HI/BG 1.12: Difference between revisions

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==== श्लोक 12 ====
==== श्लोक 12 ====


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:''तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्ध: पितामह: ''
:तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः
:''ङ्क्षसहनादं विनद्योच्चै: शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् ॥ १२॥''
:सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् ॥१२॥
 
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Latest revision as of 08:57, 24 July 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 12

तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् ॥१२॥

शब्दार्थ

तस्य—उसका; सञ्जनयन्—बढाते हुए; हर्षम्—हर्ष; कुरु-वृद्ध:—कुरुवंश के वयोवृद्ध (भीष्म) ; पितामह:—पितामह, बाबा; ङ्क्षसह-नादम्—ङ्क्षसह की सी गर्जना; विनद्य—गरज कर; उच्चै:—उच्च स्वर से; शङ्खम्—शंख; दध्मौ—बजाया; प्रतापवान्—बलशाली।

अनुवाद

तब कुरुवंश के वयोवृद्ध परम प्रतापी एवं वृद्ध पितामह ने सिंह-गर्जना की सी ध्वनि करने वाले अपने शंख को उच्च स्वर से बजाया, जिससे दुर्योधन को हर्ष हुआ |

तात्पर्य

कुरुवंश के वयोवृद्ध पितामह अपने पौत्र दुर्योधन का मनोभाव जान गये और उनके प्रति अपनी स्वाभाविक दयावश उन्होंनेउसे प्रसन्न करने के लिए अत्यन्त उच्च स्वर से अपना शंख बजाया जो उनकी सिंह के समान स्थिति के अनुरूप था | अप्रत्यक्ष रूप में शंख के द्वारा प्रतीकात्मक ढंग से उन्होंने अपने हताश पौत्र दुर्योधन को बता दिया कि उन्हें युद्ध में विजय की आशा नहीं है क्योंकि दुसरे पक्ष में साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण हैं | फिर भी युद्ध का मार्गदर्शन करना उनका कर्तव्य था और इस सम्बन्ध में वे कोई कसर नहीं रखेंगे |