HI/Prabhupada 0398 - श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु तात्पर्य
Purport to Sri Krsna Caitanya Prabhu -- Los Angeles, January 11, 1969
श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु दोया कोरो मोरे, तोमा बिना के दयालु जगत-मायारे । यह नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा रचित गीत है । वे भगवान चैतन्य से प्रार्थना कर रहे हैं, "मेरे प्रिय प्रभु, कृपया मुझ पर दया करें, क्योंकि प्रभु अापसे अधिक दयालु और कौन हो सकता है इन तीन लोकों में ? दरअसल, यह तथ्य है । नरोत्तम दास ठाकुर ही नहीं, लेकिन रूप गोस्वामी भी, उन्होंने भी भगवान चैतन्य से प्रार्थना कि, जब दोनों प्रयाग में मिले, इलाहाबाद, भगवान चैतन्य और रूप गोस्वामी की पहली भेंट प्रयाग में । उस समय, श्रील रूप गोस्वामी नें भी कहा, "मेरे प्रिय प्रभु, आप सभी अवतारों में सबसे उदार हैं । क्योंकि आप कृष्ण-प्रेम का, कृष्ण भावनामृत का, वितरण कर रहे हैं । " दूसरे शब्दों में, जब कृष्ण व्यक्तिगत रूप से उपस्थित थे, उन्होंने हमसे केवल आत्मसमर्पण करने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने इतनी आसानी से स्वयं को वितरित नहीं किया । उन्होंने शर्त रखी कि, "सबसे पहले तुम आत्मसमर्पण करो ।" लेकिन यहाँ, इस अवतार में, भगवान चैतन्य, हालांकि वे स्वयं कृष्ण हैं, वे कोई शर्त नहीं रखते हैं । वे केवल वितरित करते हैं, "कृष्ण-प्रेम को लो ।"
इसलिए भगवान चैतन्य सबसे उदार अवतार के रूप में माने जाते हैं, और नरोत्तम दास ठाकुर कहते हैं कि "कृपया मुझ पर दया करें । आप इतने उदार हैं क्योंकि अापने इस युग की पतित आत्माओं को देखा है, और आप उन पर बहुत ज्यादा दयालु हैं । लेकिन आपको यह भी पता होना चाहिए कि मैं सबसे पतित हूँ । कोई भी मुझ से अधिक पतित नहीं है ।" पतित-पावन-हेतु तव अवतार । "आपका अवतार केवल बद्ध जीव आत्माओं, पतीत आत्माओं को पुनः वापस ले जाने के लिए हुआ है । लेकिन मैं आपको भरोसा दिलाता हूँ, आपको मुझ से अधिक पतित नहीं मिलेगा । इसलिए मेरा अनुरोध पहले है ।" फिर वे भगवान नित्यानंद से प्रार्थना करते हैं । वे कहते हैं, हा हा प्रभु नित्यानंद, प्रेमानन्द सुखी । "मेरे प्रिय प्रभु नित्यानंद, आप हमेशा बहुत आनंदपूर्ण दिखाई देते हैं, आध्यात्मिक परमानंद में, अौर अाप हमेशा प्रसन्न दिखते हैं । इसलिए मैं अापके पास आया हूँ क्योंकि मैं सबसे दुखी हूँ । तो अगर आप कृपा कर मुझ पर अपनी दृष्टि डालें, तो मैं भी प्रसन्न हो सकता हूँ ।"
फिर वे अद्वैत प्रभु से प्रार्थना करते हैं: हा हा प्रभु सीता-पति अद्वैत गोसाई । अद्वैत प्रभु की पत्नी का नाम सीता था । इसलिए उन्हें कभी-कभी सीता-पति के रूप में संबोधित किया जाता है । तो, "मेरे प्रिय अद्वैत प्रभु, सीता देवी के पति, अाप भी मुझ पर कृपा करें, क्योंकि अगर आप मुझ पर कृपा करते हैं, तो स्वाभाविक रूप से भगवान चैतन्य और नित्यानंद भी मुझ पर कृपा करेंगे ।" वास्तव में कारण यह है कि,अद्वैत प्रभु ने भगवान चैतन्य को अवतरित होने के लिए आमंत्रित किया था ।
जब अद्वैत प्रभु नें पतित आत्माओं को देखा, कि वे सब केवल इन्द्रिय संतुष्टि में लगे हुए हैं बिना कृष्णभावनामृत को समझे, उन्हें इन पतीत आत्माओं पर बहुत ज्यादा दया अाई, और उन्होंने महसूस किया कि वे असमर्थ हैं इन सभी पतीत आत्माओं का उद्धार करने में । उन्होंने इसलिए भगवान कृष्ण से प्रार्थना कि, "अगर आप स्वयं अाएँ । आपके व्यक्तिगत उपस्थिति के बिना, इन पतित आत्माओं का उद्धार करना संभव नहीं है ।" तो उनके निमंत्रण पर भगवान चैतन्य अवतरित हुए । " स्वाभाविक रूप से ..."
नरोत्तम दास ठाकुर प्रार्थना करते हैं, अद्वैत प्रभु को की, "अगर आप मुझ पर कृपा करते हैं, स्वाभाविक रूप से भगवान चैतन्य और नित्यानंद भी मुझ पर कृपा करेंगे ।" फिर वे गोस्वामीयों से प्रार्थना करते हैं, हा हा स्वरूप, सनातन, रूप, रघुनाथ । "मेरे प्रिय गोस्वामी प्रभु," स्वरूप । स्वरूप दामोदर भगवान चैतन्य के निजी सचिव थे । वे हमेशा चैतन्य महाप्रभु के साथ रहते थे, और वे जो भी चाहते थे, वे तुरंत उसकी व्यवस्था करते थे । दो निजी सेवक, स्वरूप दामोदर और गोविंद, वे लगातार भगवान चैतन्य के साथ रहते थे, हमेशा ।
तो नरोत्तम दास ठाकुर स्वरूप दामोदर से भी प्रार्थना कर रहे हैं । और फिर गोस्वामी । भगवान चैतन्य के अगले शिष्य यह छह गोस्वामी थे । श्री रूप, श्री सनातन, श्री भट्ट रघुनाथ, श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी, श्री जीव गोस्वामी और श्री रघुनाथ दास गोस्वामी । इन छह गोस्वामियों को सीधा भगवान चैतन्य द्वारा निर्देश मिला था, कृष्णभावनामृत के इस आंदोलन का प्रसार करने के लिए । नरोत्तम दास ठाकुर उनकी दया के लिए भी प्रार्थना कर रहे हैं । और छह गोस्वामियों के बाद, अगले आचार्य श्रीनिवास आचार्य थे । तो वे श्रीनिवास आचार्य से भी प्रार्थना कर रहे हैं ।
दरअसल, नरोत्तम दास ठाकुर, श्रीनिवास आचार्य के बाद परम्परा में उत्तराधिकार थे । या लगभग वे समकालीन थे । और उनके व्यक्तिगत मित्र रामचंद्र, रामचंद्र चक्रवर्ती थे । तो वे प्रार्थना कर रहे हैं, "मैं हमेशा रामचंद्र का संग चाहता हूँ ।" भक्तों का संग । पूरी प्रक्रिया यह है कि हमें हमेशा वरिष्ठ अाचार्यों के कृपा की प्रार्थना करनी चाहिए । और हमें शुद्ध भक्त के संग में रहना चाहिए । फिर कृष्णभावनामृत में प्रगति करने में, भगवान चैतन्य और भगवान कृष्ण की दया प्राप्त करने में, हमें आसानी होगी । यही सार है नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा गाए हुए इस गीत का ।