HI/BG 9.15
श्लोक 15
- ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते ।
- एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥१५॥
शब्दार्थ
ज्ञान-यज्ञेन—ज्ञान के अनुशीलन द्वारा; च—भी; अपि—निश्चय ही; अन्ये—अन्य लोग; यजन्त:—यज्ञ करते हुए; माम्—मुझको; उपासते—पूजते हैं; एकत्वेन—एकान्त भाव से; पृथक्त्वेन—द्वैतभाव से; बहुधा—अनेक प्रकार से; विश्वत:-मुखम्—विश्व रूप में।
अनुवाद
अन्य लोग जो ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यज्ञ में लगे रहते हैं, वे भगवान् की पूजा उनके अद्वय रूप में, विविध रूपों में तथा विश्र्व रूप में करते हैं |
तात्पर्य
यह श्लोक पिछले श्लोकों का सारांश है | भगवान् अर्जुन को बताते हैं कि जो विशुद्ध कृष्णभावनामृत में लगे रहते हैं और कृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं जानते, वे महात्मा कहलाते हैं | तो भी कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो वास्तव में महात्मा पद को प्राप्त नहीं होते, किन्तु वे भी विभिन्न प्रकारों से कृष्ण की पूजा करते हैं | इनमें से कुछ का वर्णन आर्त, अर्थार्थी, ज्ञानी तथा जिज्ञासु के रूप में किया जा चुका है | किन्तु फिर भी कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो इनसे भी निम्न होते हैं | इन्हें तीन कोटियों में रखा जाता है – १) परमेश्र्वर तथा अपने को एक मानकर पूजा करने वाले, २) परमेश्र्वर के किसी मनोकल्पित रूप की पूजा करने वाले, ३) भगवान् के विश्र्व रूप की पूजा करने वाले | इनमें से सबसे अधम वे हैं जो अपने आपको अद्वैतवादी मानकर अपनी पूजा परमेश्र्वर के रूप में करते हैं और इन्हीं का प्राधान्य भी है | ऐसे लोग अपने को परमेश्र्वर मानते हैं और इस मानसिकता के कारण वे अपनी पूजा आप करते हैं | यह भी एक प्रकार की ईशपूजा है, क्योंकि के समझते हैं कि वे भौतिक पदार्थ न होकर आत्मा है | कम से कम, ऐसा भाव तो प्रधान रहता है | सामान्यतया निर्विशेषवादी इसी प्रकार से परमेश्र्वर को पूजते हैं | दूसरी कोटि के लोग वे हैं जो देवताओं के उपासक हैं, जो अपनी कल्पना से किसी भी स्वरूप को परमेश्र्वर का स्वरूप मान लेते हैं | तृतीय कोटि में वे लोग आते हैं जो इस ब्रह्माण्ड से परे कुछ भी नहीं सोच पाते | वे ब्रह्माण्ड को ही परम जीव या सत्ता मानकर उसकी उपासना करते हैं | यह ब्रह्माण्ड भी भगवान् का एक स्वरूप है |