HI/Prabhupada 0408 -उग्र कर्म का मतलब है क्रूर गतिविधियॉ: Difference between revisions

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जैसे हम उद्योगों की बात कर रहे थे । उद्योग, वे उग्र-कर्म के रूप में भगवद गीता में वर्णित हैं । उग्र-कर्म का मतलब है क्रूर गतिविधियॉ । आजीविका के लिए, हमें अपने रखरखाव की आवश्यकता है । अाहार निद्रा भय मै ... ये इस शरीर की प्राथमिक आवश्यकताएं हैं, भौतिक शरीर । उस के लिए, कृष्ण नें कहा है, अन्नाद भवन्ति भूतानि ([[Vanisource:BG 3.14|भ गी ३।१४]]) अन्न- का अर्थ है खाद्यान्न - हमें आवश्यकता होती है । अन्नाद भवन्ति भूतानि । वह खाद्यान्न हम बहुत आसानी से उत्पादन कर सकते हैं, कृषि से । एक और जगह में, श्री कृष्ण कहते हैं, कृषि गो रक्ष्य वैश्य कर्म स्वभाव-जम ([[Vanisource:BG 18.44|भ गी १८।४४]]) हम अपने रखरखाव के लिए पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन कर सकते हैं, और पूरी दुनिया के लिए पर्याप्त भूमि है । मैं दुनिया भर में कम से कम चौदह बार यात्रा कर चुका हूँ । पिछले आठ वर्षों के दौरान, मैं पूरी दुनिया में यात्रा कर चुका हूँ, अन्दर के भागों में भी । मैंने देखा है पर्याप्त भूमि है, विशेष रूप से अफ्रीका में, अमेरिका में, ऑस्ट्रेलिया में, और हम इतना ज्यादा खाद्यान्न उत्पादन कर सकते हैं, कि इस वर्तमान जनसंख्या का दस गुना आसानी से रखा जा सकता है । दस गुणा । भोजन की कोई कमी नहीं है । लेकिन कठिनाई यह है कि हमनें सीमांकन किया है, "यह मेरा देश है ।" कोई कहता है "यह अमेरिका, मेरा देश है" "ऑस्ट्रेलिया, मेरी भूमि" "अफ्रीका, मेरी भूमि," "भारत, मेरा देश ।" यह "मेरी" और "मैं" जन्मस्य मोहो अयम अहम ममेति ([[Vanisource:SB 5.5.8|श्री भ ५।५।८]]) यह भ्रम कहा जाता है, कि "मैं" और "मेरा ।" "मैं यह शरीर हूँ, और यह मेरी संपत्ति है ।" यह भ्रम कहा जाता है । अौर इस भ्रम, अगर हम इस मंच पर खड़े रहते हैं, तो हम जानवरों से बेहतर नहीं हैं ।
जैसे हम उद्योगों की बात कर रहे थे । उद्योग, वे उग्र-कर्म के रूप में भगवद गीता में वर्णित हैं । उग्र-कर्म का मतलब है क्रूर गतिविधियॉ । आजीविका के लिए, हमें अपने रखरखाव की आवश्यकता है । अाहार निद्रा भय मै... ये इस शरीर, भौतिक शरीर, की प्राथमिक आवश्यकताएं हैं । उस के लिए, कृष्ण नें कहा है, अन्नाद भवन्ति भूतानि ([[HI/BG 3.14|भ.गी. ३.१४]]) | अन्न- का अर्थ है खाद्यान्न - हमें आवश्यकता होती है । अन्नाद भवन्ति भूतानि । वह खाद्यान्न हम बहुत आसानी से उत्पादन कर सकते हैं, कृषि से । एक और जगह में, श्री कृष्ण कहते हैं, कृषि गो रक्ष्य वैश्य कर्म स्वभाव-जम ([[HI/BG 18.44|भ.गी. १८.४४]]) |


:यस्यात्म बुद्धि: कुनपेत्र-धातुके
हम अपने रखरखाव के लिए पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन कर सकते हैं, और पूरी दुनिया के लिए पर्याप्त भूमि है । मैं दुनिया भर में कम से कम चौदह बार यात्रा कर चुका हूँ । पिछले आठ वर्षों के दौरान, मैं पूरी दुनिया में यात्रा कर चुका हूँ, अन्दर के भागों में भी । मैंने देखा है पर्याप्त भूमि है, विशेष रूप से अफ्रीका में, अमेरिका में, ऑस्ट्रेलिया में, और हम इतना ज्यादा खाद्यान्न उत्पादन कर सकते हैं, कि इस वर्तमान जनसंख्या का दस गुना आसानी से पालन किया जा सकता है । दस गुना । भोजन की कोई कमी नहीं है । लेकिन कठिनाई यह है कि हमनें सीमांकन किया है, "यह मेरा देश है ।" कोई कहता है  "यह अमेरिका, मेरा देश है" "ऑस्ट्रेलिया, मेरी भूमि," "अफ्रीका, मेरी भूमि," "भारत, मेरा देश ।" यह "मेर" और "मैं |" जन्मस्य मोहो अयम अहम ममेति ([[Vanisource:SB 5.5.8|श्रीमद भागवतम ५.५.८]]) | यह भ्रम कहा जाता है, कि "मैं" और "मेरा ।" "मैं यह शरीर हूँ, और यह मेरी संपत्ति है ।" यह भ्रम कहा जाता है । अौर इस भ्रम, अगर हम इस मंच पर खड़े रहते हैं, तो हम जानवरों से बेहतर नहीं हैं ।
:स्व-धि: कलत्रादिशु भौम इज्य धि:
:यत-तीर्थ बुद्धि: सलिले न कर्हिचिज्ज
:नेशु अभिज्ञेशु स एव ग खर:
:([[Vanisource:SB 10.84.13|श्री भ १०।८४।१३]])


गो का मतलब है गाय, और खर: मतलब है गधा । जो जीवन की शारीरिक अवधारणा में हैं, अहम ममेति ([[Vanisource:SB 5.5.8|श्री भ ५।५।८]]) वे इन गधों और गाय से बेहतर नहीं हैं, मतलब है पशु । यह चल रहा है । मैं अापका बहुत समय नहीं लूँगा, लेकिन मैं आपको समझाने की कोशिश करूँगा, इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन का उद्देश्य क्या है । इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन का उद्देश्य है पशु बनने से मानव समाज को बचाना, गाय और गधे । यही आंदोलन है । उन्होंने अपनी सभ्यता की स्थापना की है ... जैसे कि यह भगवद गीता में कहा गया है, पशु या अासुरिक सभ्यता , अासुरिक सभ्यता, शुरुआत प्रवृत्तिम च निवृत्तिम च जना न विदुर अासुर: अासुरिक, राक्षसी, सभ्यता, वे जानते नहीं हैं कि हमें किस तरह से मार्गदर्शन लेना है अपने लिए । पूर्णता को प्राप्त करने के लिए जीवन में, प्रवृत्ति अौर निवृत्ति, और हम नहीं लेंगे - अनुकूल और प्रतिकूल मानव जीवन ... हर कोई जानता है, "यह मेरे लिए अनुकूल है, और यह मेरे लिए प्रतिकूल है ।" तो अासुर: जना, जो राक्षसी व्यक्ति हैं, वे यह नहीं जानते, कि "क्या मेरे लिए अनुकूल है और क्या मेरे लिए अनुकूल नहीं है ।" प्रवृत्तिम च निवृत्तिम च जना न विदुर अासुर:, न शोचम नापि चाचारह: "कोई सफाई नहीं, अच्छा व्यवहार नहीं ।" न सत्यम तेशु विद्या ...: "और कोई सच्चाई उनके जीवन में नहीं है ।" यह अासुरिक है । हमनें कई बार सुना है, "असुर," "अासुरिक सभ्यता," "शैतानी सभ्यता ।" यह शुरुआत है ।
:यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके
:स्व-धि: कलत्रादिशु भौम इज्य धि:
:यत-तीर्थ बुद्धि: सलिले न कर्हिचिज्
:जनेशु अभिज्ञेशु स एव गो खर:  
:([[Vanisource:SB 10.84.13|श्रीमद भागवतम १०.८४.१३]])  


:प्रवृत्तिम च निवृत्तिम च
गो का मतलब है गाय, और खर: मतलब है  गधा । जो जीवन की शारीरिक अवधारणा में हैं, अहम ममेति ([[Vanisource:SB 5.5.8|श्रीमद भागवतम ५.५.८]]), वे इन गधों और गाय से बेहतर नहीं हैं, मतलब है पशु ।  यह चल रहा है । मैं अापका बहुत समय नहीं लूँगा, लेकिन मैं आपको समझाने की कोशिश करूँगा, इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन का उद्देश्य क्या है । इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन का उद्देश्य है पशु, गाय और गधे, बनने से मानव समाज को बचाना । यही आंदोलन है ।
 
उन्होंने अपनी सभ्यता की स्थापना की है... जैसे कि यह भगवद गीता में कहा गया है, पशु या अासुरिक सभ्यता, अासुरिक सभ्यता, शुरुआत है - प्रवृत्तिम च निवृत्तिम च जना न विदुर अासुर: | अासुरिक, राक्षसी, सभ्यता, वे जानते नहीं हैं कि हमें किस तरह से मार्गदर्शित करना है अपने आप को पूर्णता को प्राप्त करने के लिए जीवन में, प्रवृत्ति, अौर निवृत्ति, और जो चीज़ हम नहीं करेंगे - अनुकूल और प्रतिकूल | मानव जीवन... हर कोई जानता है, "यह मेरे लिए अनुकूल है, और यह मेरे लिए प्रतिकूल है ।" तो अासुर: जना, जो राक्षसी व्यक्ति हैं, वे यह नहीं जानते, कि "क्या मेरे लिए अनुकूल है और क्या मेरे लिए अनुकूल नहीं है ।" प्रवृत्तिम च निवृत्तिम च जना न विदुर अासुर:, न शौचम नापि चाचार: "कोई सफाई नहीं, अच्छा व्यवहार नहीं ।" न सत्यम तेशु विद्या ...: "और कोई सच्चाई उनके जीवन में नहीं है ।" यह अासुरिक है । हमनें कई बार सुना है, "असुर," "अासुरिक सभ्यता," "शैतानी सभ्यता ।" यह शुरुआत है ।
 
:प्रवृत्तिम च निवृत्तिम च  
:जना न विदुर अासुर:
:जना न विदुर अासुर:
:न शोचम नापि चाचारह:
:न शोचम नापि चाचारह:  
:न सत्यम तेशु विद्या
:न सत्यम तेशु विद्या  
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सत्यम, कोई सच्चाई नहीं है । और प्रथम दर्जे का जीवन का अर्थ है ब्राह्मण जीवन । सत्यम शौचम तपो । शुरुआत सत्यम है । अासुरिक जीवन मतलब कोई सत्य नहीं, कोई सच्चाई नहीं, और मानव समाज में प्रथम श्रेणी का जीवन है, ब्राह्मण, सत्यम शौचम तपो, और तितिक्ष अार्जव: अास्तिक्यम ज्ञानम विज्ञानम । यह प्रथम श्रेणी का जीवन है । तो हमारा कृष्ण भावनामृत आंदोलन, आदर्श पुरुषों का एक वर्ग बनाने के लिए है, प्रथम श्रेणी के पुरुष सत्यम शौचम तपो शम: दम: तितिक्ष: के साथ । यही धार्मिक सभ्यता है । और यह धार्मिक सभ्यता भारत द्वारा पूरी दुनिया को दिया जा सकता है । यही भारत का विशेष विशेषाधिकार है । क्योंकि भारत के अलावा अन्य देशों में, वे लगभग अासुरि-जन और उग्र-कर्म हैं । उद्योग और अन्य उग्र-कर्म पश्चिमी देशों से आया है । लेकिन इस तरह से लोग कभी खुश नहीं होंगे । यह बहुत विस्तार से बताया गया है भगवद गीता के सोलहवें अध्याय में । दुश्पूर अाकांक्षा । उनकी इच्छा इस भौतिक प्रगति से कभी संतुष्ट  नहीं होगी । वे नहीं जानते । वे भूल रहे हैं ।


सत्यम, कोई सच्चाई नहीं है । और आला दर्जे का जीवन का अर्थ है ब्राह्मण जीवन । सत्यम शोचम तपो । शुरुआत सत्यम है । अासुरिक जीवन मतलब कोई सत्य नहीं, कोई सच्चाई नहीं, और मानव समाज में प्रथम श्रेणी का जीवन है ब्राह्मण, सत्यम शौचम तपो, और तितिक्ष अार्जव: अास्तिक्यम ज्ञानम विज्ञानम । यह प्रथम श्रेणी का जीवन है । तो हमारा कृष्ण भावनामृत आंदोलन, आदर्श पुरुषों का एक वर्ग बनाने के लिए है, प्रथम श्रेणी के पुरुष सत्यम शौचम तपो शम: दम: तितिक्ष: titikṣaḥ के साथ । यही धार्मिक सभ्यता है । और यह धार्मिक सभ्यता भारत द्वारा पूरी दुनिया को दिया जा सकता है । यही भारत का विशेष विशेषाधिकार है । क्योंकि भारत के अलावा अन्य देशों में, वे लगभग अासुरि-जन और उग्र-कर्म हैं । उद्योग और अन्य उग्र-कर्म पश्चिमी देशों से आया है । लेकिन इस तरह से लोग कभी खुश नहीं होंगे । यह बहुत विस्तार से बताया गया है भगवद गीता के सोलहवें अध्याय में । दुश्पूर अाकांक्षा । उनकी इच्छा इस भौतिक प्रगति से कभी संतुष्ट नहीं होगी । वे नहीं जानते । वे भूल रहे हैं । इसलिए हमने इस बंबई का चयन किया । बंबई शहर सबसे अच्छा शहर है, भारत में सबसे उन्नत शहर, भारत में सबसे अच्छा शहर है । और लोग भी बहुत अच्छे हैं । वे धार्मिक इच्छुक हैं । वे भव्य हैं । वे बहुत अच्छी तरह से बेहतर चीजों को ले सकते हैं । इसलिए मैं इस केंद्र को शुरू करना चाहता हूँ, बॉम्बे, इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन के प्रसार के लिए । हालांकि मेरे प्रयास में कई बाधाऍ अाई हैं, फिर भी, यह कृष्ण का काम है । यह सफल होगा ही । तो आज ... फाउंडेशन और आधारशिला की स्थापना दो साल पहले की गई थी, लेकिन अासुरिक जन से बहुत, बहुत बाधाऍ उत्पन्न हुई । अब, किसी न किसी तरह से, हमें ऐसी बाधाओं से थोड़ी राहत मिली है । इसलिए हम इस शुभ दिन पर इस आधारशिला को रख रहे हैं, और मैं बहुत खुश हूँ कि आप हमार साथ शामिल हैं ।
इसलिए हमने इस बंबई का चयन किया । बंबई शहर सबसे अच्छा शहर है, भारत में सबसे उन्नत शहर, भारत में सबसे अच्छा शहर है । और लोग भी बहुत अच्छे हैं । वे धार्मिक हैं । वे वैभवशाली हैं । वे बहुत अच्छी तरह से बेहतर चीजों को ले सकते हैं । इसलिए मैं इस केंद्र को शुरू करना चाहता हूँ, बॉम्बे, इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन के प्रसार के लिए । हालांकि मेरे प्रयास में कई बाधाऍ अाई हैं, फिर भी, आख़िरकार यह कृष्ण का काम है । यह सफल होगा ही । तो आज ... आधारशिला की स्थापना दो साल पहले की गई थी, लेकिन अासुरिक जन से बहुत, बहुत बाधाऍ उत्पन्न हुई । अब, किसी न किसी तरह से, हमें ऐसी बाधाओं से थोड़ी राहत मिली है । इसलिए हम इस शुभ दिन पर इस आधारशिला को रख रहे हैं, और मैं बहुत खुश हूँ कि आप हमारे साथ शामिल हैं ।  
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020



Cornerstone Laying -- Bombay, January 23, 1975

जैसे हम उद्योगों की बात कर रहे थे । उद्योग, वे उग्र-कर्म के रूप में भगवद गीता में वर्णित हैं । उग्र-कर्म का मतलब है क्रूर गतिविधियॉ । आजीविका के लिए, हमें अपने रखरखाव की आवश्यकता है । अाहार निद्रा भय मै... ये इस शरीर, भौतिक शरीर, की प्राथमिक आवश्यकताएं हैं । उस के लिए, कृष्ण नें कहा है, अन्नाद भवन्ति भूतानि (भ.गी. ३.१४) | अन्न- का अर्थ है खाद्यान्न - हमें आवश्यकता होती है । अन्नाद भवन्ति भूतानि । वह खाद्यान्न हम बहुत आसानी से उत्पादन कर सकते हैं, कृषि से । एक और जगह में, श्री कृष्ण कहते हैं, कृषि गो रक्ष्य वैश्य कर्म स्वभाव-जम (भ.गी. १८.४४) |

हम अपने रखरखाव के लिए पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन कर सकते हैं, और पूरी दुनिया के लिए पर्याप्त भूमि है । मैं दुनिया भर में कम से कम चौदह बार यात्रा कर चुका हूँ । पिछले आठ वर्षों के दौरान, मैं पूरी दुनिया में यात्रा कर चुका हूँ, अन्दर के भागों में भी । मैंने देखा है पर्याप्त भूमि है, विशेष रूप से अफ्रीका में, अमेरिका में, ऑस्ट्रेलिया में, और हम इतना ज्यादा खाद्यान्न उत्पादन कर सकते हैं, कि इस वर्तमान जनसंख्या का दस गुना आसानी से पालन किया जा सकता है । दस गुना । भोजन की कोई कमी नहीं है । लेकिन कठिनाई यह है कि हमनें सीमांकन किया है, "यह मेरा देश है ।" कोई कहता है "यह अमेरिका, मेरा देश है" "ऑस्ट्रेलिया, मेरी भूमि," "अफ्रीका, मेरी भूमि," "भारत, मेरा देश ।" यह "मेर" और "मैं |" जन्मस्य मोहो अयम अहम ममेति (श्रीमद भागवतम ५.५.८) | यह भ्रम कहा जाता है, कि "मैं" और "मेरा ।" "मैं यह शरीर हूँ, और यह मेरी संपत्ति है ।" यह भ्रम कहा जाता है । अौर इस भ्रम, अगर हम इस मंच पर खड़े रहते हैं, तो हम जानवरों से बेहतर नहीं हैं ।

यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके
स्व-धि: कलत्रादिशु भौम इज्य धि:
यत-तीर्थ बुद्धि: सलिले न कर्हिचिज्
जनेशु अभिज्ञेशु स एव गो खर:
(श्रीमद भागवतम १०.८४.१३)

गो का मतलब है गाय, और खर: मतलब है गधा । जो जीवन की शारीरिक अवधारणा में हैं, अहम ममेति (श्रीमद भागवतम ५.५.८), वे इन गधों और गाय से बेहतर नहीं हैं, मतलब है पशु । यह चल रहा है । मैं अापका बहुत समय नहीं लूँगा, लेकिन मैं आपको समझाने की कोशिश करूँगा, इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन का उद्देश्य क्या है । इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन का उद्देश्य है पशु, गाय और गधे, बनने से मानव समाज को बचाना । यही आंदोलन है ।

उन्होंने अपनी सभ्यता की स्थापना की है... जैसे कि यह भगवद गीता में कहा गया है, पशु या अासुरिक सभ्यता, अासुरिक सभ्यता, शुरुआत है - प्रवृत्तिम च निवृत्तिम च जना न विदुर अासुर: | अासुरिक, राक्षसी, सभ्यता, वे जानते नहीं हैं कि हमें किस तरह से मार्गदर्शित करना है अपने आप को पूर्णता को प्राप्त करने के लिए जीवन में, प्रवृत्ति, अौर निवृत्ति, और जो चीज़ हम नहीं करेंगे - अनुकूल और प्रतिकूल | मानव जीवन... हर कोई जानता है, "यह मेरे लिए अनुकूल है, और यह मेरे लिए प्रतिकूल है ।" तो अासुर: जना, जो राक्षसी व्यक्ति हैं, वे यह नहीं जानते, कि "क्या मेरे लिए अनुकूल है और क्या मेरे लिए अनुकूल नहीं है ।" प्रवृत्तिम च निवृत्तिम च जना न विदुर अासुर:, न शौचम नापि चाचार: "कोई सफाई नहीं, अच्छा व्यवहार नहीं ।" न सत्यम तेशु विद्या ...: "और कोई सच्चाई उनके जीवन में नहीं है ।" यह अासुरिक है । हमनें कई बार सुना है, "असुर," "अासुरिक सभ्यता," "शैतानी सभ्यता ।" यह शुरुआत है ।

प्रवृत्तिम च निवृत्तिम च
जना न विदुर अासुर:
न शोचम नापि चाचारह:
न सत्यम तेशु विद्या
(भ.गी. १६.७)

सत्यम, कोई सच्चाई नहीं है । और प्रथम दर्जे का जीवन का अर्थ है ब्राह्मण जीवन । सत्यम शौचम तपो । शुरुआत सत्यम है । अासुरिक जीवन मतलब कोई सत्य नहीं, कोई सच्चाई नहीं, और मानव समाज में प्रथम श्रेणी का जीवन है, ब्राह्मण, सत्यम शौचम तपो, और तितिक्ष अार्जव: अास्तिक्यम ज्ञानम विज्ञानम । यह प्रथम श्रेणी का जीवन है । तो हमारा कृष्ण भावनामृत आंदोलन, आदर्श पुरुषों का एक वर्ग बनाने के लिए है, प्रथम श्रेणी के पुरुष सत्यम शौचम तपो शम: दम: तितिक्ष: के साथ । यही धार्मिक सभ्यता है । और यह धार्मिक सभ्यता भारत द्वारा पूरी दुनिया को दिया जा सकता है । यही भारत का विशेष विशेषाधिकार है । क्योंकि भारत के अलावा अन्य देशों में, वे लगभग अासुरि-जन और उग्र-कर्म हैं । उद्योग और अन्य उग्र-कर्म पश्चिमी देशों से आया है । लेकिन इस तरह से लोग कभी खुश नहीं होंगे । यह बहुत विस्तार से बताया गया है भगवद गीता के सोलहवें अध्याय में । दुश्पूर अाकांक्षा । उनकी इच्छा इस भौतिक प्रगति से कभी संतुष्ट नहीं होगी । वे नहीं जानते । वे भूल रहे हैं ।

इसलिए हमने इस बंबई का चयन किया । बंबई शहर सबसे अच्छा शहर है, भारत में सबसे उन्नत शहर, भारत में सबसे अच्छा शहर है । और लोग भी बहुत अच्छे हैं । वे धार्मिक हैं । वे वैभवशाली हैं । वे बहुत अच्छी तरह से बेहतर चीजों को ले सकते हैं । इसलिए मैं इस केंद्र को शुरू करना चाहता हूँ, बॉम्बे, इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन के प्रसार के लिए । हालांकि मेरे प्रयास में कई बाधाऍ अाई हैं, फिर भी, आख़िरकार यह कृष्ण का काम है । यह सफल होगा ही । तो आज ... आधारशिला की स्थापना दो साल पहले की गई थी, लेकिन अासुरिक जन से बहुत, बहुत बाधाऍ उत्पन्न हुई । अब, किसी न किसी तरह से, हमें ऐसी बाधाओं से थोड़ी राहत मिली है । इसलिए हम इस शुभ दिन पर इस आधारशिला को रख रहे हैं, और मैं बहुत खुश हूँ कि आप हमारे साथ शामिल हैं ।