HI/BG 3.2

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 2

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥२॥

शब्दार्थ

व्यामिश्रेण—अनेकार्थक; इव—मानो; वाक्येन—शब्दों से; बुद्धिम्—बुद्धि; मोहयसि—मोह रहे हो; इव—मानो; मे—मेरी; तत्—अत:; एकम्—एकमात्र; वद—कहिये; निश्चित्य—निश्चय करके; येन—जिससे; श्रेय:—वास्तविक लाभ; अहम्—मैं; आह्रश्वनुयाम्—पा सकूँ।

अनुवाद

आपके व्यामिश्रित (अनेकार्थक) उपदेशों से मेरी बुद्धि मोहित हो गई है | अतः कृपा करके निश्चयपूर्वक मुझे बतायें कि इनमें से मेरे लिए सर्वाधिक श्रेयस्कर क्या होगा?

तात्पर्य

पिछले अध्याय में, भगवद्गीता के उपक्रम के रूप मे सांख्ययोग, बुद्धियोग, बुद्धि द्वारा इन्द्रियनिग्रह, निष्काम कर्मयोग तथा नवदीक्षित की स्थिति जैसे विभिन्न मार्गों का वर्णन किया गया है | किन्तु उसमें तारतम्य नहीं था | कर्म करने तथा समझने के लिए मार्ग की अधिक व्यवस्थित रूपरेखा की आवश्यकता होगी | अतः अर्जुन इन भ्रामक विषयों को स्पष्ट कर लेना चाहता था, जिससे सामान्य मनुष्य बिना किसी भ्रम के उन्हें स्वीकार कर सके | यद्यपि श्रीकृष्ण वाक्चातुरी से अर्जुन को चकराना नहीं चाहते थे, किन्तु अर्जुन यह नहीं समझ सका कि कृष्णभावनामृत क्या है – जड़ता है या कि सक्रीय सेवा | दूसरे शब्दों में, अपने प्रश्नों से वह उन समस्त शिष्यों के लिए जो भगवद्गीता के रहस्य को समझना चाहते थे, कृष्णभावनामृत का मार्ग प्रशस्त कर रहा है |