HI/Prabhupada 0224 - बड़े मकान का निर्माण, एक दोषपूर्ण नींव पर: Difference between revisions

(Created page with "<!-- BEGIN CATEGORY LIST --> Category:1080 Hindi Pages with Videos Category:Prabhupada 0224 - in all Languages Category:HI-Quotes - 1975 Category:HI-Quotes - Arr...")
 
(Vanibot #0019: LinkReviser - Revise links, localize and redirect them to the de facto address)
 
Line 6: Line 6:
[[Category:HI-Quotes - in Mauritius]]
[[Category:HI-Quotes - in Mauritius]]
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- BEGIN NAVIGATION BAR -- DO NOT EDIT OR REMOVE -->
{{1080 videos navigation - All Languages|Hindi|HI/Prabhupada 0223 - यह संस्था पूरे मानव समाज को शिक्षित करने के लिए होनी चाहिए|0223|HI/Prabhupada 0225 - निराश मत हो,भ्रमित मत हो|0225}}
<!-- END NAVIGATION BAR -->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<div class="center">
<div class="center">
Line 14: Line 17:


<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
{{youtube_right|a56mZuMEE0U|बड़े मकान का निर्माण, एक दोषपूर्ण नींव पर - Prabhupāda 0224}}
{{youtube_right|9a_mtc55kus|बड़े मकान का निर्माण, एक दोषपूर्ण नींव पर - Prabhupāda 0224}}
<!-- END VIDEO LINK -->
<!-- END VIDEO LINK -->


<!-- BEGIN AUDIO LINK -->
<!-- BEGIN AUDIO LINK -->
<mp3player>http://vaniquotes.org/w/images/751001AR.MAU_clip.mp3</mp3player>
<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/clip/751001AR.MAU_clip.mp3</mp3player>
<!-- END AUDIO LINK -->
<!-- END AUDIO LINK -->


Line 26: Line 29:


<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT -->
<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT -->
तत्वज्ञान एक मानसिक अटकल नहीं है । तत्वज्ञान मुखय ज्ञान है जो अन्य सभी विज्ञानों का स्रोत है। यही तत्वज्ञान है । तो हमारा कृष्ण भावनामृत आंदोलन लोगों को शिक्षित करने की कोशिश कर रहा है इस विज्ञान के विज्ञान पर कि पहले हम समझें "तुम क्या हो? तुम यह शरीर हो या इस शरीर से अलग हो? "यह आवश्यक है । और अगर तुम अपना बड़े मकान का निर्माण करते जाते हो, एक दोषपूर्ण नींव पर, तो यह नहीं रहेगी । खतरा होगा । तो आधुनिक सभ्यता यह दोषपूर्ण विचार पर आधारित है कि "मैं यह शरीर हूँ ।" "मैं भारतीय हूँ," "मैं अमेरिकी हूँ," "मैं हिन्दू हूँ," "मैं मुसलमान हूँ," "मैं ईसाई हूं". ये सभी जीवन के शारीरिक अवधारणा पर अाधारित हैं । " क्योंकि मुझे एक ईसाई पिता और मां से यह शरीर मिला है इसलिए मैं एक ईसाई हूं ।" लेकिन मैं यह शरीर नहीं हूं । "क्योंकि मुझे एक हिंदू पिता और मां से यह शरीर मिला है, इसलिए मैं हिन्दू हूँ ।" लेकिन मैं यह शरीर नहीं हूं । तो आध्यात्मिक समझ के लिए, इस बुनियादी सिद्धांत को समझना है, कि "मैं यह शरीर नहीं हूं, मैं आत्मा हूँ," अहम् ब्रह्मास्मि । यह वैदिक शिक्षा है: " समझने की कोशिश करो कि तुम आत्मा हो, तुम यह शरीर नहीं हो ।" योग प्रणाली का अभ्यास सिर्फ इस बात को समझने के लिए है । योग इन्द्रिय सम्यमह: इंद्रियों को नियंत्रित करके, विशेष रूप से मन , ... मन मालिक है या इंद्रियों का प्रमुख है । मन: श्शठानीन्द्रियानि प्रकृति-स्थानि कर्शति ([[Vanisource:BG 15.7|भगी १५।७]]) हम एक संघर्ष के दौर से गुजर रहे हैं अस्तित्व के लिए इस मन और इन्द्रियों के साथ, झूठी धारणा के तहत कि यह शरीर ही हम हैं । तो अगर हम हमारे मन पर ध्यान केंद्रित करते हैं इंद्रियों को नियंत्रित करके, तो हम धीरे - धीरे समझ सकते हैं । धयानावस्थित-तद-गतेन मनसा पश्यन्ति योगिन: ([[Vanisource:SB 12.13.1|श्रीभ १२।१३।१]]) योगि, वे ध्यान करते हैं परम व्यक्तित्व, विष्णु पर । और उस प्रक्रिया से उन्हे स्वयं का बोध होता है । आत्मबोध मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य है । तो आत्मबोध की शुरुआत है यह समझना कि "मैं यह शरीर नहीं हूं, मैं आत्मा हूँ ।" अहम् ब्रह्मास्मि
तत्वज्ञान एक मानसिक अटकल नहीं है । तत्वज्ञान मुखय ज्ञान है जो अन्य सभी विज्ञानों का स्रोत है। यही तत्वज्ञान है । तो हमारा कृष्ण भावनामृत आंदोलन लोगों को शिक्षित करने की कोशिश कर रहा है इस विज्ञान के विज्ञान पर कि पहले हम समझें "तुम क्या हो? तुम यह शरीर हो या इस शरीर से अलग हो? "यह आवश्यक है । और अगर तुम अपना बड़े मकान का निर्माण करते जाते हो, एक दोषपूर्ण नींव पर, तो यह नहीं रहेगी । खतरा होगा । तो आधुनिक सभ्यता यह दोषपूर्ण विचार पर आधारित है कि "मैं यह शरीर हूँ ।" "मैं भारतीय हूँ," "मैं अमेरिकी हूँ," "मैं हिन्दू हूँ," "मैं मुसलमान हूँ," "मैं ईसाई हूं". ये सभी जीवन के शारीरिक अवधारणा पर अाधारित हैं । " क्योंकि मुझे एक ईसाई पिता और मां से यह शरीर मिला है इसलिए मैं एक ईसाई हूं ।" लेकिन मैं यह शरीर नहीं हूं । "क्योंकि मुझे एक हिंदू पिता और मां से यह शरीर मिला है, इसलिए मैं हिन्दू हूँ ।" लेकिन मैं यह शरीर नहीं हूं ।  


तो इन बातों को बहुत अच्छी तरह से भगवद गीता में समझाया जाता है । अगर हुम केवल भगवद गीता ध्यान से पढ़ें, उचित मार्गदर्शन के तहत, तब सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा, बिना किसी कठिनाई कि, " मैं यह शरीर नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ ।" मेरे काम जीवन की इस शारीरिक अवधारणा से अलग है । मैं कभी खुश नहीं रहूँगा स्वयं को यह शरीर मानकर । यह ज्ञान का एक गलत आधार है ।" इस तरह से हम प्रगति करें तो हम समझेंगे अहम् ब्रह्मास्मि : "मैं आत्मा हूँ ।" फिर कहाँ से मैं आया हूँ? सब कुछ भगवद गीता में वर्णित है, कि आत्मा, श्री कृष्ण कहते हैं कि, भगवान कहते हैं, ममैवाम्शो जीव-भूत: ([[Vanisource:BG 15.7|भगी १५।७]]) "ये जीव, वे मेरे अभिन्न अंग हैं, टुकड़े, या छोटे स्पार्क्स हैं ।" जैसे बड़ी आग और छोटी सी आग, दोनों आग हैं, लेकिन बड़ी आग और छोटी सी आग ... जहॉ तक आग की गुणवत्ता का संबंध है, भगवान और हम एक हैं । तो हम समझ सकते हैं, हम अपने आप का अध्ययन करके भगवान का अध्ययन कर सकते हैं । वह भी एक और ध्यान है । लेकिन यह बिल्कुल सही होगा जब हम समझते हैं "हालांकि गुणात्मक मैं भगवान का एक नमूना हूँ या एक ही गुणवत्ता का, लेकिन फिर भी, वे महान हैं, मैं तुच्छ हूँ ।" यह एकदम सही समझ है । अनु, विभु, ब्रह्मण, पर- ब्रह्मण, ईश्वर, परमेश्वर - यह सही समझ है । क्योंकि मैं गुणात्मक एक हूँ, इसका मतलब यह नहीं है कि मैं परम हूँ । वेदों में कहा जाता है, नित्यो नित्यानाम चेतनस् चेतनानाम ( कथा उपनिषद २।२।१३) हम नित्या हैं, अनन्त हैं, भगवान भी शाश्वत है । हम जीव हैं, भगवान भी एक जीव हैं । लेकिन वे जीवों में मुख्य हैं, वह मुख्य अनन्त हैं । हम भी अनन्त हैं, लेकिन हम प्रमुख नहीं हैं । क्यों? एको यो बहुनाम विदधाति कामान । जैसे हमे एक नेता की आवश्यकता होती है, उसी तरह वे सर्वोच्च नेता हैं । वे अनुरक्षक है । वे विधि हैं । वे हर किसी की जरूरतों को प्रदान कर रहे हैं । हम देख सकते हैं कि अफ्रीका में हाथी हैं । कौन उन्हें भोजन उपलब्ध करा रहा है? तुम्हारे कमरे में छेद के भीतर लाखों चींटियॉ हैं । कौन उन्हें खिला रहा है? एको यो बहुनाम विदधाति कामान । तो इस तरह से अगर हम अपना बोध करते हैं, यही आत्म - बोध है ।
तो आध्यात्मिक समझ के लिए, इस बुनियादी सिद्धांत को समझना है, कि "मैं यह शरीर नहीं हूं, मैं आत्मा हूँ," अहम् ब्रह्मास्मि । यह वैदिक शिक्षा है: " समझने की कोशिश करो कि तुम आत्मा हो, तुम यह शरीर नहीं हो ।" योग प्रणाली का अभ्यास  सिर्फ इस बात को समझने के लिए है । योग इन्द्रिय संयम: इंद्रियों को नियंत्रित करके, विशेष रूप से मन ,  ... मन मालिक है या इंद्रियों का प्रमुख है । मन:षष्ठानिन्द्रियाणी  प्रकृति-स्थानि कर्षति ([[HI/BG 15.7|भ.गी. १५.७]]) | हम एक संघर्ष के दौर से गुजर रहे हैं अस्तित्व के लिए इस मन  और इन्द्रियों के साथ, झूठी धारणा के तहत कि यह शरीर ही हम हैं । तो अगर हम हमारे मन पर ध्यान केंद्रित करते हैं इंद्रियों को नियंत्रित करके, तो हम धीरे - धीरे समझ सकते हैं । ध्यानावस्थित-तद-गतेन मनसा पश्यन्ति योगिन: ([[Vanisource:SB 12.13.1|श्रीमद भागवतम १२.१३.१]]) | योगि, वे ध्यान करते हैं परम व्यक्ति पर, विष्णु पर । और उस प्रक्रिया से उन्हे स्वयं का बोध होता है । आत्मबोध मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य है । तो आत्मबोध की शुरुआत है यह समझना कि "मैं यह शरीर नहीं हूं, मैं आत्मा हूँ ।"  अहम् ब्रह्मास्मि ।
 
तो इन बातों को बहुत अच्छी तरह से भगवद गीता में समझाया जाता है । अगर हम केवल भगवद गीता ध्यान से पढ़ें, उचित मार्गदर्शन के तहत, तब सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा, बिना किसी कठिनाई कि, " मैं यह शरीर नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ ।" मेरे काम जीवन की इस शारीरिक अवधारणा से अलग है । मैं कभी खुश नहीं रहूँगा स्वयं को यह शरीर मानकर । यह ज्ञान का एक गलत आधार है ।" इस तरह से हम प्रगति करें तो हम समझेंगे अहम् ब्रह्मास्मि: "मैं आत्मा हूँ ।" फिर कहाँ से मैं आया हूँ? सब कुछ भगवद गीता में वर्णित है, कि आत्मा, श्री कृष्ण कहते हैं कि, भगवान कहते हैं, ममैवांशो जीव-भूत: ([[HI/BG 15.7|भ.गी. १५.७]]) "ये जीव, वे मेरे अभिन्न अंग हैं, टुकड़े, या छोटे स्पार्क्स हैं ।" जैसे बड़ी आग और छोटी सी आग, दोनों आग हैं, लेकिन बड़ी आग और छोटी सी आग ... जहॉ तक आग की गुणवत्ता का संबंध है, भगवान और हम एक हैं । तो हम समझ सकते हैं, हम अपने आप का अध्ययन करके भगवान का अध्ययन कर सकते हैं । वह भी एक और ध्यान है । लेकिन यह बिल्कुल सही होगा जब हम समझते हैं "हालांकि गुणात्मक मैं भगवान का एक नमूना हूँ या एक ही गुणवत्ता का, लेकिन फिर भी, वे महान हैं, मैं तुच्छ हूँ ।" यह एकदम सही समझ है ।  
 
अणु, विभु, ब्रह्म, पर- ब्रह्म, ईश्वर, परमेश्वर - यह सही समझ है । क्योंकि मैं गुणात्मक रीत से एक हूँ, इसका मतलब यह नहीं है कि मैं परम हूँ । वेदों में कहा जाता है, नित्यो नित्यानाम चेतनश चेतनानाम (कठ उपनिषद २.२.१३) | हम नित्य हैं, अनन्त हैं, भगवान भी शाश्वत है । हम जीव हैं, भगवान भी एक जीव हैं । लेकिन वे जीवों में मुख्य हैं, वह मुख्य अनन्त हैं । हम भी अनन्त हैं, लेकिन हम प्रमुख नहीं हैं । क्यों? एको यो बहुनाम विदधाति कामान । जैसे हमे एक नेता की आवश्यकता होती है, उसी तरह वे सर्वोच्च नेता हैं । वे पालक है । वे विधि हैं । वे हर किसी की जरूरतों को प्रदान कर रहे हैं । हम देख सकते हैं कि अफ्रीका में हाथी हैं । कौन उन्हें भोजन उपलब्ध करा रहा है? तुम्हारे कमरे में छेद के भीतर लाखों चींटियॉ हैं । कौन उन्हें खिला रहा है? एको यो बहुनाम विदधाति कामान । तो इस तरह से अगर हम अपना बोध करते हैं, यही आत्म-बोध है ।  
<!-- END TRANSLATED TEXT -->
<!-- END TRANSLATED TEXT -->

Latest revision as of 18:20, 17 September 2020



Arrival Address -- Mauritius, October 1, 1975

तत्वज्ञान एक मानसिक अटकल नहीं है । तत्वज्ञान मुखय ज्ञान है जो अन्य सभी विज्ञानों का स्रोत है। यही तत्वज्ञान है । तो हमारा कृष्ण भावनामृत आंदोलन लोगों को शिक्षित करने की कोशिश कर रहा है इस विज्ञान के विज्ञान पर कि पहले हम समझें "तुम क्या हो? तुम यह शरीर हो या इस शरीर से अलग हो? "यह आवश्यक है । और अगर तुम अपना बड़े मकान का निर्माण करते जाते हो, एक दोषपूर्ण नींव पर, तो यह नहीं रहेगी । खतरा होगा । तो आधुनिक सभ्यता यह दोषपूर्ण विचार पर आधारित है कि "मैं यह शरीर हूँ ।" "मैं भारतीय हूँ," "मैं अमेरिकी हूँ," "मैं हिन्दू हूँ," "मैं मुसलमान हूँ," "मैं ईसाई हूं". ये सभी जीवन के शारीरिक अवधारणा पर अाधारित हैं । " क्योंकि मुझे एक ईसाई पिता और मां से यह शरीर मिला है इसलिए मैं एक ईसाई हूं ।" लेकिन मैं यह शरीर नहीं हूं । "क्योंकि मुझे एक हिंदू पिता और मां से यह शरीर मिला है, इसलिए मैं हिन्दू हूँ ।" लेकिन मैं यह शरीर नहीं हूं ।

तो आध्यात्मिक समझ के लिए, इस बुनियादी सिद्धांत को समझना है, कि "मैं यह शरीर नहीं हूं, मैं आत्मा हूँ," अहम् ब्रह्मास्मि । यह वैदिक शिक्षा है: " समझने की कोशिश करो कि तुम आत्मा हो, तुम यह शरीर नहीं हो ।" योग प्रणाली का अभ्यास सिर्फ इस बात को समझने के लिए है । योग इन्द्रिय संयम: इंद्रियों को नियंत्रित करके, विशेष रूप से मन , ... मन मालिक है या इंद्रियों का प्रमुख है । मन:षष्ठानिन्द्रियाणी प्रकृति-स्थानि कर्षति (भ.गी. १५.७) | हम एक संघर्ष के दौर से गुजर रहे हैं अस्तित्व के लिए इस मन और इन्द्रियों के साथ, झूठी धारणा के तहत कि यह शरीर ही हम हैं । तो अगर हम हमारे मन पर ध्यान केंद्रित करते हैं इंद्रियों को नियंत्रित करके, तो हम धीरे - धीरे समझ सकते हैं । ध्यानावस्थित-तद-गतेन मनसा पश्यन्ति योगिन: (श्रीमद भागवतम १२.१३.१) | योगि, वे ध्यान करते हैं परम व्यक्ति पर, विष्णु पर । और उस प्रक्रिया से उन्हे स्वयं का बोध होता है । आत्मबोध मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य है । तो आत्मबोध की शुरुआत है यह समझना कि "मैं यह शरीर नहीं हूं, मैं आत्मा हूँ ।" अहम् ब्रह्मास्मि ।

तो इन बातों को बहुत अच्छी तरह से भगवद गीता में समझाया जाता है । अगर हम केवल भगवद गीता ध्यान से पढ़ें, उचित मार्गदर्शन के तहत, तब सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा, बिना किसी कठिनाई कि, " मैं यह शरीर नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ ।" मेरे काम जीवन की इस शारीरिक अवधारणा से अलग है । मैं कभी खुश नहीं रहूँगा स्वयं को यह शरीर मानकर । यह ज्ञान का एक गलत आधार है ।" इस तरह से हम प्रगति करें तो हम समझेंगे अहम् ब्रह्मास्मि: "मैं आत्मा हूँ ।" फिर कहाँ से मैं आया हूँ? सब कुछ भगवद गीता में वर्णित है, कि आत्मा, श्री कृष्ण कहते हैं कि, भगवान कहते हैं, ममैवांशो जीव-भूत: (भ.गी. १५.७) "ये जीव, वे मेरे अभिन्न अंग हैं, टुकड़े, या छोटे स्पार्क्स हैं ।" जैसे बड़ी आग और छोटी सी आग, दोनों आग हैं, लेकिन बड़ी आग और छोटी सी आग ... जहॉ तक आग की गुणवत्ता का संबंध है, भगवान और हम एक हैं । तो हम समझ सकते हैं, हम अपने आप का अध्ययन करके भगवान का अध्ययन कर सकते हैं । वह भी एक और ध्यान है । लेकिन यह बिल्कुल सही होगा जब हम समझते हैं "हालांकि गुणात्मक मैं भगवान का एक नमूना हूँ या एक ही गुणवत्ता का, लेकिन फिर भी, वे महान हैं, मैं तुच्छ हूँ ।" यह एकदम सही समझ है ।

अणु, विभु, ब्रह्म, पर- ब्रह्म, ईश्वर, परमेश्वर - यह सही समझ है । क्योंकि मैं गुणात्मक रीत से एक हूँ, इसका मतलब यह नहीं है कि मैं परम हूँ । वेदों में कहा जाता है, नित्यो नित्यानाम चेतनश चेतनानाम (कठ उपनिषद २.२.१३) | हम नित्य हैं, अनन्त हैं, भगवान भी शाश्वत है । हम जीव हैं, भगवान भी एक जीव हैं । लेकिन वे जीवों में मुख्य हैं, वह मुख्य अनन्त हैं । हम भी अनन्त हैं, लेकिन हम प्रमुख नहीं हैं । क्यों? एको यो बहुनाम विदधाति कामान । जैसे हमे एक नेता की आवश्यकता होती है, उसी तरह वे सर्वोच्च नेता हैं । वे पालक है । वे विधि हैं । वे हर किसी की जरूरतों को प्रदान कर रहे हैं । हम देख सकते हैं कि अफ्रीका में हाथी हैं । कौन उन्हें भोजन उपलब्ध करा रहा है? तुम्हारे कमरे में छेद के भीतर लाखों चींटियॉ हैं । कौन उन्हें खिला रहा है? एको यो बहुनाम विदधाति कामान । तो इस तरह से अगर हम अपना बोध करते हैं, यही आत्म-बोध है ।