HI/Prabhupada 0537 - कृष्ण सबसे गरीब आदमी के लिए भी पूजा के लिए उपलब्ध हैं: Difference between revisions

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शास्त्र में यह कहा जाता है, जनस्य मोहो यम अहम ममेति ([[Vanisource:SB 5.5.8|श्री भ ५।५।५८]]) । यह "मैं और मेरा" तत्वज्ञान भ्रम है । तो इस भ्रम का मतलब है माया माया ... अगर तुम इस भ्रम से बाहर निकलना चाहते हो माया, तो तुम्हे कृष्ण के फार्मूले को स्वीकार करना होगा । माम एव ये प्रपद्यन्ते मायाम एताम तरन्ति ते । सब कुछ भगवद गीता में है मार्गदर्शन के लिए अगर हम भगवद गीता के तत्वज्ञान को स्वीकार करते हैं । सब कुछ है । शांति है, समृद्धि है । तो यह एक तथ्य है । दुर्भाग्य से, हम इसे स्वीकार नहीं करते । यह हमारा दुर्भाग्य है । या हम गलत अनुवाद करते हैं । कृष्ण भगवद गीता में कहते हैं मन-मना भव मद-भकतो मद-याजी माम नमस्कुरु ([[Vanisource:BG 18.65|भ गी १८।६५]]) कृष्ण कहते हैं तुम हमेशा मुझे याद करो ।" मन मना भव मद भक्तो । "मेरा भक्त बनो" मद-याजी, "तुम मेरी पूजा करो ।" माम नमस्कुरु, "मुझे दण्डवत प्रणाम करो ।" क्या यह बहुत मुश्किल काम है? यहाँ कृष्ण का अर्च विग्रह है । अगर तुम इस अर्च विग्रह के बारे में सोचो, राधा कृष्ण, क्या यह बहुत मुश्किल है? मन मना । तुम मंदिर में आते हो और एक भक्त के रूप में, अर्च विग्रह को सम्मान देते हो, मन मना भव मद भक्तो । जहां तक ​​संभव हो, अर्च विग्रह की पूजा करने के लिए प्रयास करो, पत्रम् पुष्पम् फलम् तोयम् यो मे भक्त्या प्रयच्छति ([[Vanisource:BG 9.26|भ गी ९।२६]]) कृष्ण को तुम्हारी पूरी संपत्ति नहीं चाहिए । कृष्ण सबसे गरीब आदमी के लिए खुले हैं पूजा के लिए वह क्या माँग रहे हैं? वह कहते हैं, पत्रम् पुष्पम् फलम् तोयम् यो मे भक्त्या प्रयच्छति: "भक्ति के साथ, अगर एक व्यक्ति मुझे एक छोटी सी पत्ती प्रदान करता है, एक छोटा सा फल, थोड़ा पानी, मैं इसे स्वीकार करता हूँ ।" कृष्ण भूखे नहीं हैं, लेकिन कृष्ण तुम्हे भक्त बनाना चाहते हैं । मुख्य मुद्दा यही है । यो मे भक्त्या प्रयच्छति । मुख्य सिद्धांत यही है । अगर तुम कृष्ण को छोटी छीटी चीजें प्रदान करते हो ... कृष्ण भूखे नहीं हैं ; कृष्ण हर किसी के लिए भोजन उपलब्ध करा रहे हैं । एको यो बहुनाम विदधाती कामान । लेकिन कृष्ण तुम्हारा प्यार, तुम्हारी भक्ति चाहते हैं । इसलिए वह भीख माँग रहे हैं थोड़ा पत्रम् पुष्पम् फलम् तोयम् । मन-मना भव मद-भकतो । कृष्ण को समझने में और कृष्ण भावनाम्रत को स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं है । लेकिन हम ऐसा नहीं करेंगे, यह हमारा रोग है । अन्यथा, यह बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है । और जैसे ही हम कृष्ण के भक्त बनते हैं, हम पूरी स्थिति को समझते हैं । हमारा तत्वज्ञान, भागवत तत्वज्ञान भी साम्यवाद है, क्योंकि हम कृष्ण को परम पिता मानते हैं, और सभी जीव, वे सभी कृष्ण के बेटे हैं ।
शास्त्र में यह कहा जाता है, जनस्य मोहो अयम अहम ममेति ([[Vanisource:SB 5.5.8|श्रीमद भागवतम ५.५.८]]) । यह "मैं और मेरा" तत्वज्ञान भ्रम है । तो इस भ्रम का मतलब है माया माया... अगर तुम इस भ्रम से बाहर निकलना चाहते हो, माया से, तो तुम्हें कृष्ण के सूत्र को स्वीकार करना होगा । माम एव ये प्रपद्यन्ते मायाम एताम तरन्ति ते । भगवद गीता में सब कुछ मार्गदर्शन के लिए है अगर हम भगवद गीता के तत्वज्ञान को स्वीकार करते हैं । सब कुछ है । शांति है, समृद्धि है । तो यह एक तथ्य है । दुर्भाग्य से, हम इसे स्वीकार नहीं करते । यह हमारा दुर्भाग्य है । या हम गलत अर्थघटन करते हैं ।  


तो कृष्ण कहते हैं कि वह सभी ग्रहों के मालिक हैं, सर्व-लोक-महेश्वरम ([[Vanisource:BG 5.29|भ गी ५।२९]]) इसलिए जो कुछ भी है, या तो आकाश में या पानी में या भूमि में, वे सब कृष्ण की संपत्ति है और क्योंकि हम सभी कृष्ण के पुत्र हैं, इसलिए हम में से हर एक को पिता की संपत्ति का उपयोग करने का अधिकार है लेकिन हमें दूसरों पर अतिक्रमण नहीं करना चाहिए यह शांति का फार्मूला है मा ग्रध कस्य स्विधनम, ईशावास्यम इदम सर्वम ([[Vanisource:ISO 1|ईशो १]]) सब कुछ भगवान के अंतर्गत आता है । तुम भगवान के बेटे हो तुम्हे पिता की संपत्ति का उपयोग करने का अधिकार मिलता है, लेकिन तुम जरूरत से ज्यादा नहीं लेना । यह सजा के लायक है । ये बातें श्रीमद-भागवतम में कही गई हैं स्तेन एव स उच्यते ([[Vanisource:BG 3.12|भ गी ३।१२]]) भगवद गीता में, "वह एक चोर है ।" अगर कोई जरूरत से ज्यादा लेता है, तो वह एक चोर है यज्ञार्थात कर्मनो अन्यत्र लोक अयम् कर्म-बन्धन: ([[Vanisource:BG 3.9|भ गी ३।९]]) कृष्ण की संतुष्टि के लिए है ... यज्ञ का मतलब है कृष्ण कृष्ण का दूसरा नाम यज्ञेश्वर है तो तुम कृष्ण के लिए काम करते हो, तुम प्रसाद कृष्ण के लिए लेते हो । हम यहाँ यही सिखा रहे हैं । इस मंदिर में, हम रह रहे हैं अमेरिकि, भारतीय, अंग्रेज, कनाडा, अफ्रीकी, दुनिया के विभिन्न भागों के लोग । तुम्हें पता है । इसी मंदिर में नहीं , पूरी दुनिया में । (तोड़)
कृष्ण भगवद गीता में कहते हैं, मन-मना भव मद्-भक्तो मद्याजी माम नमस्कुरु ([[HI/BG 18.65|भ.गी. १८.६५]]) । कृष्ण कहते हैं तुम हमेशा मेरे बारे में चिंतन करो " मन मना भव मद् भक्तो "मेरा भक्त बनो" मद्याजी, "तुम मेरी पूजा करो " माम नमस्कुरु, "मुझे दण्डवत प्रणाम करो " क्या यह बहुत मुश्किल काम है ? यहाँ कृष्ण का अर्च-विग्रह है अगर तुम इस अर्च विग्रह के बारे में सोचो, राधा-कृष्ण, क्या यह बहुत मुश्किल है ? मन मना तुम मंदिर में आते हो और, एक भक्त के रूप में, अर्च-विग्रह को सम्मान देते हो, मन मना भव मद् भक्तो जहाँ तक ​​संभव हो, अर्च-विग्रह की पूजा करने का प्रयास करो, पत्रम पुष्पम फलम तोयम यो मे भक्त्या प्रयच्छति ([[HI/BG 9.26|भ.गी. ९.२६]]) ।  


कृष्ण सर्वोच्च भोगी हैं और कृष्ण हर किसी की सर्वोच्च दोस्त हैं । जब हम यह भूल जाते हैं, तो हम इस भौतिक दुनिया में अाते हैं जीवन के लिए संघर्ष और एक दूसरे के साथ लड़ने के लिए । यह भौतिक जीवन है । तो तुम्हे नहीं मिल सकता है ... राजनेताओं, राजनयिकों, दार्शनिकों, उन्होने इतनी कोशिश की है लेकिन वास्तव में कुछ भी सार्थक नहीं हुअा है । जैसे संयुक्त राष्ट्र की तरह । यह दूसरा महान युद्ध के बाद आयोजित किया गया था और वे चाहते थ कि शांति से हम सब कुछ व्यवस्थित करें । लेकिन ऐसी कोई बात नहीं है । लडाई जारी है, पाकिस्तान और भारत, वियतनाम और अमेरिका के बीच, और यह और वह । यह प्रक्रिया नहीं है । प्रक्रिया कृष्ण भावनाम्रत है । हर किसी को यह तथ्य समझना होगा, हम मालिक नहीं हैं । मालिक कृष्ण हैं । यह तथ्य है । जैसे अमेरिका की तरह । दो सौ साल पहले अमेरिका, यूरोपीय देशांतर गमन करने वाले, वे मालिक नहीं थे - कोई अौर मालिक था । उन्से पहले, कोई अौर मालिक था या यह खाली जमीन थी । वास्तविक मालिक कृष्ण हैं । लेकिन कृत्रिम रूप से तुम दावा कर रहे हो, "यह मेरी संपत्ति है ।" जनस्य मोहो यम अहम ममेति ([[Vanisource:SB 5.5.8|श्री भ ५।५।८]]) । इसे माया कहा जाता है ।
कृष्ण को तुम्हारी पूरी संपत्ति नहीं चाहिए । कृष्ण सबसे गरीब आदमी की पूजा के लिए भी उपलब्ध हैं । वह क्या माँग रहे हैं ? वह कहते हैं, पत्रम पुष्पम फलम तोयम यो मे भक्त्या प्रयच्छति: "भक्ति के साथ, अगर एक व्यक्ति मुझे एक छोटी-सी पत्ती प्रदान करता है, एक छोटा सा फल, थोड़ा पानी, मैं इसे स्वीकार करता हूँ ।" कृष्ण भूखे नहीं हैं, लेकिन कृष्ण तुम्हें भक्त बनाना चाहते हैं । मुख्य मुद्दा यही है । यो मे भक्त्या प्रयच्छति । मुख्य सिद्धांत यही है । अगर तुम कृष्ण को छोटी-छीटी चीजें प्रदान करते हो... कृष्ण भूखे नहीं हैं; कृष्ण हर किसी के लिए भोजन उपलब्ध करा रहे हैं । 
 
एको यो बहुनाम विदधाति कामान । लेकिन कृष्ण तुम्हारा प्यार, तुम्हारी भक्ति चाहते हैं । इसलिए वह माँग रहे हैं थोड़ा पत्रम पुष्पम फलम तोयम । मन-मना भव मद्-भक्तो । कृष्ण को समझने में और कृष्णभावनामृत को स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं है । लेकिन हम ऐसा नहीं करेंगे, यह हमारा रोग है । अन्यथा, यह बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है । और जैसे ही हम कृष्ण के भक्त बनते हैं, हम पूरी स्थिति को समझ जाते हैं । हमारा तत्वज्ञान, भागवत तत्वज्ञान भी साम्यवाद है, क्योंकि हम कृष्ण को परमपिता मानते हैं, और सभी जीव, वे सभी कृष्ण के बेटे हैं ।
 
तो कृष्ण कहते हैं कि वह सभी ग्रहों  के मालिक हैं, सर्व-लोक-महेश्वरम ([[HI/BG 5.29|भ.गी. ५.२९]]) । इसलिए जो कुछ भी है, या तो आकाश में या पानी में या भूमि में, वे सब कृष्ण की संपत्ति है । और क्योंकि हम सभी कृष्ण के पुत्र हैं,  इसलिए हम में से हर एक को पिता की संपत्ति का उपयोग करने का अधिकार है । लेकिन हमें दूसरों पर अतिक्रमण नहीं करना चाहिए । यह शांति का सूत्र है । मा गृध कस्य स्विदधनम, ईशावास्यम इदम सर्वम ([[Vanisource:ISO 1|ईशोपनिषद १]]) | सब कुछ भगवान के अंतर्गत आता है । तुम भगवान के पुत्र हो । तुम्हें पिता की संपत्ति का उपयोग करने का अधिकार मिला है, लेकिन तुम ज़रूरत से ज्यादा मत लेना । यह सज़ा के लायक है । ये बातें श्रीमद्-भागवतम में कही गई हैं ।
 
स्तेन एव स उच्यते ([[HI/BG 3.12|भ.गी. ३.१२]]),भगवद गीता में, "वह चोर है ।" अगर कोई ज़रूरत से ज्यादा लेता है, तो वह चोर है । यज्ञार्थात कर्मणो अन्यत्र लोक अयम कर्म-बन्धन: ([[HI/BG 3.9|भ.गी. ३.९]]) । कृष्ण की संतुष्टि के लिए है... यज्ञ का मतलब है कृष्ण | कृष्ण का दूसरा नाम यज्ञेश्वर है । तो तुम कृष्ण के लिए काम करते हो, तुम कृष्ण प्रसाद कृष्ण लेते हो । हम यहाँ यही सिखा रहे हैं । इस मंदिर में, हम रह रहे हैं अमेरिकि, भारतीय, अंग्रेज, कनैडियन, अफ्रीकी, दुनिया के विभिन्न भागों के लोग । तुम्हें पता है । इसी मंदिर में नहीं , पूरी दुनिया में । (तोड़)
 
कृष्ण सर्वोच्च भोगी हैं और कृष्ण हर किसी केसर्वोच्च दोस्त हैं । जब हम यह भूल जाते हैं, तो हम इस भौतिक दुनिया में अाते हैं जीवन के लिए संघर्ष और एक दूसरे के साथ लड़ने के लिए । यह भौतिक जीवन है । तो तुम्हें नहीं मिल सकता है... राजनेता, राजदूत, तत्वज्ञानी, उन्होंने इतनी कोशिश की है, लेकिन वास्तव में कुछ भी सार्थक नहीं हुअा है । संयुक्त राष्ट्र की तरह । यह दूसरे महा युद्ध के बाद आयोजित किया गया था, और वे चाहते थ कि शांति से हम सब कुछ व्यवस्थित करें । लेकिन ऐसी कोई चीज़ नहीं है । लड़ाई जारी है, पाकिस्तान और भारत, वियतनाम और अमेरिका के बीच, और यह और वह । यह प्रक्रिया नहीं है । प्रक्रिया कृष्ण भावनामृत है ।  
 
हर किसी को यह तथ्य समझना होगा, हम मालिक नहीं हैं । मालिक कृष्ण हैं । यह तथ्य है । जैसे अमेरिका । दो सौ साल पहले अमेरिका, यूरोपीय देशांतर गमन करने वाले, वे मालिक नहीं थे, कोई अौर मालिक था । उनसे पहले, कोई अौर मालिक था या यह खाली ज़मीन थी । वास्तविक मालिक कृष्ण हैं । लेकिन कृत्रिम रूप से तुम दावा कर रहे हो, "यह मेरी संपत्ति है ।" जनस्य मोहो अयम अहम ममेति ([[Vanisource:SB 5.5.8|श्रीमद भागवतम ५.५.८]]) । इसे माया कहा जाता है ।  
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Latest revision as of 17:42, 1 October 2020



Janmastami Lord Sri Krsna's Appearance Day Lecture -- London, August 21, 1973

शास्त्र में यह कहा जाता है, जनस्य मोहो अयम अहम ममेति (श्रीमद भागवतम ५.५.८) । यह "मैं और मेरा" तत्वज्ञान भ्रम है । तो इस भ्रम का मतलब है माया । माया... अगर तुम इस भ्रम से बाहर निकलना चाहते हो, माया से, तो तुम्हें कृष्ण के सूत्र को स्वीकार करना होगा । माम एव ये प्रपद्यन्ते मायाम एताम तरन्ति ते । भगवद गीता में सब कुछ मार्गदर्शन के लिए है अगर हम भगवद गीता के तत्वज्ञान को स्वीकार करते हैं । सब कुछ है । शांति है, समृद्धि है । तो यह एक तथ्य है । दुर्भाग्य से, हम इसे स्वीकार नहीं करते । यह हमारा दुर्भाग्य है । या हम गलत अर्थघटन करते हैं ।

कृष्ण भगवद गीता में कहते हैं, मन-मना भव मद्-भक्तो मद्याजी माम नमस्कुरु (भ.गी. १८.६५) । कृष्ण कहते हैं तुम हमेशा मेरे बारे में चिंतन करो ।" मन मना भव मद् भक्तो । "मेरा भक्त बनो" । मद्याजी, "तुम मेरी पूजा करो ।" माम नमस्कुरु, "मुझे दण्डवत प्रणाम करो ।" क्या यह बहुत मुश्किल काम है ? यहाँ कृष्ण का अर्च-विग्रह है । अगर तुम इस अर्च विग्रह के बारे में सोचो, राधा-कृष्ण, क्या यह बहुत मुश्किल है ? मन मना । तुम मंदिर में आते हो और, एक भक्त के रूप में, अर्च-विग्रह को सम्मान देते हो, मन मना भव मद् भक्तो । जहाँ तक ​​संभव हो, अर्च-विग्रह की पूजा करने का प्रयास करो, पत्रम पुष्पम फलम तोयम यो मे भक्त्या प्रयच्छति (भ.गी. ९.२६) ।

कृष्ण को तुम्हारी पूरी संपत्ति नहीं चाहिए । कृष्ण सबसे गरीब आदमी की पूजा के लिए भी उपलब्ध हैं । वह क्या माँग रहे हैं ? वह कहते हैं, पत्रम पुष्पम फलम तोयम यो मे भक्त्या प्रयच्छति: "भक्ति के साथ, अगर एक व्यक्ति मुझे एक छोटी-सी पत्ती प्रदान करता है, एक छोटा सा फल, थोड़ा पानी, मैं इसे स्वीकार करता हूँ ।" कृष्ण भूखे नहीं हैं, लेकिन कृष्ण तुम्हें भक्त बनाना चाहते हैं । मुख्य मुद्दा यही है । यो मे भक्त्या प्रयच्छति । मुख्य सिद्धांत यही है । अगर तुम कृष्ण को छोटी-छीटी चीजें प्रदान करते हो... कृष्ण भूखे नहीं हैं; कृष्ण हर किसी के लिए भोजन उपलब्ध करा रहे हैं ।

एको यो बहुनाम विदधाति कामान । लेकिन कृष्ण तुम्हारा प्यार, तुम्हारी भक्ति चाहते हैं । इसलिए वह माँग रहे हैं थोड़ा पत्रम पुष्पम फलम तोयम । मन-मना भव मद्-भक्तो । कृष्ण को समझने में और कृष्णभावनामृत को स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं है । लेकिन हम ऐसा नहीं करेंगे, यह हमारा रोग है । अन्यथा, यह बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है । और जैसे ही हम कृष्ण के भक्त बनते हैं, हम पूरी स्थिति को समझ जाते हैं । हमारा तत्वज्ञान, भागवत तत्वज्ञान भी साम्यवाद है, क्योंकि हम कृष्ण को परमपिता मानते हैं, और सभी जीव, वे सभी कृष्ण के बेटे हैं ।

तो कृष्ण कहते हैं कि वह सभी ग्रहों के मालिक हैं, सर्व-लोक-महेश्वरम (भ.गी. ५.२९) । इसलिए जो कुछ भी है, या तो आकाश में या पानी में या भूमि में, वे सब कृष्ण की संपत्ति है । और क्योंकि हम सभी कृष्ण के पुत्र हैं, इसलिए हम में से हर एक को पिता की संपत्ति का उपयोग करने का अधिकार है । लेकिन हमें दूसरों पर अतिक्रमण नहीं करना चाहिए । यह शांति का सूत्र है । मा गृध कस्य स्विदधनम, ईशावास्यम इदम सर्वम (ईशोपनिषद १) | सब कुछ भगवान के अंतर्गत आता है । तुम भगवान के पुत्र हो । तुम्हें पिता की संपत्ति का उपयोग करने का अधिकार मिला है, लेकिन तुम ज़रूरत से ज्यादा मत लेना । यह सज़ा के लायक है । ये बातें श्रीमद्-भागवतम में कही गई हैं ।

स्तेन एव स उच्यते (भ.गी. ३.१२),भगवद गीता में, "वह चोर है ।" अगर कोई ज़रूरत से ज्यादा लेता है, तो वह चोर है । यज्ञार्थात कर्मणो अन्यत्र लोक अयम कर्म-बन्धन: (भ.गी. ३.९) । कृष्ण की संतुष्टि के लिए है... यज्ञ का मतलब है कृष्ण | कृष्ण का दूसरा नाम यज्ञेश्वर है । तो तुम कृष्ण के लिए काम करते हो, तुम कृष्ण प्रसाद कृष्ण लेते हो । हम यहाँ यही सिखा रहे हैं । इस मंदिर में, हम रह रहे हैं अमेरिकि, भारतीय, अंग्रेज, कनैडियन, अफ्रीकी, दुनिया के विभिन्न भागों के लोग । तुम्हें पता है । इसी मंदिर में नहीं , पूरी दुनिया में । (तोड़)

कृष्ण सर्वोच्च भोगी हैं और कृष्ण हर किसी केसर्वोच्च दोस्त हैं । जब हम यह भूल जाते हैं, तो हम इस भौतिक दुनिया में अाते हैं जीवन के लिए संघर्ष और एक दूसरे के साथ लड़ने के लिए । यह भौतिक जीवन है । तो तुम्हें नहीं मिल सकता है... राजनेता, राजदूत, तत्वज्ञानी, उन्होंने इतनी कोशिश की है, लेकिन वास्तव में कुछ भी सार्थक नहीं हुअा है । संयुक्त राष्ट्र की तरह । यह दूसरे महा युद्ध के बाद आयोजित किया गया था, और वे चाहते थ कि शांति से हम सब कुछ व्यवस्थित करें । लेकिन ऐसी कोई चीज़ नहीं है । लड़ाई जारी है, पाकिस्तान और भारत, वियतनाम और अमेरिका के बीच, और यह और वह । यह प्रक्रिया नहीं है । प्रक्रिया कृष्ण भावनामृत है ।

हर किसी को यह तथ्य समझना होगा, हम मालिक नहीं हैं । मालिक कृष्ण हैं । यह तथ्य है । जैसे अमेरिका । दो सौ साल पहले अमेरिका, यूरोपीय देशांतर गमन करने वाले, वे मालिक नहीं थे, कोई अौर मालिक था । उनसे पहले, कोई अौर मालिक था या यह खाली ज़मीन थी । वास्तविक मालिक कृष्ण हैं । लेकिन कृत्रिम रूप से तुम दावा कर रहे हो, "यह मेरी संपत्ति है ।" जनस्य मोहो अयम अहम ममेति (श्रीमद भागवतम ५.५.८) । इसे माया कहा जाता है ।