HI/Prabhupada 0945 - भागवत-धर्म का मतलब है भक्त और भगवान के बीच का संबंध

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720831 - Lecture - New Vrindaban, USA

मैं अपको बहुत बहुत धन्यवाद देता हूँ कृपा करके भाग लेने के लिए इस कृष्ण भावनामृ आंदोलन में । जैसे की पहले ही श्रीमान कीर्तनानंद महाराज नें कहा, कि यह भागवत-धर्म भगवान द्वारा कहा गया था । प्रभु श्री कृष्ण, भग-वान । यह एक संस्कृत शब्द है । भग मतलब भाग्य, और वान मतलब जिसके पास है । ये दो शब्द शब्द संयुक्त होकर भगवान बनते हैं, या परम भाग्यशाली । हम अपने भाग्य की गणना करते हैं अगर कोई बहुत अमीर है, या कोई बहुत बलवान, अगर कोई बहुत बुद्धिमान है, या कोई बहुत सुंदर है, अगर कोई जीवन के सन्यास अाश्रम में है । इस तरह से, छह एश्वर्य हैं, और ये एश्वर्य, जब किसी के पास परिपूर्णता में हो, किसी भी प्रतिद्वंद्विता के बिना, वह भगवान कहलाता है । सबसे अमीर, सबसे बुद्धिमान, सबसे सुंदर, सबसे प्रसिद्ध, सबसे त्यागी- इस तरह से, भगवान । और भागवत शब्द भी भाग से आता है । भागा से, जब यह एक कृदंत उद्देश्य के लिए इस्तेमाल किया जाता है, वह भग हो जाता है । तो भागवत । एक ही बात, वान, यह शब्द वात शब्द से अाता है, वात-शब्द । भागवत । संस्कृत में, हर शब्द व्याकरण की दृष्टि से बहुत व्यवस्थित ढंग से है । हर शब्द । इसलिए यह संस्कृत भाषा कहा जाता है । संस्कृत का मतलब है सुधारा गया । हम अपने मन से निर्माण नहीं कर सकते हैं; यह व्याकरण के नियमों और विनियमों के अनुसार सख्ती से होना चाहिए ।

तो भागवत-धर्म मतलब भक्तों और भगवान के बीच का रिश्ता, प्रभु भगवान हैं और भक्त भागवत है, या भगवान के साथ रिश्ते में । तो हर कोई भगवान से संबंधित है, जैसे पिता और बेटा हमेशा संबंधित हैं । वहसंबंध किसी भी स्तर पर नहीं तोड़ा जा सकता है, लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है बेटा, अपनी आजादी के तहत, वह अपने घर से बाहर चला जाता है और पिता के साथ स्नेही संबंध को भूल जाता है । तुम्हारे देश में, यह बहुत ही असाधारण बात नहीं है । इतने सारे बेटे पिता के स्नेही घर से बाहर चले जाते हैं । यह बहुत साधारण अनुभव है । तो हर किसी को आजादी है । इसी तरह, हम सभी भगवान के पुत्र हैं, लेकिन हम, स्वतंत्र भी हैं । पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं, लेकिन स्वतंत्र । हममे स्वतंत्र होने की प्रवृत्ति है। क्योंकि भगवान पूरी तरह से स्वतंत्र हैं, और हम भगवान से जन्मे हैं, इसलिए, हममे स्वतंत्रता की गुणवत्ता है । हालांकि हम भगवान की तरह पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं हो सकते हैं लेकिन प्रवृत्ति तो है कि "मैं स्वतंत्र हो जाऊँगा ।" तो जीव, हम-हम भगवान के अंशस्वरूप हैं - भगवान - जब हम भगवान से स्वतंत्र रूप में जीना चाहते हैं, यह हमारी बद्ध अवस्था है ।