HI/BG 13.21: Difference between revisions

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==== श्लोक 21 ====
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:कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
 
:पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥२१॥
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Latest revision as of 17:03, 10 August 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 21

कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥२१॥

शब्दार्थ

कार्य—कार्य; कारण—तथा कारण का; कर्तृत्वे—सृजन के मामले में; हेतु:—कारण; प्रकृति:—प्रकृति; उच्यते—कही जाती है; पुरुष:—जीवात्मा; सुख—सुख; दु:खानाम्—तथा दु:ख का; भोक्तृत्वे—भोग में; हेतु:—कारण; उच्यते—कहा जाता है।

अनुवाद

प्रकृति समस्त भौतिक कारणों तथा कार्यों (परिणामों) की हेतु कही जाती है, और जीव (पुरुष) इस संसार में विविध सुख-दुख के भोग का कारण कहा जाता है |

तात्पर्य

जीवों में शरीर तथा इन्द्रियों की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ प्रकृति के कारण हैं | कुल मिलाकर ८४ लाख भिन्न-भिन्न योनियाँ हैं और ये सब प्रकृतिजन्य हैं | जीव के विभिन्न इन्द्रिय-सुखों से ये योनियाँ मिलती हैं जो इस प्रकार इस शरीर या उस शरीर में रहने की इच्छा करता है | जब उसे विभिन्न शरीर प्राप्त होते हैं, तो वह विभिन्न प्रकार के सुख तथा दुख भोगता है | उसके भौतिक दुख-सुख उसके शरीर के कारण होते हैं, स्वयं उसके कारण नहीं | उसकी मूल अवस्था में भोग में कोई सन्देह नहीं रहता, अतएव वही उसकी वास्तविक स्थिति है | वह प्रकृति पर प्रभुत्व जताने के लिए भौतिक जगत् में आता है | वैकुण्ठ-लोक में ऐसी कोई वस्तु नहीं होती | वैकुण्ठ-लोक शुद्ध है, किन्तु भौतिक जगत् में प्रत्येक व्यक्ति विभिन्न प्रकार के शरीर-सुखों को प्राप्त करने के लिए कठिन संघर्ष में रत रहता है | यह कहने से बात और स्पष्ट हो जाएगी कि यह शरीर इन्द्रियों का कार्य है | इन्द्रियाँ इच्छाओं की पूर्ति का साधन हैं | यह शरीर तथा हेतु रूप इन्द्रियाँ प्रकृति द्वारा प्रदत्त हैं, और जैसा कि अगले श्लोक से स्पष्ट हो जाएगा, जीव को अपनी पूर्व आकांक्षा तथा कर्म के अनुसार परिस्थितियों के वश वरदान या शाप मिलता है | जीव की इच्छाओं तथा कर्मों के अनुसार प्रकृति उसे विभिन्न स्थानों में पहुँचाती है | जीव स्वयं ऐसे स्थानों में जाने तथा मिलने वाले सुख-दुख का कारण होता है | एक प्रकार का शरीर प्राप्त हो जाने पर वह प्रकृति के वश में हो जाता है, क्योंकि शरीर, पदार्थ होने के कारण, प्रकृति के नियमानुसार कार्य करता है | उस समय शरीर में ऐसी शक्ति नहीं कि वह उस नियम को बदल सके | मान लीजिये कि जीव को कुत्ते का शरीर प्राप्त हो गया | ज्योंही वह कुत्ते के शरीर में स्थापित किया जाता है,उसे कुत्ते की भाँति आचरण करना होता है | वह अन्यथा आचरण नहीं कर एकता | यदि जीव को सूकर का शरीर प्राप्त होता है, तो वह मल खाने तथा सूकर की भाँति रहने के लिए बाध्य है | इसी प्रकार यदि जीव को देवता का शरीर प्राप्त हो जाता है, तो उसे अपने शरीर के अनुसार कार्य करना होता है | यही प्रकृति का नियम है | वेदों में (मुण्डक उपनिषद् ३.१.१) इसकी व्याख्या इस प्रकार की गई है – द्वा सुर्पणा सयुजा सखायः| परमेश्र्वर जीव पर इतना कृपालु है कि वह सदा जीव के साथ रहता है और सभी परिस्थितियों में परमात्मा रूप में विद्यमान रहता है।