Category:HI-Quotes - 1969
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- HI/Prabhupada 0061 - यह शरीर त्वचा, हड्डी, रक्त का एक थैला है
- HI/Prabhupada 0083 - हरे कृष्ण का जप करो तब सब कुछ आ जाएगा
- HI/Prabhupada 0097 - मैं बस एक डाक चपरासी हूँ
- HI/Prabhupada 0116 - अपना बहुमूल्य जीवन बर्बाद मत करो
- HI/Prabhupada 0118 - प्रचार का काम बहुत मुश्किल बात नहीं है
- HI/Prabhupada 0123 - आत्मसमर्पण के लिए मजबूर, यह विशेष एहसान है
- HI/Prabhupada 0156 - मैं आपको वो सिखाने की कोशिश कर रहा हूँ, जिसे आप भूल चुके हैं
- HI/Prabhupada 0180 - हरे कृष्ण मंत्र, निस्संक्रामक है
- HI/Prabhupada 0188 - जीवन की सभी समस्याओं का अंतिम समाधान
- HI/Prabhupada 0225 - निराश मत हो,भ्रमित मत हो
- HI/Prabhupada 0348 - अगर पचास साल हम केवल हरे कृष्ण मंत्र का जाप करते हैं, वह पूर्ण होगा यकीनन
- HI/Prabhupada 0351 - तुम कुछ लिखो, उद्देश्य होना चाहिए परम की महिमा बस
- HI/Prabhupada 0358 - इस जीवन में ही हम एक समाधान निकालेंगे । और नहीं । अब अौर अाना नहीं होगा
- HI/Prabhupada 0365 - इसे (इस्कॉन) एक मल समाज मत बनाओ । इसे एक शहद समाज बनाओ
- HI/Prabhupada 0376 - भजहू रे मन का तात्पर्य
- HI/Prabhupada 0383 - गौर पाहु तात्पर्य
- HI/Prabhupada 0384 - गौरंगा बोलिते होबे तात्पर्य
- HI/Prabhupada 0386 - गौरंगेर दूति पदा तात्पर्य भाग १
- HI/Prabhupada 0387 - गौरंगेर दूति पदा तात्पर्य भाग २
- HI/Prabhupada 0389 - हरि हरि बिफले तात्पर्य
- HI/Prabhupada 0394 - निताई-पद -कमल तात्पर्य
- HI/Prabhupada 0395 - परम कोरुणा तात्पर्य
- HI/Prabhupada 0398 - श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु तात्पर्य
- HI/Prabhupada 0547 - मैंने यह सोचा था कि "मैं सबसे पहले बहुत अमीर आदमी बनूँगा, फिर मैं प्रचार करूँगा
- HI/Prabhupada 0548 - अगर तुम हरि के लिए सब कुछ त्यागने के स्तर पर अाते हो
- HI/Prabhupada 0604 - अगर मैंने जारी रखा, कृष्ण दिव्य मंच पर मुझे रखने की कृपा करेंगे
- HI/Prabhupada 0641 - एक भक्त की कोई मांग नहीं होती है
- HI/Prabhupada 0642 - यह कृष्ण भावनामृत का अभ्यास है भौतिक शरीर को आध्यात्मिक शरीर में बदलना
- HI/Prabhupada 0643 - जो कृष्ण भावनामृत में उन्नत हैं, उन्हें कृष्ण के लिए काम करना है
- HI/Prabhupada 0644 - सब कुछ है कृष्ण भावनामृत में
- HI/Prabhupada 0645 - जिसने यह आत्मसाक्षातकार कर लिया है, वह हर जगह वृन्दावन में है
- HI/Prabhupada 0646 - योग प्रणाली यह नहीं है कि तुम बकवास करते रहो
- HI/Prabhupada 0647 - योग का मतलब है परम के साथ संबंध
- HI/Prabhupada 0648 - स्वभाव से हम जीव हैं, हमें कुछ करना ही होगा
- HI/Prabhupada 0649 -मन चालक है । शरीर रथ या गाडी है
- HI/Prabhupada 0650 - कृष्ण भावनामृत के पूर्ण योग से इस उलझन से बहार निकलो
- HI/Prabhupada 0651 - पूरी योग प्रणाली का मतलब है मन को हमारा दोस्त बनाना
- HI/Prabhupada 0652 - यह पद्म पुराण सत्व गुण में रहने वाले व्यक्तियों के लिए है
- HI/Prabhupada 0653 - अगर मेरे पिता एक रूप नहीं है, तो मुझे यह रूप कहाँ से प्राप्त हुआ
- HI/Prabhupada 0654 - तुम अपने प्रयास से भगवान को नहीं देख सकते हो क्योंकि तुम्हारी इन्द्रियॉ अपूर्ण हैं
- HI/Prabhupada 0655 - धर्म का उद्देश्य है भगवान को समझना । और भगवान से प्रेम करना सीखना
- HI/Prabhupada 0656 - जो लोग भक्त हैं, वे किसी से नफरत नहीं करते हैं
- HI/Prabhupada 0657 - मंदिर इस युग के लिए एक मात्र एकांत जगह है
- HI/Prabhupada 0658 - श्रीमद भागवतम सर्वोच्च ज्ञानयोग है और भक्ति योग है, संयुक्त
- HI/Prabhupada 0659 - बस विष्णु के बारे में सुनना और कीर्तन करना
- HI/Prabhupada 0660 - केवल यौन जीवन को नियंत्रित करके तुम एक बहुत शक्तिशाली आदमी बन जाते हो
- HI/Prabhupada 0661 - कोई भी इन लड़कों की तुलना में बेहतर ध्यानी नहीं है
- HI/Prabhupada 0662 - वे चिंता से भरे हुए हैं क्योंकि उन्होंने अस्थायी को ग्रहण किया है
- HI/Prabhupada 0663 - कृष्ण के साथ अपना खोया संबंध पुनःस्थापित करो । यही योगाभ्यास है
- HI/Prabhupada 0664 - शून्य का तत्वज्ञान एक और भ्रम है । शून्य नहीं हो सकता
- HI/Prabhupada 0665 - कृष्ण ग्रह, गोलोक वृन्दावन, वह स्वत: प्रकाशित है
- HI/Prabhupada 0666 अगर सूर्य तुम्हारे कमरे में प्रवेश कर सकता है, क्या कृष्ण तुम्हारे में प्रवेश नहीं कर सकते
- HI/Prabhupada 0667 - पूरी अचेतना अायी है इस शरीर के कारण
- HI/Prabhupada 0668 - एक महीने में कम से कम दो अनिवार्य उपवास
- HI/Prabhupada 0669 - मन को केंद्रित करने का मतलब है कृष्ण में अपने मन को दृढ करना
- HI/Prabhupada 0670 - कृष्ण में अपने मन को दृढ करते हो, फिर भौतिक हिलना नहीं रहता
- HI/Prabhupada 0671 - आनंद का मतलब है दो, कृष्ण और तुम
- HI/Prabhupada 0672 - जब तुम कृष्ण भावनामृत में हो तो तुम्हारी पूर्णता की गारंटी है
- HI/Prabhupada 0673 - एक चिड़िया सागर को सूखने की कोशिश कर रही है
- HI/Prabhupada 0674 - इतना बुद्धिमान होना चाहिए कि अपने शरीर को चुस्त रखने के लिए कितना खाना आवश्यक है
- HI/Prabhupada 0675 - एक भक्त दया का सागर है । वह दया वितरित करना चाहता है
- HI/Prabhupada 0676 - मन द्वारा नियंत्रित किए जाने का मतलब है इंद्रियों के द्वारा नियंत्रित होना
- HI/Prabhupada 0677 - गोस्वामी एक वंशानुगत शीर्षक नहीं है । यह एक योग्यता है
- HI/Prabhupada 0678 - कृष्ण भावनाभावित व्यक्ति योग समाधि में हमेशा रहता है
- HI/Prabhupada 0679 - कृष्ण भावनामृत में कुछ भी किया गया, जानकरी में या अन्जाने में, उसका प्रभाव होगा ही
- HI/Prabhupada 0680 - हम सोच रहे हैं कि हम इस भूमि पर बैठे हैं, लेकिन वास्तव में हम कृष्ण पर बैठे हैं
- HI/Prabhupada 0681 - अगर तुम कृष्ण से प्रेम करते हो, तो तुम विश्व से प्रेम करते हो
- HI/Prabhupada 0682 - भगवान मेरे अाज्ञापालक नही हैं
- HI/Prabhupada 0683 - योगी जो विष्णु रूप में समाधि में है, और एक कृष्ण भावनाभावित व्यक्ति में, कोई अंतर नहीं है
- HI/Prabhupada 0684 - योगपद्धतिकी महत्वपूर्ण परीक्षा है अगर तुम विष्णुके रूप पर अपने मनको केंद्रित कर सकते हो
- HI/Prabhupada 0685 - भक्ति योग पद्धति त्वरित परिणाम, इसी जीवन में आत्म साक्षात्कार और मुक्ति
- HI/Prabhupada 0686 - झंझावात को रोक पाना कठिन होता है और उच्छृंखल मन को रोक पाना तो और भी कठिन है
- HI/Prabhupada 0687 - शून्य में अपने मन को केंद्रित करना, यह बहुत मुश्किल है
- HI/Prabhupada 0688 - माया पर धावा बोलना
- HI/Prabhupada 0689 - अगर तुम दिव्य संग करते हो, तो तुम्हारी चेतना दिव्य है
- HI/Prabhupada 0690 - भगवान शुद्ध हैं, और उनका धाम भी शुद्ध है
- HI/Prabhupada 0691 - जो हमारे समाज में दिक्षा लेना चाहता है, हम चार सिद्धांत रखते हैं
- HI/Prabhupada 0692 - भक्ति योग, योग सिद्धांतों का सर्वोच्च मंच है
- HI/Prabhupada 0693 - जब हम सेवा की बात करते हैं, कोई मकसद नहीं है । सेवा प्रेम है
- HI/Prabhupada 0694 - सेवा भाव में फिर से जाना होगा । यह एकदम सही इलाज है
- HI/Prabhupada 0695 - सस्ते में वे भगवान का चयन करते हैं । भगवान इतने सस्ते हो गए हैं 'मैं भगवान हूँ, तुम भगवान हो'
- HI/Prabhupada 0696 - भक्ति योग शुद्ध (मिलावट के बिना) भक्ति है
- HI/Prabhupada 0697 - आपकी सेवा में मुझे संलग्न करें, बस । यही मांग की जानी चाहिए
- HI/Prabhupada 0698 - इन्द्रियों की सेवा करने की बजाय, कृपया तुम राधा कृष्ण की सेवा करो, तो तुम खुश रहोगे
- HI/Prabhupada 0699 - प्रेमी भक्त, श्री कृष्ण से प्रेम करना चाहता है, अपने मूल रूप में
- HI/Prabhupada 0700 - सेवा मतलब तीन चीज़ें स्वामी, सेवक और सेवा
- HI/Prabhupada 0701 -अगर तुम स्नेह रखते हो आध्यात्मिक गुरु के लिए, इस जीवन में अपने कार्य को खत्म करना होगा
- HI/Prabhupada 0702 - मैं आत्मा हूँ, शाश्वत हूँ। अब मैं पदार्थों से दूषित हूँ, इसलिए मैं भुगत रहा हूँ
- HI/Prabhupada 0703 - अगर तुम श्री कृष्ण में अपने मन को स्थित करते हो तो यह समाधि है
- HI/Prabhupada 0704 - हरे कृष्ण मंत्र जपो और सुनने के लिए इस उपकरण (तुम्हारे कान) का उपयोग करो
- HI/Prabhupada 0705 - हम भगवद गीता में पाऍगे, भगवान का यह सबसे उत्कृष्ट विज्ञान
- HI/Prabhupada 0771 - एक भक्त, भौतिक आनंद और दिव्य आनंद में एक साथ समान रूप से रुचि नहीं रख सकता है
- HI/Prabhupada 0772 - वैदिक सभ्यता की पूरी योजना है लोगों को मुक्ति देना
- HI/Prabhupada 0805 - कृष्ण भावनाभावित में वे जानते हैं कि बंधन क्या है और मुक्ति क्या है