HI/Prabhupada 0538 - कानून का मतलब है राज्य द्वारा दिए गए वचन । तुम घर पर कानून नहीं बना सकते: Difference between revisions

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कृष्ण अवतरित होते हैं हमें सबक देने के लिए यदा यदा हि धर्ममस्य ग्लानिर भवति भारत ([[Vanisource:BG 4.7|भ गी ४।७]]) कृष्ण कहते हैं, " मेरे प्यारे अर्जुन, मैं आता हूँ, जब धार्मिक जीवन की प्रक्रिया में विसंगतियॉ होती हैं । " धर्ममस्य ग्लानिर भवति । और धर्म क्या है? धर्म की सरल परिभाषा है, धर्मन तू साक्षाद भगवत-प्रणीतम ([[Vanisource:SB 6.3.19|श्री भ ६।३।१९]]) । यही धर्म है । धर्मन तू साक्षाद भगवत-प्रणीतम । जैसे कानून का क्या मतलब है? कानून का मतलब है राज्य द्वारा दिए गए वचन । तुम घर पर कानून नहीं बना सकते । यह संभव नहीं है । जो सरकार तुम्हे देती है, कि "तुम्हे इस तरह से काम करना है ।" यह कानून है । इसी तरह, धर्म का मतलब है ईश्वर द्वारा दिए गए निर्देश । यही धर्म है । साधारण परिभाषा । तुम धर्म बनाते हो । मैंने इस धर्म को बनाया है, एक और आदमी नें किसी दूसरे धर्म को बनाया है, ये धर्म नहीं हैं । इसलिए,जहां भगवद गीता समाप्त होती है, कि सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम ([[Vanisource:BG 18.66|भ गी १८।६६]]), यही धर्म है -कृष्ण को आत्मसमर्पण करना । कोई भी अन्य धर्म, वे धर्म नहीं हैं । नहीं तो, क्यों कृष्ण माँगते सर्व-धर्मान परितज्य: "त्याग दो"? उन्होंने कहा कि धर्म-सम्स्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे: "मैं अवतरित होता हूँ धर्म के सिद्धांतों को स्थापित करने के लिए." और अंत में वे कहते हैं कि सर्व-धर्मान परित्यज्य । इसका मतलब है कि जिन तथाकथित धर्मों का हमने निर्माण किया है, मानव निर्मित धर्म, वे धर्म नहीं हैं । धर्म का मतलब है जो भगवान द्वारा दिया जाता है । लेकिन हमें समझ नहीं है कि भगवान क्या हैं और उनके शब्द क्या हैं । यही आधुनिक सभ्यता का दोष है । लेकिन आदेश है, भगवान हैं - हम स्वीकार नहीं करते हैं । शांति की संभावना कहाँ है? आदेश है । कृष्ण कहते हैं, परम, भगवान उवाच । व्यासदेव लिखते हैं भगवान उवाच । हमें पता होना चाहिए भगवान क्या हैं । व्यासदेव लिख सकते थे, कृष्ण उवाच । नहीं, वे कहते हैं ... अगर हम कृष्ण को गलत समझते हैं, इसलिए वे हर छंद, हर श्लोक में लिखते हैं, श्री भगवान उवाच । तो भगवान हैं । भगवान बोल रहे हैं । भगवान सभी अाचार्यों द्वारा स्वीकार किए जाते हैं । रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, विष्णु स्वामी । सबसे नए, भगवान चैतन्य महाप्रभु भी, यहां तक ​​कि शंकराचार्य, वे भी कृष्ण को - भगवान स्वयम कृष्ण स्वीकार करते हैं । इसलिए आधुनिक अाचार्यों का फैसला, और अतीत में भी, व्यासदेव नारद, असीत, हर किसी नें स्वीकार किया कृष्ण, देवत्व के परम व्यक्तित्व को । अर्जुन जिन्होंने कृष्ण से सुना, भगवद गीता को समझने के बाद, उन्होंने कहा, परम ब्रह्म परम धाम पवित्रम परमम् भवान पुरुषम अाद्यम शाश्वतम ([[Vanisource:BG 10.12|भ गी १०।१२]])
हमें शिक्षा देने के लिए कृष्ण अवतरित होते हैं यदा यदा हि धर्ममस्य ग्लानिर भवति भारत ([[HI/BG 4.7|भ.गी. ४.७]]) कृष्ण कहते हैं, "मेरे प्रिय अर्जुन, मैं आता हूँ, जब धार्मिक जीवन की प्रक्रिया में विसंगतियाँ होती हैं ।" धर्मस्य ग्लानिर भवति । और धर्म क्या है ? धर्म की सरल परिभाषा है, धर्मम तु साक्षाद् भगवत-प्रणितम ([[Vanisource:SB 6.3.19|श्रीमद भागवतम ६.३.१९]]) । यही धर्म है । धर्मम तु साक्षाद भगवत-प्रणितम ([[Vanisource:SB 6.3.19|श्रीमद भागवतम ६.३.१९]]) । जैसे कानून का क्या मतलब है ? कानून का मतलब है राज्य द्वारा दिए गए वचन । तुम घर पर कानून नहीं बना सकते । यह संभव नहीं है । जो सरकार तुम्हें देती है, कि, "तुम्हें इस तरह से काम करना है ।" यह कानून है । इसी तरह, धर्म का मतलब है ईश्वर द्वारा दिए गए निर्देश । यही धर्म है । सरल परिभाषा ।  


तो सब कुछ है । खासकर भारत में, हमारे पास इतनी संपत्ति है, भगवान को समझने के लिए, सरल बात सब कुछ तैयार मिलता है । लेकिन हम स्वीकार नहीं करेंगे तो इस रोग के लिए उपाय क्या है? हम शांति खोज कर रहे हैं, लेकिन हम कुछ भी एसा स्वीकार नहीं करेंगे जो वास्तव में हमें शांति दे सकत है । यह हमारा रोग है । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन जगाने की कोशिश कर रहा है हर किसी के दिल में निष्क्रिय कृष्ण चेतना को । अन्यथा, कैसे ये यूरोप और अमेरिका और अन्य देशवासी, उनहोंने चार या पांच साल पहले तक कृष्ण के बारे में नहीं सुना था, वे कैसे इतनी गंभीरता से कृष्ण भावनामृत को ले रहे हैं? कृष्ण भावनामृत हर किसी के दिल में हैं । उसे केवल जागृत करना है । यह चैतन्य-चरितामृत में वर्णित है:
तुम धर्म बनाते हो । मैंने इस धर्म को बनाया है, एक और आदमी ने किसी दूसरे धर्म को बनाया है, ये धर्म नहीं हैं इसलिए,जहाँ भगवद गीता समाप्त होती है, कि सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम ([[HI/BG 18.66|भ.गी. १८.६६]]), यही धर्म है - कृष्ण को आत्मसमर्पण करना । कोई भी अन्य धर्म, वे धर्म नहीं हैं । नहीं तो, क्यों कृष्ण कहते सर्व-धर्मान परितज्य, "त्याग दो" ? उन्होंने कहा कि धर्म-संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे, "मैं अवतरित होता हूँ धर्म के सिद्धांतों को स्थापित करने के लिए ।" और अंत में वे कहते हैं कि सर्व-धर्मान परित्यज्य । इसका मतलब है कि जिन तथाकथित धर्मों का हमने निर्माण किया है, मानव निर्मित धर्म, वे धर्म नहीं हैं धर्म का मतलब है जो भगवान द्वारा दिया जाता है । लेकिन हमें समझ नहीं है कि भगवान क्या हैं और उनके शब्द क्या हैं यही आधुनिक सभ्यता का दोष है । लेकिन आदेश हैं, भगवान हैं - हम स्वीकार नहीं करेंगे शांति की संभावना कहाँ है ? आदेश हैं ।  


:नित्या-सिध्द कृष्ण भक्ति साध्य कभु नौय
कृष्ण, सर्वोच्च, कहते हैं, भगवान उवाच । व्यासदेव लिखते हैं भगवान उवाच । हमें पता होना चाहिए भगवान क्या हैं । व्यासदेव लिख सकते थे, कृष्ण उवाच । नहीं, वे कहते हैं... अगर हम कृष्ण को गलत समझते हैं, इसलिए वे हर छंद, हर श्लोक में लिखते हैं, श्रीभगवान उवाच । तो भगवान हैं । भगवान बोल रहे हैं । भगवान सभी अाचार्यों द्वारा स्वीकार किए जाते हैं । रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, विष्णु स्वामी । सबसे नए, भगवान चैतन्य महाप्रभु भी, यहाँ तक ​​कि शंकराचार्य, वे भी स्वीकार - स भगवान स्वयम कृष्ण । इसलिए आधुनिक अाचार्यों का फैसला, और अतीत में भी, व्यासदेव नारद, असित, हर किसी ने स्वीकार किया कृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के रूप में । अर्जुन जिन्होंने कृष्ण से सुना, भगवद गीता को समझने के बाद, उन्होंने कहा, परम ब्रह्म परम धाम पवित्रम परमम भवान पुरुषम अाद्यम शाश्वतम ([[HI/BG 10.12-13|भ.गी. १०.१२]])
:श्रवणादि शुद्ध चित्ते करये उदय
:([[Vanisource:CC Madhya 22.107|चै च मध्य २२।१०७]])


। यह जागृत होता है । कृष्ण के लिए प्यार, कृष्ण के प्रति समर्पण, है हर किसी के दिल के भीतर है, लेकिन वह भूल गया है । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन केवल उस कृष्ण भावनामृत को जागृत करने के लिए है । यही प्रक्रिया है । जैसे जब तुम सो रहे हो, मुझे जोर से तुम्हे बुलाना पडता है । "श्री फलां, फलां, उठो । तुम्हे यह काम करना है ।" जब तुम सोते हो तो कोई अन्य इन्द्रियॉ काम नहीं करेंगी । लेकिन कान कार्य करेगा । इसलिए, इस तुग में, जब लोग इतने गिर हुए हैं, वे कुछ भी नहीं सुनना चाहते हैं, अगर हम इस हरे कृष्ण महा मंत्र का जाप करते हैं, तो उसकी कृष्ण भावनामृत जागृत होगी । यह व्यावहारिक है ।
तो सब कुछ है । खासकर भारत में, हमारे पास इतनी संपत्ति है, भगवान को समझने के लिए | सरल बात है । सब कुछ तैयार मिलता है । लेकिन हम स्वीकार नहीं करेंगे । तो इस रोग के लिए उपाय क्या है ? हम शांति खोज रहे हैं, लेकिन हम कुछ भी एेसा स्वीकार नहीं करेंगे जो वास्तव में हमें शांति दे सकता है । यह हमारा रोग है । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन जगाने की कोशिश कर रहा है हर किसी के दिल में रही सुषुप्त कृष्ण चेतना को । अन्यथा, कैसे ये यूरोप और अमेरिका और अन्य देशवासी, उन्होंने कृष्ण के बारे में चार या पाँच साल पहले तक नहीं सुना था, वे कैसे इतनी गंभीरता से कृष्ण भावनामृत को अपना रहे हैं ? कृष्ण भावनामृत हर किसी के दिल में हैं । उसे केवल जागृत करना है । यह चैतन्य-चरितामृत में वर्णित है:
 
:नित्य-सिद्ध कृष्ण भक्ति साध्य कभु नय
:श्रवणादि शुद्ध चित्ते करय उदय
:([[Vanisource:CC Madhya 22.107|चैतन्य चरितामृत मध्य २२.१०७]])
 
यह जागृत होता है । कृष्ण के लिए प्यार, कृष्ण के प्रति समर्पण, है हर किसी के दिल के भीतर है, लेकिन वह भूल गया है । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन केवल उस कृष्ण भावनामृत को जागृत करने के लिए है । यही प्रक्रिया है । जैसे जब तुम सो रहे हो, मुझे ज़ोर से तुम्हें बुलाना पड़ता है । "श्रीमान फलाना, फलना, उठो । तुम्हें यह काम करना है ।" जब तुम सोते हो तो कोई अन्य इन्द्रियाँ काम नहीं करेंगी । लेकिन कान कार्य करेगा । इसलिए, इस युग में, जब लोग इतने गिरे हुए हैं, वे कुछ भी नहीं सुनना चाहते हैं, अगर हम इस हरे कृष्ण महामंत्र का जाप करते हैं, तो उसकी कृष्ण भावनामृत जागृत होगी । यह व्यावहारिक है ।  
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Latest revision as of 17:42, 1 October 2020



Janmastami Lord Sri Krsna's Appearance Day Lecture -- London, August 21, 1973

हमें शिक्षा देने के लिए कृष्ण अवतरित होते हैं । यदा यदा हि धर्ममस्य ग्लानिर भवति भारत (भ.गी. ४.७) । कृष्ण कहते हैं, "मेरे प्रिय अर्जुन, मैं आता हूँ, जब धार्मिक जीवन की प्रक्रिया में विसंगतियाँ होती हैं ।" धर्मस्य ग्लानिर भवति । और धर्म क्या है ? धर्म की सरल परिभाषा है, धर्मम तु साक्षाद् भगवत-प्रणितम (श्रीमद भागवतम ६.३.१९) । यही धर्म है । धर्मम तु साक्षाद भगवत-प्रणितम (श्रीमद भागवतम ६.३.१९) । जैसे कानून का क्या मतलब है ? कानून का मतलब है राज्य द्वारा दिए गए वचन । तुम घर पर कानून नहीं बना सकते । यह संभव नहीं है । जो सरकार तुम्हें देती है, कि, "तुम्हें इस तरह से काम करना है ।" यह कानून है । इसी तरह, धर्म का मतलब है ईश्वर द्वारा दिए गए निर्देश । यही धर्म है । सरल परिभाषा ।

तुम धर्म बनाते हो । मैंने इस धर्म को बनाया है, एक और आदमी ने किसी दूसरे धर्म को बनाया है, ये धर्म नहीं हैं । इसलिए,जहाँ भगवद गीता समाप्त होती है, कि सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम (भ.गी. १८.६६), यही धर्म है - कृष्ण को आत्मसमर्पण करना । कोई भी अन्य धर्म, वे धर्म नहीं हैं । नहीं तो, क्यों कृष्ण कहते सर्व-धर्मान परितज्य, "त्याग दो" ? उन्होंने कहा कि धर्म-संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे, "मैं अवतरित होता हूँ धर्म के सिद्धांतों को स्थापित करने के लिए ।" और अंत में वे कहते हैं कि सर्व-धर्मान परित्यज्य । इसका मतलब है कि जिन तथाकथित धर्मों का हमने निर्माण किया है, मानव निर्मित धर्म, वे धर्म नहीं हैं । धर्म का मतलब है जो भगवान द्वारा दिया जाता है । लेकिन हमें समझ नहीं है कि भगवान क्या हैं और उनके शब्द क्या हैं । यही आधुनिक सभ्यता का दोष है । लेकिन आदेश हैं, भगवान हैं - हम स्वीकार नहीं करेंगे । शांति की संभावना कहाँ है ? आदेश हैं ।

कृष्ण, सर्वोच्च, कहते हैं, भगवान उवाच । व्यासदेव लिखते हैं भगवान उवाच । हमें पता होना चाहिए भगवान क्या हैं । व्यासदेव लिख सकते थे, कृष्ण उवाच । नहीं, वे कहते हैं... अगर हम कृष्ण को गलत समझते हैं, इसलिए वे हर छंद, हर श्लोक में लिखते हैं, श्रीभगवान उवाच । तो भगवान हैं । भगवान बोल रहे हैं । भगवान सभी अाचार्यों द्वारा स्वीकार किए जाते हैं । रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, विष्णु स्वामी । सबसे नए, भगवान चैतन्य महाप्रभु भी, यहाँ तक ​​कि शंकराचार्य, वे भी स्वीकार - स भगवान स्वयम कृष्ण । इसलिए आधुनिक अाचार्यों का फैसला, और अतीत में भी, व्यासदेव नारद, असित, हर किसी ने स्वीकार किया कृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के रूप में । अर्जुन जिन्होंने कृष्ण से सुना, भगवद गीता को समझने के बाद, उन्होंने कहा, परम ब्रह्म परम धाम पवित्रम परमम भवान पुरुषम अाद्यम शाश्वतम (भ.गी. १०.१२) ।

तो सब कुछ है । खासकर भारत में, हमारे पास इतनी संपत्ति है, भगवान को समझने के लिए | सरल बात है । सब कुछ तैयार मिलता है । लेकिन हम स्वीकार नहीं करेंगे । तो इस रोग के लिए उपाय क्या है ? हम शांति खोज रहे हैं, लेकिन हम कुछ भी एेसा स्वीकार नहीं करेंगे जो वास्तव में हमें शांति दे सकता है । यह हमारा रोग है । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन जगाने की कोशिश कर रहा है हर किसी के दिल में रही सुषुप्त कृष्ण चेतना को । अन्यथा, कैसे ये यूरोप और अमेरिका और अन्य देशवासी, उन्होंने कृष्ण के बारे में चार या पाँच साल पहले तक नहीं सुना था, वे कैसे इतनी गंभीरता से कृष्ण भावनामृत को अपना रहे हैं ? कृष्ण भावनामृत हर किसी के दिल में हैं । उसे केवल जागृत करना है । यह चैतन्य-चरितामृत में वर्णित है:

नित्य-सिद्ध कृष्ण भक्ति साध्य कभु नय
श्रवणादि शुद्ध चित्ते करय उदय
(चैतन्य चरितामृत मध्य २२.१०७) ।

यह जागृत होता है । कृष्ण के लिए प्यार, कृष्ण के प्रति समर्पण, है हर किसी के दिल के भीतर है, लेकिन वह भूल गया है । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन केवल उस कृष्ण भावनामृत को जागृत करने के लिए है । यही प्रक्रिया है । जैसे जब तुम सो रहे हो, मुझे ज़ोर से तुम्हें बुलाना पड़ता है । "श्रीमान फलाना, फलना, उठो । तुम्हें यह काम करना है ।" जब तुम सोते हो तो कोई अन्य इन्द्रियाँ काम नहीं करेंगी । लेकिन कान कार्य करेगा । इसलिए, इस युग में, जब लोग इतने गिरे हुए हैं, वे कुछ भी नहीं सुनना चाहते हैं, अगर हम इस हरे कृष्ण महामंत्र का जाप करते हैं, तो उसकी कृष्ण भावनामृत जागृत होगी । यह व्यावहारिक है ।