HI/BG 9.16

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 16

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥१६॥

शब्दार्थ

अहम्—मैं; क्रतु:—वैदिक अनुष्ठान, कर्मकाण्ड; अहम्—मैं; यज्ञ:—स्मार्त यज्ञ; स्वधा—तर्पण; अहम्—मैं; अहम्—मैं; औषधम्—जड़ीबूटी; मन्त्र:—दिव्य ध्वनि; अहम्—मैं; अहम्—मैं; एव—निश्चय ही; आज्यम्—घृत; अहम्—मैं; अग्नि:—अग्नि; अहम्—मैं; हुतम्—आहुति, भेंट।

अनुवाद

किन्तु मैं ही कर्मकाण्ड, मैं ही यज्ञ, पितरों को दिया जाने वाला अर्पण, औषधि, दिव्य ध्वनि (मन्त्र), घी, अग्नि तथा आहुति हूँ |

तात्पर्य

ज्योतिष्टोम नामक वैदिक यज्ञ भी कृष्ण है | स्मृति में वर्णित महायज्ञ भी वही हैं | पितृलोक को अर्पित तर्पण या पितृलोक को प्रसन्न करने के लिए किया गया यज्ञ, जिसे घृत रूप में एक प्रकार की औषधि माना जाता है, वह भी कृष्ण ही है | इस सम्बन्ध में जिन मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है, वे भी कृष्ण हैं | यज्ञों में आहुति के लिए प्रयुक्त होने वाली दुग्ध से बनी अनेक वस्तुएँ भी कृष्ण हैं | अग्नि भी कृष्ण है, क्योंकि यह अग्नि पाँच तत्त्वों में से एक है, अतः वह कृष्ण की भिन्ना शक्ति कही जाती है | दूसरे शब्दों में, वेदों में कर्मकाण्ड भाग में प्रतिपादित वैदिक यज्ञ भी पूर्णरूप से कृष्ण हैं | अथवा यह कह सकते है कि जो लोग कृष्ण की भक्ति में लगे हुए हैं उनके लिए यह समझना चाहिए कि उन्होंने सारे वेदविहित यज्ञ सम्पन्न कर लिए हैं |