HI/BG 3.1

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 1

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शब्दार्थ

अर्जुन: उवाच—अर्जुन ने कहा; ज्यायसी—श्रेष्ठ; चेत्—यदि; कर्मण:—सकाम कर्म की अपेक्षा; ते—तुम्हारे द्वारा; मता—मानी जाती है; बुद्धि:—बुद्धि; जनार्दन—हे कृष्ण; तत्—अत:; किम्—क्यों, फिर; कर्मणि—कर्म में; घोरे—भयंकर, ङ्क्षहसात्मक; माम्—मुझको; नियोजयसि—नियुक्त करते हो; केशव—हे कृष्ण।

अनुवाद

अर्जुन ने कहा – हे जनार्दन, हे केशव! यदि आप बुद्धि को सकाम कर्म से श्रेष्ठ समझते हैं तो फिर आप मुझे इस घोर युद्ध में क्यों लगाना चाहते हैं?

तात्पर्य

श्रीभगवान् कृष्ण ने पिछले अध्याय में अपने घनिष्ट मित्र अर्जुन को संसार के शोक-सागर से उबारने के उद्देश्य से आत्मा के स्वरूप का विशद् वर्णन किया है और आत्म-साक्षात्कार के जिस मार्ग की संस्तुति की है वह है – बुद्धियोग या कृष्णभावनामृत | कभी-कभी कृष्णभावनामृत को भूल से जड़ता समझ लिया जाता है और ऐसी भ्रान्त धारणा वाला मनुष्य भगवान् कृष्ण के नाम-जप द्वारा पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होने के लिए प्रायः एकान्त स्थान में चला जाता है | किन्तु कृष्णभावनामृत-दर्शन में प्रशिक्षित हुए बिना एकान्त स्थान में कृष्ण नाम-जप करना ठीक नहीं | इससे अबोध जनता से केवल सस्ती प्रशंसा प्राप्त हो सकेगी | अर्जुन को भी कृष्णभावनामृत या बुद्धियोग ऐसा लगा मानो वह सक्रिय जीवन से संन्यास लेकर एकान्त स्थान में तपस्या का अभ्यास हो | दूसरे शब्दों में, वह कृष्णभावनामृत को बहाना बनाकर चातुरीपूर्वक युद्ध से जी छुड़ाना चाहता था | किन्तु एकनिष्ठ शिष्य के नाते उसने यह बात अपने गुरु के समक्ष रखी और कृष्ण से सर्वोत्तम कार्य-विधि के विषय में प्रश्न किया | उत्तर में भगवान् ने तृतीय अध्याय में कर्मयोग अर्थात् कृष्णभावनाभावित कर्म की विस्तृत व्याख्या दी |