HI/BG 11.35: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:44, 9 August 2020
श्लोक 35
- सञ्जय उवाच
- एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य
- कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी ।
- नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं
- सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ॥३५॥
शब्दार्थ
सञ्जय: उवाच—संजय ने कहा; एतत्—इस प्रकार; श्रुत्वा—सुनकर; वचनम्—वाणी; केशवस्य—कृष्ण की; कृत-अञ्जलि:—हाथ जोडक़र; वेपमान:—काँपते हुए; किरीटी—अर्जुन ने; नमस्कृत्वा—नमस्कार करके; भूय:—फिर; एव—भी; आह—बोला; कृष्णम्—कृष्ण से; स-गद्गदम्—अवरुद्ध स्वर से; भीत-भीत:—डरा-डरा सा; प्रणम्य—प्रणाम करके।
अनुवाद
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा-हे राजा! भगवान् के मुख से इन वचनों कोसुनकरकाँपते हुए अर्जुन ने हाथ जोड़कर उन्हें बारम्बार नमस्कार किया | फिरउसनेभयभीत होकर अवरुद्ध स्वर में कृष्ण से इस प्रकार कहा |
तात्पर्य
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, भगवान्के विश्र्वरूप केकारण अर्जुन आश्चर्यचकित था, अतः वह कृष्ण को बारम्बारनमस्कार करने लगा औरअवरुद्ध कंठ से आश्चर्य से वह कृष्ण की प्रार्थना मित्रके रूप में नहीं, अपितुभक्त के रूप में करने लगा |