HI/Prabhupada 0793 - शिक्षा में कोई अंतर नहीं है । इसलिए गुरु एक है: Difference between revisions

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तो गुरु का काम है ज्ञान की रोशनी लेकर और अज्ञानी या शिष्य जो अंधेरे में हैं, उनके सामने प्रस्तुत करना और यह उसे अंधकार या अज्ञान के कष्टों से राहत देता है। यह गुरु का काम है।
तो गुरु का काम है ज्ञान की रोशनी लेकर और अज्ञानी या शिष्य जो अंधेरे में हैं, उनके सामने प्रस्तुत करना, और यह उसे अंधकार या अज्ञान के कष्टों से राहत देता है । यह गुरु का काम है ।


फिर एक और श्लोक का कहना है,  
फिर एक और श्लोक का कहना है,  


:तद विज्ञानार्थम स गुरुम एवाभिगच्छेत  
:तद विज्ञानार्थम स गुरुम एवाभिगच्छेत  
:समित-पाणि: श्रोत्रियम् ब्रह्म निष्ठम  
:समित-पाणि: श्रोत्रियम ब्रह्म निष्ठम  
:( मु उ १।२।१२)  
:(मुंडक उपनिषद १.२.१२)  


यह वैदिक निषेधाज्ञा है। कोई पूछ रहा था कि गुरु बिल्कुल जरूरी है क्या । हाँ, बिल्कुल आवश्यक है । यही वैदिक निषेधाज्ञा है। वेदों का कहना है, तद विज्ञानार्थम । तद - विज्ञानार्थम का मतलब है आध्यात्मिक ज्ञान । आध्यात्मिक ज्ञान; आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए। तद विज्ञानार्थम । स-एक; गुरुम एव-एव मतलब अावश्यक ; गुरुम -गुरु को । गुरु के पास जाना ही होगा । "कोई एक" गुरू नहीं ; " वह गुरु" । गुरु एक है । जैसे यह हमारे रेवतिनंदन महाराज द्वारा समझाया गया है गुरु परम्परा में अा रहे हैं । जो पांच हजार साल पहले व्यासदेव नें निर्देश दिया या श्री कृष्ण नें निर्देश दिया, वही हम भी निर्देश दे रहे हैं इसलिए शिक्षा में कोई अंतर नहीं है । इसलिए गुरु एक है। हालांकि सैकड़ों और हजारों अाचार्य आए और चले गए, लेकिन संदेश एक है। इसलिए गुरु दो नहीं हो सकते हैं । असली गुरु अलग ढंग से बात नहीं करेगा । कुछ गुरु कहते हैं कि, "मेरी राय में, तुम्हे इस तरह होना चाहिए" और कुछ गुरु कहेंगे " मेरी राय में तुम्हे यह करना चाहिए" - वे गुरु नहीं हैं; वे सब धूर्त हैं। गुरु की कोई 'अपनी' राय नहीं होती है । गुरु की केवल एक राय होती है वही राय जो श्री कृष्ण नें या व्यासदेव नें या नारद नें या अर्जुन या श्री चैतन्य महाप्रभु या गोस्वामियोंै नें । तुम वही बात पाअोगे । पांच हजार साल पहले, भगवान श्री कृष्ण नें भगवद गीता कही और व्यासदेव नें लिखी, रेकार्ड किया । व्यासदेव नहीं कहते हैं कि "यह मेरी राय है।" व्यासदेव लिखते हैं, श्री भगवान उवाच: "जो मैं लिख ​​रहा हूँ, यह भगवान द्वारा बोला गया है। " वे अपनी राय नहीं दे रहे हैं । श्री भगवान उवाच । इसलिए वे गुरु हैं । वे श्री कृष्ण के शब्दों को बदल नहीं रहे हैं । यह तथारूप दे रहे हैं । जैसे एक वाहक, चपरासी । किसी ने तुम्हें पत्र लिखा है, चपरासी के पास पत्र है। इसका मतलब यह नहीं कि उसे सही करना है या बदलना है या कुछ जोडऩा है ....नहीं । वह पेश करेगा । यही उसका कर्तव्य है । फिर वह गुरु है । वह ईमानदार है । इसी तरह, गुरु दो नहीं हो सकते । ध्यान रखना । व्यक्ति अलग अलग हो सकता है, लेकिन संदेश एक ही है। इसलिए गुरु एक है।
यह वैदिक आज्ञा है । कोई पूछ रहा था की गुरु बिल्कुल जरूरी है क्या । हाँ, बिल्कुल आवश्यक है । यही वैदिक आज्ञा है । वेदों का कहना है, तद विज्ञानार्थम । तद-विज्ञानार्थम का मतलब है आध्यात्मिक ज्ञान । आध्यात्मिक ज्ञान; आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए । तद विज्ञानार्थम । स-एक; गुरुम एव-एव मतलब अावश्यक; गुरुम -गुरु को । गुरु के पास जाना ही होगा । "कोई एक" गुरू नहीं; " वह गुरु" । गुरु एक है । जैसे यह हमारे रेवतिनंदन महाराज द्वारा समझाया गया है, गुरु परम्परा में अा रहे हैं । जो पांच हजार साल पहले व्यासदेव नें निर्देश दिया, या कृष्ण नें निर्देश दिया, वही हम भी निर्देश दे रहे हैं | इसलिए शिक्षा में कोई अंतर नहीं है । इसलिए गुरु एक है ।
 
हालांकि सैकड़ों और हजारों अाचार्य आए और चले गए, लेकिन संदेश एक है । इसलिए गुरु दो नहीं हो सकते हैं । असली गुरु अलग ढंग से बात नहीं करेगा । कुछ गुरु कहते हैं की, "मेरी राय में, तुम्हे इस तरह होना चाहिए," और कुछ गुरु कहेंगे " मेरी राय में तुम्हे यह करना चाहिए" - वे गुरु नहीं हैं; वे सब धूर्त हैं । गुरु की कोई "अपनी" राय नहीं होती । गुरु की केवल एक राय होती है, वही राय जो कृष्ण नें या व्यासदेव नें या नारद नें, या अर्जुन या श्री चैतन्य महाप्रभु या गोस्वामियोने दी । तुम वही बात पाअोगे ।  
 
पांच हजार साल पहले, भगवान कृष्ण नें भगवद गीता कही और व्यासदेव नें लिखी, रेकार्ड किया । व्यासदेव नहीं कहते हैं कि "यह मेरी राय है ।" व्यासदेव लिखते हैं, श्री भगवान उवाच: "जो मैं लिख ​​रहा हूँ, यह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा बोला गया है ।" वे अपनी राय नहीं दे रहे हैं । श्री भगवान उवाच । इसलिए वे गुरु हैं । वे कृष्ण के शब्दों को बदल नहीं रहे हैं । यह तथारूप दे रहे हैं । जैसे एक वाहक, चपरासी । किसी ने तुम्हें पत्र लिखा है, चपरासी के पास पत्र है । इसका मतलब यह नहीं कि उसे सही करना है या बदलना है या कुछ जोडऩा है... नहीं । वह पेश करेगा । यही उसका कर्तव्य है । फिर वह गुरु है । वह ईमानदार है । इसी तरह, गुरु दो नहीं हो सकते । ध्यान रखना । व्यक्ति अलग अलग हो सकता है, लेकिन संदेश एक ही है । इसलिए गुरु एक है ।
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Latest revision as of 14:57, 22 October 2018



Lecture What is a Guru? -- London, August 22, 1973

तो गुरु का काम है ज्ञान की रोशनी लेकर और अज्ञानी या शिष्य जो अंधेरे में हैं, उनके सामने प्रस्तुत करना, और यह उसे अंधकार या अज्ञान के कष्टों से राहत देता है । यह गुरु का काम है ।

फिर एक और श्लोक का कहना है,

तद विज्ञानार्थम स गुरुम एवाभिगच्छेत
समित-पाणि: श्रोत्रियम ब्रह्म निष्ठम
(मुंडक उपनिषद १.२.१२)

यह वैदिक आज्ञा है । कोई पूछ रहा था की गुरु बिल्कुल जरूरी है क्या । हाँ, बिल्कुल आवश्यक है । यही वैदिक आज्ञा है । वेदों का कहना है, तद विज्ञानार्थम । तद-विज्ञानार्थम का मतलब है आध्यात्मिक ज्ञान । आध्यात्मिक ज्ञान; आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए । तद विज्ञानार्थम । स-एक; गुरुम एव-एव मतलब अावश्यक; गुरुम -गुरु को । गुरु के पास जाना ही होगा । "कोई एक" गुरू नहीं; " वह गुरु" । गुरु एक है । जैसे यह हमारे रेवतिनंदन महाराज द्वारा समझाया गया है, गुरु परम्परा में अा रहे हैं । जो पांच हजार साल पहले व्यासदेव नें निर्देश दिया, या कृष्ण नें निर्देश दिया, वही हम भी निर्देश दे रहे हैं | इसलिए शिक्षा में कोई अंतर नहीं है । इसलिए गुरु एक है ।

हालांकि सैकड़ों और हजारों अाचार्य आए और चले गए, लेकिन संदेश एक है । इसलिए गुरु दो नहीं हो सकते हैं । असली गुरु अलग ढंग से बात नहीं करेगा । कुछ गुरु कहते हैं की, "मेरी राय में, तुम्हे इस तरह होना चाहिए," और कुछ गुरु कहेंगे " मेरी राय में तुम्हे यह करना चाहिए" - वे गुरु नहीं हैं; वे सब धूर्त हैं । गुरु की कोई "अपनी" राय नहीं होती । गुरु की केवल एक राय होती है, वही राय जो कृष्ण नें या व्यासदेव नें या नारद नें, या अर्जुन या श्री चैतन्य महाप्रभु या गोस्वामियोने दी । तुम वही बात पाअोगे ।

पांच हजार साल पहले, भगवान कृष्ण नें भगवद गीता कही और व्यासदेव नें लिखी, रेकार्ड किया । व्यासदेव नहीं कहते हैं कि "यह मेरी राय है ।" व्यासदेव लिखते हैं, श्री भगवान उवाच: "जो मैं लिख ​​रहा हूँ, यह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा बोला गया है ।" वे अपनी राय नहीं दे रहे हैं । श्री भगवान उवाच । इसलिए वे गुरु हैं । वे कृष्ण के शब्दों को बदल नहीं रहे हैं । यह तथारूप दे रहे हैं । जैसे एक वाहक, चपरासी । किसी ने तुम्हें पत्र लिखा है, चपरासी के पास पत्र है । इसका मतलब यह नहीं कि उसे सही करना है या बदलना है या कुछ जोडऩा है... नहीं । वह पेश करेगा । यही उसका कर्तव्य है । फिर वह गुरु है । वह ईमानदार है । इसी तरह, गुरु दो नहीं हो सकते । ध्यान रखना । व्यक्ति अलग अलग हो सकता है, लेकिन संदेश एक ही है । इसलिए गुरु एक है ।