HI/BG 18.50: Difference between revisions
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:समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥५०॥ | |||
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Latest revision as of 07:47, 18 August 2020
श्लोक 50
- सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे ।
- समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥५०॥
शब्दार्थ
सिद्धिम्—सिद्धि को; प्राह्रश्वत:—प्राह्रश्वत किया हुआ; यथा—जिस तरह; ब्रह्म—परमेश्वर; तथा—उसी प्रकार; आह्रश्वनोति—प्राह्रश्वत करता है; निबोध—समझने का यत्न करो; मे—मुझसे; समासेन—संक्षेप में; एव—निश्चय ही; कौन्तेय—हे कुन्तीपुत्र; निष्ठा—अवस्था; ज्ञानस्य—ज्ञान की; या—जो; परा—दिव्य।
अनुवाद
हे कुन्तीपुत्र! जिस तरह इस सिद्धि को प्राप्त हुआ व्यक्ति परम सिद्धावाथा अर्थात् ब्रह्म को, जो सर्वोच्च ज्ञान की अवस्था है, प्राप्त करता है, उसका मैं संक्षेप में तुमसे वर्णन करूँगा, उसे तुम जानो |
तात्पर्य
भगवान् अर्जुन को बताते हैं कि किस तरह कोई व्यक्ति केवल अपने वृत्तिपरक कार्य मे लग कर परम सिद्धावस्था को प्राप्त कर सकता है, यदि यह कार्य भगवान् के लिए किया गया हो | यदि मनुष्य अपने कर्म के फल को परमेश्र्वर की तुष्टि के लिए ही त्याग देता है, तो उसे ब्रह्म की चरम अवस्था प्राप्त हो जाती है | यह आत्म-साक्षात्कार की विधि है | ज्ञान की वास्तविक सिद्धि शुद्ध कृष्णभावनामृत प्राप्त करने में है, इसका वर्णन अगले श्लोकों मे किया गया है |