर रहा है
- HI/Prabhupada 0498 - जैसे ही मैं इस शरीर को त्याग देता हूँ, मेरे सारे गगनचुंबी इमारत, व्यापार, कारखाने खतम
- HI/Prabhupada 0499 - वैष्णव बहुत दयालु है, दयालु, क्योंकि वह दूसरों के लिए महसूस करता है
- HI/Prabhupada 0500 - तुम भौतिक दुनिया में स्थायी रूप से खुश नहीं हो सकते हो
- HI/Prabhupada 0501 - हम चिंता से मुक्त नहीं हो सकते हैं जब तक हम कृष्ण भावनामृत को नहीं अपनाते हैं
- HI/Prabhupada 0502 - बकवास धारणाओं का त्याग करो, कृष्ण भावनामृत की उदारता को लो
- HI/Prabhupada 0503 - गुरु स्वीकारना मतलब निरपेक्ष सत्य के बारे में उनसे पूछताछ करना
- HI/Prabhupada 0505 - तुम इस शरीर को नहीं बचा सकते । यह संभव नहीं है
- HI/Prabhupada 0506 - तुम्हारी आँखें शास्त्र होनी चाहिए । यह जड़ आँखें नहीं
- HI/Prabhupada 0507 - अपने प्रत्यक्ष अनुभव से, तुम गणना नहीं कर सकते हो
- HI/Prabhupada 0508 - जो पशु हत्यारे हैं, उनका मस्तिष्क पत्थर के रूप में सुस्त है
- HI/Prabhupada 0509 - ये लोग कहते हैं कि जानवरों की कोई आत्मा नहीं है
- HI/Prabhupada 0510 - आधुनिक सभ्यता, उन्हे आत्मा का ज्ञान नहीं है
- HI/Prabhupada 0511 - वास्तविक भुखमरी आत्मा की है । आत्मा को आध्यात्मिक भोजन नहीं मिल रहा है
- HI/Prabhupada 0512 - जो भौतिक प्रकृति के समक्ष आत्मसमर्पण करता है, उसे भुगतना पड़ता है
- HI/Prabhupada 0513 - कई अन्य शरीर हैं, ८४,००,००० अलग प्रकार के शरीर
- HI/Prabhupada 0514 - इधर, खुशी का मतलब है दर्द का थोड़ा अभाव
- HI/Prabhupada 0515 - तुम खुश नहीं हो सकते हो, श्रीमान, जब तक तुम्हे यह भौतिक शरीर मिला है
- HI/Prabhupada 0516 - तुम स्वतंत्रता का जीवन प्राप्त कर सकते हो, यह कहानी या उपन्यास नहीं है
- HI/Prabhupada 0517 - सिर्फ धनी परिवार में पैदा होने से, तुम्हे बीमारियों से प्रतिरक्षा नहीं मिलेगी
- HI/Prabhupada 0518 - बद्ध जीवन के चार कार्य का मतलब है, जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, और रोग
- HI/Prabhupada 0519 - कृष्ण भावनामृत व्यक्ति, वे किसी छायाचित्र के पीछै नहीं पडे हैं
- HI/Prabhupada 0520 - हम जप कर रहे हैं, हम सुन रहे हैं, हम नाच रहे हैं, हम आनंद ले रहे हैं । क्यों
- HI/Prabhupada 0521 - मेरी नीति रूप गोस्वामी के पद् चिन्हों को अनुसरण करना है
- HI/Prabhupada 0522 - अगर तुम ईमानदारी से इस मंत्र का जाप करते हो, तो सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा
- HI/Prabhupada 0523 - अवतार का मतलब है जो उच्चतर ग्रह से आता है, उच्च ग्रह
- HI/Prabhupada 0524 - अर्जुन कृष्ण के शाश्वत दोस्त हैं । वे भ्रम में नहीं जा सकते
- HI/Prabhupada 0525 - माया इतनी मजबूत है, जैसे ही तुम थोडा सा आश्वस्त होते हो, तुरंत हमला होता है
- HI/Prabhupada 0526 - अगर हम बहुत दृढ़ता से कृष्ण को पकड़ते हैं, माया कुछ नहीं कर सकती है
- HI/Prabhupada 0527 - कृष्ण को अर्पण करने से हमारी हार नहीं होती है । हम केवल फायदे में रहते हैं
- HI/Prabhupada 0549 - योग प्रणाली का मतलब कि तुम्हे इन्द्रियों को नियंत्रित करना है
- HI/Prabhupada 0550 - इस भ्रम के पीछे मत भागो
- HI/Prabhupada 0551 - हमारे छात्र इतने सारे कामों में व्यस्त हैं
- HI/Prabhupada 0552 - जन्म और मृत्यु की इस पुनरावृत्ति को कैसे रोकें, मैं जहर पी रहा हूँ
- HI/Prabhupada 0553 - तुम्हे हिमालय जाने की आवश्यकता नहीं है । तुम बस, लॉस एंजिल्स शहर में रहो
- HI/Prabhupada 0554 - इस मायिका दुनिया के प्रशांत महासागर के बीच में हैं
- HI/Prabhupada 0555 - आध्यात्मिक समझ के मामले में सोना
- HI/Prabhupada 0556 - आत्म साक्षात्कार की पहली समझ है, कि आत्मा शाश्वत है
- HI/Prabhupada 0557 - हमें बहुत दृढ़ता से हरिदास ठाकुर की तरह कृष्ण भावनामृत में डटे रहना चाहिए
- HI/Prabhupada 0558 - हमारी स्थिति तटस्थ है । किसी भी समय, हम नीचे गिर सकते हैं
- HI/Prabhupada 0559 - वे मूर्खतावश सोचते हैं कि बस "मैं हर चीज़ का राजा हूँ "
- HI/Prabhupada 0574 - तुम मंजूरी के बिना किसी को नहीं मार सकते हो
- HI/Prabhupada 0575 - उन्हे अंधेरे में और अज्ञानता में रखा जाता है
- HI/Prabhupada 0576 - प्रक्रिया यह होनी चाहिए कि कैसे इन सभी प्रवृत्तियों को शून्य करें
- HI/Prabhupada 0577 - तथाकथित तत्वज्ञानी, वैज्ञानिक, सभी, इसलिए दुष्ट, मूर्ख । उन्हें अस्वीकार करो
- HI/Prabhupada 0578 - वही बोलो जो कृष्ण कहते हैं
- HI/Prabhupada 0579 - आत्मा उसके शरीर को बदल रही है जैसे हम अपने वस्र को बदलते हैं
- HI/Prabhupada 0580 - हम भगवान की मंजूरी के बिना हमारी इच्छाओं को पूरा नहीं कर सकते हैं
- HI/Prabhupada 0581 - अगर तुम कृष्ण की सेवा में अपने आप को संलग्न करते हो, तुम्हे नया प्रोत्साहन मिलेगा
- HI/Prabhupada 0582 - कृष्ण ह्दय में बैठे हैं
- HI/Prabhupada 0583 - सब कुछ भगवद गीता में है
- HI/Prabhupada 0584 - हम च्युत हो जाते हैं, नीचे गिर जाते हैं । लेकिन कृष्ण अच्युत हैं
- HI/Prabhupada 0585 - एक वैष्णव दूसरों को दुखी देखकर दुखी होता है
- HI/Prabhupada 0586 - वास्तव में शरीर की यह स्वीकृति का मतलब नहीं है कि मैं मरता हूँ
- HI/Prabhupada 0587 - संभव नहीं है । तो हम में से हर एक आध्यात्मिक भूख में है
- HI/Prabhupada 0588 - जो हम चाहते हैं कृष्ण तुम्हें दे देंगे
- HI/Prabhupada 0589 - हम इन भौतिक किस्मों से निराश हो रहे हैं
- HI/Prabhupada 0590 - इस शुद्धि का मतलब है कि हमें पता होना चाहिए कि, 'मैं यह शरीर नहीं हूँ । मैं आत्मा हूं'
- HI/Prabhupada 0591 - मेरा काम इस भौतिक चंगुल से बाहर निकलना है
- HI/Prabhupada 0592 - आपको बस कृष्ण के बारे में सोचने पर आना चाहिए
- HI/Prabhupada 0593 - जैसे ही तुम कृष्णभावनामृत में आते हो, तुम प्रसन्न हो जाते हो
- HI/Prabhupada 0594 - आत्मा को हमारे भौतिक उपकरणों से मापना असंभव है
- HI/Prabhupada 0595 - अगर आप विविधता चाहते हैं तो आपको एक ग्रह का आश्रय लेना होगा
- HI/Prabhupada 0596 -आत्मा को टुकड़ों में काटा नहीं जा सकता है
- HI/Prabhupada 0597 - हम इतनी मेहनत से काम कर रहे हैं जीवन में कुछ अानन्द प्राप्त करने के लिए
- HI/Prabhupada 0598 - हम नहीं समझ सकते हैं कि वे कितने महान हैं ! यह हमारी मूर्खता है
- HI/Prabhupada 0599 - कृष्ण भावनामृत इतना आसान नहीं है । जब तक आप अपने आप को आत्मसमर्पित न करे
- HI/Prabhupada 0600 - हम आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार नहीं हैं । यह हमारा भौतिक रोग है
- HI/Prabhupada 0610 - जब तक कोई वर्ण और आश्रम की संस्था को अपनाता नहीं है, वह मनुष्य नहीं है
- HI/Prabhupada 0613 - हमें विशेष ख्याल रखना होगा छह चीज़ो का
- HI/Prabhupada 0615 - प्रेम और उत्साह के साथ कृष्ण के लिए काम करते हो, यही तुम्हारा कृष्ण भावनाभावित जीवन है
- HI/Prabhupada 0621 - कृष्ण भावनामृत आंदोलन लोगों को सिखा रहा है प्राधिकारी के प्रति विनम्र बनना
- HI/Prabhupada 0623 - आत्मा, एक शरीर से दूसरे में देहांतरित होता है
- HI/Prabhupada 0624 - भगवान भी शाश्वत हैं, और हम भी शाश्वत हैं
- HI/Prabhupada 0625 - जीवन की आवश्यकताऍ परम शाश्वत, परमेश्वर द्वारा आपूर्ति की जा रही है
- HI/Prabhupada 0626 - अगर तुम तथ्यात्मक बातें जानना चाहते हो, तो तुम्हे आचार्य के पास जाना होगा
- HI/Prabhupada 0627 - ताज़गी के बिना, हम इस उदात्त विषय वस्तु को नहीं समझ सकते हैं
- HI/Prabhupada 0628 - हम ऐसी बातों को स्वीकार नहीं करते हैं, "शायद ।" नहीं । हम जो तथ्य है वह स्वीकार करते हैं
- HI/Prabhupada 0629 - हम अलग अलग वस्त्र में भगवान के विभिन्न पुत्र हैं
- HI/Prabhupada 0630 - शोक का कोई कारण नहीं है, क्योंकी आत्मा रहेगी
- HI/Prabhupada 0631 - मैं शाश्वत हूँ, शरीर शाश्वत नहीं है । यह तथ्य है
- HI/Prabhupada 0632 -जब एहसास होता है कि मैं यह शरीर नहीं हूं , तो तुरंत प्रकृति के तीनों गुणों से परे हो जाता हूँ
- HI/Prabhupada 0633 - हम कृष्ण की चमकति चिंगारी जैसे हैं
- HI/Prabhupada 0634 - कृष्ण माया शक्ति से कभी प्रभावित नहीं होते हैं
- HI/Prabhupada 0635 - आत्मा हर शरीर में है, यहां तक कि चींटी के भीतर भी
- HI/Prabhupada 0636 - जो पंडित हैं, वे भेद नहीं करते हैं कि उनकी आत्मा नहीं है । हर किसी की आत्मा है
- HI/Prabhupada 0637 - कृष्ण की उपस्थिति के बिना कुछ भी मौजूद नहीं हो सकता है
- HI/Prabhupada 0638 - यह प्रथम श्रेणी का योगी है, जो हमेशा कृष्ण के बारे में चिन्तन करता है
- HI/Prabhupada 0639 - व्यक्तिगत अात्मा हर शरीर में है और परमात्मा, परमात्मा असली मालिक हैं
- HI/Prabhupada 0640 - तुम्हे खुद को भगवान घोषित करने वाले बदमाश मिल सकते हैं, उसके चेहरे पर लात मारो
- HI/Prabhupada 0641 - एक भक्त की कोई मांग नहीं होती है
- HI/Prabhupada 0642 - यह कृष्ण भावनामृत का अभ्यास है भौतिक शरीर को आध्यात्मिक शरीर में बदलना
- HI/Prabhupada 0643 - जो कृष्ण भावनामृत में उन्नत हैं, उन्हें कृष्ण के लिए काम करना है
- HI/Prabhupada 0644 - सब कुछ है कृष्ण भावनामृत में
- HI/Prabhupada 0645 - जिसने यह आत्मसाक्षातकार कर लिया है, वह हर जगह वृन्दावन में है
- HI/Prabhupada 0646 - योग प्रणाली यह नहीं है कि तुम बकवास करते रहो
- HI/Prabhupada 0647 - योग का मतलब है परम के साथ संबंध
- HI/Prabhupada 0648 - स्वभाव से हम जीव हैं, हमें कुछ करना ही होगा
- HI/Prabhupada 0649 -मन चालक है । शरीर रथ या गाडी है
- HI/Prabhupada 0650 - कृष्ण भावनामृत के पूर्ण योग से इस उलझन से बहार निकलो
- HI/Prabhupada 0651 - पूरी योग प्रणाली का मतलब है मन को हमारा दोस्त बनाना
- HI/Prabhupada 0652 - यह पद्म पुराण सत्व गुण में रहने वाले व्यक्तियों के लिए है
- HI/Prabhupada 0653 - अगर मेरे पिता एक रूप नहीं है, तो मुझे यह रूप कहाँ से प्राप्त हुआ
- HI/Prabhupada 0654 - तुम अपने प्रयास से भगवान को नहीं देख सकते हो क्योंकि तुम्हारी इन्द्रियॉ अपूर्ण हैं
- HI/Prabhupada 0655 - धर्म का उद्देश्य है भगवान को समझना । और भगवान से प्रेम करना सीखना
- HI/Prabhupada 0656 - जो लोग भक्त हैं, वे किसी से नफरत नहीं करते हैं
- HI/Prabhupada 0657 - मंदिर इस युग के लिए एक मात्र एकांत जगह है
- HI/Prabhupada 0658 - श्रीमद भागवतम सर्वोच्च ज्ञानयोग है और भक्ति योग है, संयुक्त
- HI/Prabhupada 0659 - बस विष्णु के बारे में सुनना और कीर्तन करना
- HI/Prabhupada 0660 - केवल यौन जीवन को नियंत्रित करके तुम एक बहुत शक्तिशाली आदमी बन जाते हो
- HI/Prabhupada 0661 - कोई भी इन लड़कों की तुलना में बेहतर ध्यानी नहीं है
- HI/Prabhupada 0662 - वे चिंता से भरे हुए हैं क्योंकि उन्होंने अस्थायी को ग्रहण किया है
- HI/Prabhupada 0663 - कृष्ण के साथ अपना खोया संबंध पुनःस्थापित करो । यही योगाभ्यास है
- HI/Prabhupada 0664 - शून्य का तत्वज्ञान एक और भ्रम है । शून्य नहीं हो सकता
- HI/Prabhupada 0665 - कृष्ण ग्रह, गोलोक वृन्दावन, वह स्वत: प्रकाशित है
- HI/Prabhupada 0666 अगर सूर्य तुम्हारे कमरे में प्रवेश कर सकता है, क्या कृष्ण तुम्हारे में प्रवेश नहीं कर सकते
- HI/Prabhupada 0667 - पूरी अचेतना अायी है इस शरीर के कारण
- HI/Prabhupada 0668 - एक महीने में कम से कम दो अनिवार्य उपवास
- HI/Prabhupada 0669 - मन को केंद्रित करने का मतलब है कृष्ण में अपने मन को दृढ करना
- HI/Prabhupada 0670 - कृष्ण में अपने मन को दृढ करते हो, फिर भौतिक हिलना नहीं रहता
- HI/Prabhupada 0671 - आनंद का मतलब है दो, कृष्ण और तुम
- HI/Prabhupada 0672 - जब तुम कृष्ण भावनामृत में हो तो तुम्हारी पूर्णता की गारंटी है
- HI/Prabhupada 0673 - एक चिड़िया सागर को सूखने की कोशिश कर रही है
- HI/Prabhupada 0674 - इतना बुद्धिमान होना चाहिए कि अपने शरीर को चुस्त रखने के लिए कितना खाना आवश्यक है
- HI/Prabhupada 0675 - एक भक्त दया का सागर है । वह दया वितरित करना चाहता है
- HI/Prabhupada 0676 - मन द्वारा नियंत्रित किए जाने का मतलब है इंद्रियों के द्वारा नियंत्रित होना
- HI/Prabhupada 0677 - गोस्वामी एक वंशानुगत शीर्षक नहीं है । यह एक योग्यता है
- HI/Prabhupada 0678 - कृष्ण भावनाभावित व्यक्ति योग समाधि में हमेशा रहता है
- HI/Prabhupada 0679 - कृष्ण भावनामृत में कुछ भी किया गया, जानकरी में या अन्जाने में, उसका प्रभाव होगा ही
- HI/Prabhupada 0680 - हम सोच रहे हैं कि हम इस भूमि पर बैठे हैं, लेकिन वास्तव में हम कृष्ण पर बैठे हैं
- HI/Prabhupada 0681 - अगर तुम कृष्ण से प्रेम करते हो, तो तुम विश्व से प्रेम करते हो
- HI/Prabhupada 0682 - भगवान मेरे अाज्ञापालक नही हैं
- HI/Prabhupada 0683 - योगी जो विष्णु रूप में समाधि में है, और एक कृष्ण भावनाभावित व्यक्ति में, कोई अंतर नहीं है
- HI/Prabhupada 0684 - योगपद्धतिकी महत्वपूर्ण परीक्षा है अगर तुम विष्णुके रूप पर अपने मनको केंद्रित कर सकते हो
- HI/Prabhupada 0685 - भक्ति योग पद्धति त्वरित परिणाम, इसी जीवन में आत्म साक्षात्कार और मुक्ति
- HI/Prabhupada 0686 - झंझावात को रोक पाना कठिन होता है और उच्छृंखल मन को रोक पाना तो और भी कठिन है
- HI/Prabhupada 0687 - शून्य में अपने मन को केंद्रित करना, यह बहुत मुश्किल है
- HI/Prabhupada 0688 - माया पर धावा बोलना
- HI/Prabhupada 0689 - अगर तुम दिव्य संग करते हो, तो तुम्हारी चेतना दिव्य है
- HI/Prabhupada 0690 - भगवान शुद्ध हैं, और उनका धाम भी शुद्ध है
- HI/Prabhupada 0691 - जो हमारे समाज में दिक्षा लेना चाहता है, हम चार सिद्धांत रखते हैं
- HI/Prabhupada 0692 - भक्ति योग, योग सिद्धांतों का सर्वोच्च मंच है
- HI/Prabhupada 0693 - जब हम सेवा की बात करते हैं, कोई मकसद नहीं है । सेवा प्रेम है
- HI/Prabhupada 0694 - सेवा भाव में फिर से जाना होगा । यह एकदम सही इलाज है
- HI/Prabhupada 0695 - सस्ते में वे भगवान का चयन करते हैं । भगवान इतने सस्ते हो गए हैं 'मैं भगवान हूँ, तुम भगवान हो'
- HI/Prabhupada 0696 - भक्ति योग शुद्ध (मिलावट के बिना) भक्ति है
- HI/Prabhupada 0697 - आपकी सेवा में मुझे संलग्न करें, बस । यही मांग की जानी चाहिए
- HI/Prabhupada 0698 - इन्द्रियों की सेवा करने की बजाय, कृपया तुम राधा कृष्ण की सेवा करो, तो तुम खुश रहोगे
- HI/Prabhupada 0699 - प्रेमी भक्त, श्री कृष्ण से प्रेम करना चाहता है, अपने मूल रूप में
- HI/Prabhupada 0700 - सेवा मतलब तीन चीज़ें स्वामी, सेवक और सेवा
- HI/Prabhupada 0701 -अगर तुम स्नेह रखते हो आध्यात्मिक गुरु के लिए, इस जीवन में अपने कार्य को खत्म करना होगा
- HI/Prabhupada 0702 - मैं आत्मा हूँ, शाश्वत हूँ। अब मैं पदार्थों से दूषित हूँ, इसलिए मैं भुगत रहा हूँ
- HI/Prabhupada 0703 - अगर तुम श्री कृष्ण में अपने मन को स्थित करते हो तो यह समाधि है
- HI/Prabhupada 0704 - हरे कृष्ण मंत्र जपो और सुनने के लिए इस उपकरण (तुम्हारे कान) का उपयोग करो
- HI/Prabhupada 0705 - हम भगवद गीता में पाऍगे, भगवान का यह सबसे उत्कृष्ट विज्ञान
- HI/Prabhupada 0709 - भगवान की परिभाषा
- HI/Prabhupada 0720 - कृष्ण भावनामृत द्वारा तुम अपने कामुक इच्छा को नियंत्रित कर सकते हो
- HI/Prabhupada 0723 - रसायन जीवन से आते हैं ; जीवन रसायन से नहीं आता है
- HI/Prabhupada 0737 - पहला आध्यात्मिक ज्ञान यह है कि 'मैं यह शरीर नहीं हूं'
- HI/Prabhupada 0741 - कृष्ण भावनामृत आंदोलन का उद्देश्य है मानव समाज की मरम्मत
- HI/Prabhupada 0743 - अगर तुम आनंद के अपने कार्यक्रम का निर्माण करते हो तो तुम्हे थप्पड़ मिलेगा
- HI/Prabhupada 0750 - क्यों माँ इतनी सम्मानीय है
- HI/Prabhupada 0768 - मुक्ति अर्थात् पुनः भौतिक शरीर प्राप्त करने की जरूरत न होना । इसी को मुक्ति कहा जाता है
- HI/Prabhupada 0783 - इस भौतिक दुनिया में हम भोग करने की भावना से आए हैं। इसलिए हम पतीत हैं
- HI/Prabhupada 0787 - लोग गलत समझते हैं, कि भगवद गीता साधारण युद्ध है, हिंसा
- HI/Prabhupada 0788 - हमें समझने की कोशिश करनी चाहिए कि क्यों हम दुखी हैं क्योंकि हम इस भौतिक शरीर में हैं
- HI/Prabhupada 0789 - कर्मक्षेत्र, क्षेत्र का मालिक और क्षेत्र का पर्यवेक्षक
- HI/Prabhupada 0794 - धूर्त गुरु कहेगा " हाँ तुम कुछ भी खा सकते हो । तुम कुछ भी कर सकते हो
- HI/Prabhupada 0796 - मत सोचो कि मैं बोल रहा हूँ । मैं बस साधन हूँ । असली वक्ता भगवान हैं
- HI/Prabhupada 0798 - तुम नर्तकी हो। अब तुम्हे नृत्य करना होगा । तुम शर्मा नहीं सकती
- HI/Prabhupada 0808 - हम कृष्ण को धोखा नहीं दे सकते हैं
- HI/Prabhupada 0813 -वास्तविक स्वतंत्रता है कैसे भौतिक कानूनों की पकड़ से बाहर निकलें
- HI/Prabhupada 0815 - तो भगवान साक्षी हैं । वे परिणाम दे रहे हैं
- HI/Prabhupada 0817 - केवल यह कहना कि ''मैं ईसाई हूं" "मैं हिंदू हूँ" 'मैं मुसलमान हूँ, कोई लाभ नहीं है
- HI/Prabhupada 0824 - आध्यात्मिक दुनिया में कोई असहमति नहीं है
- HI/Prabhupada 0842 - कृष्ण भावनामृत आंदोलन, निवृत्ति मार्ग का प्रशिक्षण है, बुनियादी सिद्धांत, कई मनाई हैं
- HI/Prabhupada 0843 - उनके जीवन की शुरुआत ही बहुत गलत है । वे इस शरीर को आत्मा मान रहे हैं
- HI/Prabhupada 0845 - कुत्ता भी जानता है कि कैसे यौन जीवन के उपयोग करें । फ्रायड के तत्वज्ञान की आवश्यकता नहीं ह
- HI/Prabhupada 0962 - हम ठोस तथ्य के रूप में भगवान को मानते हैं
- HI/Prabhupada 0963 - केवल कृष्ण का एक भक्त जो उनसे घनिष्टता के संबंध रखता है भगवद गीता को समझ सकता है
- HI/Prabhupada 0964 - जब कृष्ण इस ग्रह पर विद्यमान थे, वे गोलोक वृन्दावन में अनुपस्थित थे । नहीं
- HI/Prabhupada 0965 - हमें उस व्यक्ति की शरण लेना है जिसका जीवन कृष्ण को समर्पित है
- HI/Prabhupada 0966 - हम भगवान के दर्शन कर सकते हैं जब आंखें रंगीं हो भक्ति के काजल से
- HI/Prabhupada 0967 - कृष्ण को, भगवान को, समझने के लिए हमें अपनी इन्द्रियों को शुद्ध करना होगा
- HI/Prabhupada 0968 - पश्चिमी तत्वज्ञान सुखवाद का है, खाअो, पियो, ऐश करो
- HI/Prabhupada 0969 - अगर तुम अपनी जीभ को भगवान की सेवा में लगाते हो, वे खुद को तुम्हे प्रकट करेंगे
- HI/Prabhupada 0970 - जीभ को हमेशा भगवान की महिमा करने के लिए उपयोग किया जाना चाहिए
- HI/Prabhupada 0971 - तो जब तक तुम जीवन की शारीरिक अवधारणा में हो, तुम जानवर से बेहतर नहीं हो
- HI/Prabhupada 0972 - समझने की कोशिश करो 'किस तरह का शरीर मुझे अगला मिलेगा?
- HI/Prabhupada 0973 - अगर वह सिद्धांतों का पालन करता है, तो वह निश्चित रूप से भगवद धाम वापस जाता है
- HI/Prabhupada 0974 - हमारी महानता बहुत, बहुत छोटी है, अत्यल्प । भगवान बहुत महान हैं
- HI/Prabhupada 0975 - हम छोटे भगवान हैं । सूक्ष्म, नमूने के भगवान
- HI/Prabhupada 0976 - जनसंख्या के अधिक होने का कोई सवाल नहीं है । यह एक गलत सिद्धांत है
- HI/Prabhupada 0977 - यह भौतिक शारीर हमारे आध्यात्मिक शरीर के अनुसार काटा जाता है
- HI/Prabhupada 0978 - अगर तुम्हे ब्राह्मण की आवश्यकता नहीं है, तो तुम भुगतोगे
- HI/Prabhupada 0979 - भारत की हालत बहुत ही अराजक है
- HI/Prabhupada 0993 - यह व्यवस्था करो कि वह भूखा नहीं रहा है । यह आध्यात्मिक साम्यवाद है
- HI/Prabhupada 1057 - भगवद्-गीता को गीतोपनिषद् भी कहा जाता है, वैदिक ज्ञान का सार
- HI/Prabhupada 1058 - भगवद गीता के वक्ता भगवान श्री कृष्ण हैं
- HI/Prabhupada 1059 - प्रत्येक व्यक्ति का भगवान के साथ विशिष्ट संबंध है
- HI/Prabhupada 1060 - जब तक कोई भगवद गीता का पाठ विनम्र भाव से नहीं करता है...
- HI/Prabhupada 1061 - इस भगवद गीता की विषयवस्तु में पाँच मूल सत्यों का ज्ञान निहित है
- HI/Prabhupada 1062 - हमारी वृत्ति भौतिक प्रकृति को नियंत्रित करने की है
- HI/Prabhupada 1063 - हमें सभी प्रकार के कर्मफल से मुक्ति दो
- HI/Prabhupada 1064 - भगवान हरेक जीव के हृदय में वास करते हैं
- HI/Prabhupada 1065 - व्यक्ति को सर्वप्रथम यह जान लेना चाहिए कि वो यह शरीर नहीं है
- HI/Prabhupada 1066 - अल्पज्ञानी लोग परम सत्य को निराकार मानते हैं
- HI/Prabhupada 1067 - हमें भगवद गीता को किसी भी प्रकार की टीका टिप्पणी के बग़ैर, बिना घटाए स्वीकार करना है
- HI/Prabhupada 1068 - विभिन्न प्रकार के गुणों के अनुसार तीन प्रकार के कर्म हैं
- HI/Prabhupada 1069 - रिलीजन से विश्वास का भाव सूचित होता है । विश्वास परिवर्तित हो सकता है - सनातन धर्म नहीं
- HI/Prabhupada 1070 - सेवा करना जीव का शाश्वत धर्म है
- HI/Prabhupada 1071 - अगर हम भगवान का संग करते हैं, उनका सहयोग करते हैं, तो हम सुखी बन जाते हैं
- HI/Prabhupada 1072 - भौतिक जगत को छोड़ना और नित्य धाम में अनन्दमय जीवन पाना
- HI/Prabhupada 1073 - जब तक हम भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की प्रवृत्ति को नहीं त्यागते
- HI/Prabhupada 1074 - इस संसार में जितने भी दुख का हम अनुभव करते हैं - ये सब शरीर से उत्पन्न है
- HI/Prabhupada 1075 - इस जीवन के कर्मो से हम अगले जीवन की तैयारी कर रहे हैं
- HI/Prabhupada 1076 - मृत्यु के समय हम या तो इस संसार में रह सकते हैं या आध्यात्मिक जगत जा सकते हैं
- HI/Prabhupada 1077 - भगवान पूर्ण हैं, उनके नाम और उनमे कोई अंतर नहीं है
- HI/Prabhupada 1078 - मन तथा बुद्धि को चौबीस घंटे भगवान के विचार में लीन करना
- HI/Prabhupada 1079 - भगवद गीता एक दिव्य साहित्य है जिसको हमें ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए
- HI/Prabhupada 1080 - भगवद गीता में संक्षेप रुप से बताया है - एक ईश्वर कृष्ण हैं, वे सांप्रदायिक ईश्वर नहीं हैं