HI/Prabhupada 0839 - जब हम बच्चे हैं और प्रदूषित नहीं हैं, हमें प्रशिक्षित किया जाना चाहिए भागवत धर्म मे

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751203 - Lecture SB 07.06.02 - Vrndavana

प्रभुपाद: तो एक होने कोई सवाल ही नहीं है। यह एक होना गलत है। अलग अस्तित्व होना ही चाहिए। तब संतोष है। एक दोस्त अपने दोस्त से प्यार करता है, और दूसरा दोस्त भी प्यार करता है । यही संतोष है, यह नहीं कि "तुम मेरे दोस्त हो और मैं तुम्हारा दोस्त हूँ। हम एक हो जाते हैं।" यह संभव नहीं है, और यह संतोष नहीं है। इसलिए, जो मायावदी हैं, भगवान के साथ एक बनना, वे जानते नहीं हैैं कि संतोष वास्तव में क्या है। कृत्रिम रूप से वे एक बनने के लिए प्रयास करते हैं । यह संतोष नहीं है। ये अन्ये अरविन्दाक्ष विमुक्त मानिनस त्वयि अस्त भावाद अविशुद्ध बुद्धय: (श्री भ १०।२।३२) मायावादी सोचते हैं कि "अब मैंने ब्रह्मण का बोध कर लिया है । मैं ब्रह्मण हूँ, आत्मा । तो मैं परमात्मा के साथ विलीन हो जाऊँगा जैसे ही यह शरीर समाप्त हो जाएगा ।" गताकाश पोताकाश, यह कहा जाता है। लेकिन यह असली संतुष्टि नहीं है। ये अन्ये अरविन्दाक्ष विमुक्त मानिनस । वे सोचते हैं कि "अब मैं मुक्त हूं। मैं भगवान के साथ एक हूँ।" लेकिन असल में वह कृत्रिम रूप से सोच रहा है। ये अन्ये अरविन्दाक्ष विमुक्त मानिनस त्वयि अस्त भावाद अविशुद्ध बुद्धय: क्योंकि उन्हे ज्ञान नहीं है कि कैसे पूरी तरह से संतुष्टि मिलती है इसलिए वे अविशुद्ध बुद्धय: हैं । उनकी बुद्धि अभी तक शुद्ध नहीं है। यह, अशुद्ध है फिर से भौतिक । अारुह्य कृच्छरेण परम् पदम तत: पतंति अधो अनादृत युश्मद अंघ्रय: (श्री भ १०।२।३२)

इसलिए तुम पाअोगे कि मायावादी संन्यासि, वे मानवता की सेवा करने के लिए फिर से आते हैं, देश, समाज, जानवरों की सेवा के लिए । यह मायावाद है । अविशुद्धय: बुद्धय: वह भृत्य और भोक्ता के स्थान पर नहीं रह सका । भगवान भोक्ता हैं अौर हम सेवक हैं । क्योंकि हम वह स्थान नहीं पा सके, इसलिए..... मेरी स्थिति है सेवा करने की । मैं श्री कृष्ण की सेवा करना पसंद नहीं करता । मैं उनके साथ एक बनना चाहता था । इसलिए मेरी स्थिति स्पष्ट नहीं है। इसलिए, बजाय श्री कृष्ण की सेवा करने के, मैं मानवता की सेवा करने के लिए फिर से वापस अाता हूँ समुदाय, राष्ट्र, और इत्यादि । सेवा को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन क्योंकि, अविशुद्धय: बुद्धय: ठीक से प्रशिक्षन न होने के कारण, अभी भी दूषित मन, बजाय श्री कृष्ण की सेवा के क्योंकि वह सेवा के लिए उत्कंठित है, लेकिन निराकार, निरविशेष होने के कारण, श्री कृष्ण के बिना, तो वह सेवा कहां करेंगा ? सेवा भावना, यह कैसे उपयोग किया जाएगा? इसलिए वे फिर से वापस आते हैं ... समाज, देश पहले वे त्यागते हैं ब्रह्म सत्यम जगन मिथ्या: । "ये सब मिथ्या हैं ।" लेकिन वे जानते नहीं है कि वास्तव में सेवा प्रदान करना असली आनंदमय जीवन है । वे नहीं जानते हैं । अारुह्य कृच्छरेण परम् पदम तत: पतंति अध: (श्री भ १०।२।३२) इसलिए वे गिरते हैं, फिर से, भौतिक गतिविधियॉ ।

इसलिए ये बातें होती हैं जीवन की स्पष्ट धारणा न होने के कारण । यह प्रहलाद महाराज हैं । इसलिए जीवन की स्पष्ट धारणा भगवान की सेवा कैसे करनी है, श्री कृष्ण, यह भागवत-धर्म कहा जाता है यह बच्चों को सिखाया जाना चाहिए। अन्यथा जब वह बकवास सेवा में लगा है, यह बहुत मुश्किल हो जाएगा उसे झूठी सेवा से खींच कर और फिर से श्री कृष्ण की सेवा में लगाना । इसलिए जब हम बच्च हैं - हम प्रदूषित नहीं होते हैं -हमें प्रशिक्षित किया जाना चाहिए भागवत-धर्म में । यही प्रहलाद महाराज का विषय है। कौमार अाचरेत प्राज्ञो धरमान भागवतान इह दुर्लभम मानुष (श्री ब ७।६।१) । हम सेवा कर रहे हैं। पक्षि सेवा कर रहे हैं। उनके छोटे बच्चे हैं । वे भोजन उठा रहे हैं और बहुत कठिन काम कर रहे हैं और मुंह में ला रहे हैं और छोटे बच्चे वे कहते हैं "माँ, माँ, मुझे दो, मुझे दो" और खाना खाते हैं । सेवा उपलब्ध है। सेवा उपलब्ध है। मत सोचो कि कोई भी सेवा के बिना है । हर कोई सेवा कर रहा है ... एक आदमी कड़ी मेहनत कर रहा है । क्यूँ? पत्नी को, बच्चों को, परिवार को सेवा देने के लिए। सेवा चल रही है, लेकिन उसे पता नहीं है कि सेवा कहॉ करनी है । इसलिए श्री कृष्ण ने कहा, सर्व-धर्मन परित्यज्य माम एकम् शरणम् (भ गी १८।६६) "मुझे सेवा दो । तुम खुश रहोगे ।" यही तत्व ज्ञान है भागवत-धर्म ।

बहुत बहुत धन्यवाद ।

भक्त: जय श्रील प्रभुपाद ।