HI/Prabhupada 0544 - हम विशेष रूप से भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर के मिशन पर जोर देते हैं
प्रभुपाद: आज है हमारे पूर्ववर्ती आध्यात्मिक गुरु का शुभ दिन, ओम विष्णुपाद परमहंस परिव्रजाकाचार्य अश्टोत्तर-शट श्रीमद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद । श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर का मिशन ... उनके जीवन के अलावा, हम विशेष रूप से भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर के मिशन पर जोर देते हैं । यह जगह, मायापुर, पूर्व में मियापुर के रूप में जाना जाता था । ज्यादातर यह मुसलमानों का निवास है । किसी न किसी तरह से यह मायापुर से मियापुर बदल गया । फिर भी, लोग ज्यादा संदिग्ध हैं कि श्री चैतन्य महाप्रभु का जन्म स्थल कहॉ है । और भक्तिविनोद ठाकुर वास्तविक जगह पता लगाने के लिए शोध कर रहे थे । तो जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज के निर्देशन में, इस वर्तमान योगपीठ को श्री चैतन्य महाप्रभु का जन्म स्थल माना गया है तो शुरुआत में भक्तिविनोद ठाकुर इस जगह को भव्यता के साथ विकसित करना चाहते थे, श्री चैतन्य महाप्रभु के पवित्र नाम के उपयुक्त । तो उन्होंने मायापुर के विकास का यह आंदोलन शुरू किया । वे खत्म नहीं कर सके, तो यह भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर को सौंप दिया गया था । तो उनके प्रयास के तहत, उनके शिष्यों की सहायता से, यह जगह धीरे - धीरे विकसित हो गई है, और हमारा प्रयास भी इस जगह को विकसित करना है । इसलिए हमने इस मंदिर का नाम मायापुर चंद्रोदय रखा है । हम बहुत महत्वाकांक्षी हैं अच्छी तरह से इस जगह को विकसित करने के लिए, और सौभाग्य से हम अब विदेशी देशों के साथ जुड़े हुए हैं, विशेष रूप से अमेरिकियों के साथ । भक्तिविनोद ठाकुर की महान इच्छा थी, अमेरिकि यहाँ अाऍ, और इस जगह को विकसित करें, और वे भारतीयों के साथ जाप और नृत्य करें । तो उनका सपना अौर साथ ही चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणि,
- पृथविते अाछे यत नगरादि ग्रम
- सर्वत्र प्रचार हौबे मोर नाम
- ( चै भ अन्त्य खंड ४।१२६)
तो चैतन्य महाप्रभु की इच्छा थी कि सभी भारतीय भाग लें ।
- भारत भुमिते मनुष्य-जन्म हैल यार
- जन्म सार्थक करी कर पर-उपकार
- (चै च अादि ९।४१)
यह चैतन्य महाप्रभु का मिशन है, पर-उपकार । पर-उपकार का मतलब है दूसरों के लिए अच्छा करना । बेशक, मानव समाज में कई अलग अलग शाखाऍ हैं दूसरों के लिए अच्छा करने की....कल्याण समाज - - लेकिन अधिक या कम ... क्यों अधिक या कम? लगभग पूरी तरह से, वे सोचते हैं कि यह शरीर हमारी आत्मा, और शरीर के लिए कुछ अच्छा करना कल्याणकारी गतिविधि है । लेकिन वास्तव में यह कल्याणकारी गतिविधि नहीं है क्योंकि भगवद गीता में से हम बहुत स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं, अन्तवन्त इमे देह नित्यश्योक्त: शरीरिन: । यह शरीर अंतवत है । अन्त का मतलब है यह खत्म हो जाएगा । प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि उसका शरीर स्थायी नहीं है , यह खत्म हो जाएगा । कुछ भी भौतिक - भूत्वा भूत्वा प्रलियते (भ गी ८।१९) उसके जन्म की तारीख है, यह कुछ समय के लिए रहता है, और फिर यह नष्ट हो जाता है । तो आध्यात्मिक शिक्षा कि समझ शुरू होती है, "मैं यह शरीर नहीं हूं ।" यह आध्यात्मिक शिक्षा है । भगवद गीता में प्रथम शिक्षा अर्जुन को कृष्ण द्वारा दिए गया, यह है, कि हम यह शरीर नहीं हैं । क्योंकि अर्जुन शारीरिक मंच से बोल रहे थे, इसलिए कृष्ण नें उन्हें ड़ाटा, कि अशोच्यान अन्वशोचस त्वम प्रज्ञ-वादामश् च भाशशे (भ गी २।११) "अर्जुन, तुम एक बहुत पढे लिखे आदमी की तरह बात कर रहे हो, लेकिन तुम इस विषय पर विलाप कर रहे हो जिस पर कोई पढा लिखा आदमी अफसोस नहीं जताता है । " अशोच्यान अन्वशोचस त्वम । तो इस तरह की कल्याणकारी गतिविधि शरीर के विषय में, अस्पताल और कई अन्य चीजों की तरह, वे निस्संदेह अच्छे हैं, लेकिन अंतिम लक्ष्य आत्मा का हित देखना है । यही अंतिम लक्ष्य है । यही पूरी वैदिक शिक्षा है । और कृष्ण इस बात से शुरू होते हैं । देहिनो अस्मिन यथा देहे कौमारम यौवनम जरा (भ गी २।१३)