BH/Prabhupada 1064 - श्री भगवान सभ प्राणी का ह्रदय में निवास करीले: Difference between revisions
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परम ब्रह्म के , भगवद गीता के अध्याय में जहां जीव आ ईश्वर में भेद बतावल बा ..... क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ . इ क्षेत्रज्ञ के स्पष्ट कईल गईल बा कि भगवान क्षेत्रज्ञ हईं. या परम चेतना , आ जीव , प्राणी लोग , उहो लोग त चेतन ह . ओह में भेद बा कि प्राणी अपना देह का सीमा में चेतन बा , भगवान सब शरीर में चेतन बानीं . ईश्वर: सर्व भूतेषु हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति ([[Vanisource:BG 18.61|भ गी १८.६१]]) . | परम ब्रह्म के , भगवद गीता के अध्याय में जहां जीव आ ईश्वर में भेद बतावल बा ..... क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ . इ क्षेत्रज्ञ के स्पष्ट कईल गईल बा कि भगवान क्षेत्रज्ञ हईं. या परम चेतना , आ जीव , प्राणी लोग , उहो लोग त चेतन ह . ओह में भेद बा कि प्राणी अपना देह का सीमा में चेतन बा , भगवान सब शरीर में चेतन बानीं . ईश्वर: सर्व भूतेषु हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति ([[Vanisource:BG 18.61 (1972)|भ गी १८.६१]]) . | ||
भगवान हर प्राणी का ह्रदय में निवास करी ले , जेकरा चलते दिमाग काम करता, काम- जीव के कर सकता . भुलाए के ना चाहीं . परमात्मा या भगवान सभका ह्रदय में ईश्वर का रूप में रहीले , नियंता का रूप में आ उन्ही का निर्देश से जीव चलायमान रहेला . उ हांकत रहे लन . सर्वस्य चाहम् हृदि संनिविष्ट: ([[Vanisource:BG 15.15|भ गी १५.१५]]) . ह्रदय में रह के उ सभका के अपना इच्छा के अनुसार , निर्देश देत रहेलन , का करे के बा , ई जीव भूल जाला . पहिले त उ एक तरीका से काम करे के निर्णय लेला , आ तब उ अपना काम के क्रिया प्रतिक्रिया में उलझ जाला . लेकिन एक शरीर छोड़ के , जब उ दोसरा शरीर में प्रवेश करे ला .. जईसे हमनीं के वस्त्र बदल लिहिले , एक तरह के वस्त्र छोड़ के दोसर कपड़ा पहिर लिहनी ठीक ओही तरीका से , भगवद गीता में बतावल बा, वासांसि जीर्णानि यथा विहाय ([[Vanisource:BG 2.22|भ गी २.२२]]). जईसे एक आदमी आपन कपड़ा बदल लेबेला , वैसे ही जीव दोसर शरीर में चल जाला . आत्मा के शरीर बदलल , पिछला जनम के करम के प्रतिक्रिया आ खिंचाव से होला . ई सब काम प्राणी सात्विक भाव में करे , शुद्ध मन से करे , आ, कईसन काम करे के चाहीं , एह पर विचार कर के करे , तब कर्म के सब प्रतिफल से बचल जा सकता, अ ओकर फल बदल जाई . एही कारण से कर्म शाश्वत ना होला . आउर पांच चीज, इश्वर, प्रकृति, काल जीव आ कर्म — में से चार , कर्म छोड़ के सब शाश्वत ह , कर्म केवल शाश्वत ना होला . अब ब्रह्म , परम चेतन ईश्वर , आ परम ब्रह्म आ भगवान में भेद , आ प्राणी में एतने भेद बा . चेतना , प्राणी के चेतना आ भगवान के चेतना , दूनो चेतना ह, लेकिन एक चेतना दिव्य होला. दिव्य चेतना के ऊपर पदार्थ के संगती के असर ना होला . ई सोचल की चेतना के विकास पदार्थ के संयोग से होला, गलत ह गीता एह के अस्वीकार कर देला . उ हो ही नईखे सकत . कभी कभी चेतना पदार्थ का अन्दर से विकृत होके झांकेला , जईसे रंगीन शीशा का भीतर से रोशनी , ओही रंग के दिखाई दी . भगवान के चेतना पदार्थ से प्रभावित ना होला . परम भगवान श्री कृष्ण , घोषणा कईले बाडन , मय्याध्यक्षेण प्रकृति: ([[Vanisource:BG 9.10|भ गी ९.१०]]) . जब उनकर एह संसार में अवतार होला , उनका चेतना पर कवनो प्रभाव ना होला . अगर ओह पर संसार के प्रभाव पड जाईत त , भगवद गीता के दिव्य ज्ञान पर बोले खातिर अयोग्य हो जयीतन . दिव्य संसार के बारे में बोले खातिर चेतना भौतिक दोष से मुक्त चाहीं . एही से भगवान पर पदार्थ के कवनो दूषण ना रहे . हमनीं के चेतना , अभी एह हाल में , प्रदूषित बा . तब गीता के ठीक से देखीं त ओकर शिक्षा बा कि , हमनीं का अपना चेतना पर से भौतिक दूषण हटावे के चाहीं , शुद्ध चेतना से जवन कर्म होई, ओह से आनंद मिली . कर्म रुक नईखे सकत, हमनी के रोक नईखीं सकत. बस कर्म के शुद्धि के जरूरत बा . एही शुद्ध कर्म के कहल जाला भक्ति . भक्ति कर्म, साधारण काम जईसन ही दिखाई दी, , साधारण कर्म में अशुद्धि होला . भक्ति शुद्ध कर्म ह . केहू कह सकता की भगत त साधारण आदमी जईसन ही काम कर रहल बा , लेकिन उ आदमी भकोल कहाई , काहे कि ओकरा मालूम नईखे कि भक्त आ भगवान के काम कईसे होला , ओह कर्म में पदार्थ के अशुद्धि के कवनो जगहा ना होला , जहां प्रकृति के तीन गुण के अशुद्धि नईखे , केवल दिव्य कर्म कहल जाई. तब हमनी के ध्यान रहे कि , हमनी के चेतना पदार्थ के कारण दूषित हो गईल बा . | भगवान हर प्राणी का ह्रदय में निवास करी ले , जेकरा चलते दिमाग काम करता, काम- जीव के कर सकता . भुलाए के ना चाहीं . परमात्मा या भगवान सभका ह्रदय में ईश्वर का रूप में रहीले , नियंता का रूप में आ उन्ही का निर्देश से जीव चलायमान रहेला . उ हांकत रहे लन . सर्वस्य चाहम् हृदि संनिविष्ट: ([[Vanisource:BG 15.15 (1972)|भ गी १५.१५]]) . ह्रदय में रह के उ सभका के अपना इच्छा के अनुसार , निर्देश देत रहेलन , का करे के बा , ई जीव भूल जाला . पहिले त उ एक तरीका से काम करे के निर्णय लेला , आ तब उ अपना काम के क्रिया प्रतिक्रिया में उलझ जाला . लेकिन एक शरीर छोड़ के , जब उ दोसरा शरीर में प्रवेश करे ला .. जईसे हमनीं के वस्त्र बदल लिहिले , एक तरह के वस्त्र छोड़ के दोसर कपड़ा पहिर लिहनी ठीक ओही तरीका से , भगवद गीता में बतावल बा, वासांसि जीर्णानि यथा विहाय ([[Vanisource:BG 2.22 (1972)|भ गी २.२२]]). जईसे एक आदमी आपन कपड़ा बदल लेबेला , वैसे ही जीव दोसर शरीर में चल जाला . आत्मा के शरीर बदलल , पिछला जनम के करम के प्रतिक्रिया आ खिंचाव से होला . ई सब काम प्राणी सात्विक भाव में करे , शुद्ध मन से करे , आ, कईसन काम करे के चाहीं , एह पर विचार कर के करे , तब कर्म के सब प्रतिफल से बचल जा सकता, अ ओकर फल बदल जाई . एही कारण से कर्म शाश्वत ना होला . आउर पांच चीज, इश्वर, प्रकृति, काल जीव आ कर्म — में से चार , कर्म छोड़ के सब शाश्वत ह , कर्म केवल शाश्वत ना होला . अब ब्रह्म , परम चेतन ईश्वर , आ परम ब्रह्म आ भगवान में भेद , आ प्राणी में एतने भेद बा . चेतना , प्राणी के चेतना आ भगवान के चेतना , दूनो चेतना ह, लेकिन एक चेतना दिव्य होला. दिव्य चेतना के ऊपर पदार्थ के संगती के असर ना होला . ई सोचल की चेतना के विकास पदार्थ के संयोग से होला, गलत ह गीता एह के अस्वीकार कर देला . उ हो ही नईखे सकत . कभी कभी चेतना पदार्थ का अन्दर से विकृत होके झांकेला , जईसे रंगीन शीशा का भीतर से रोशनी , ओही रंग के दिखाई दी . भगवान के चेतना पदार्थ से प्रभावित ना होला . परम भगवान श्री कृष्ण , घोषणा कईले बाडन , मय्याध्यक्षेण प्रकृति: ([[Vanisource:BG 9.10 (1972)|भ गी ९.१०]]) . जब उनकर एह संसार में अवतार होला , उनका चेतना पर कवनो प्रभाव ना होला . अगर ओह पर संसार के प्रभाव पड जाईत त , भगवद गीता के दिव्य ज्ञान पर बोले खातिर अयोग्य हो जयीतन . दिव्य संसार के बारे में बोले खातिर चेतना भौतिक दोष से मुक्त चाहीं . एही से भगवान पर पदार्थ के कवनो दूषण ना रहे . हमनीं के चेतना , अभी एह हाल में , प्रदूषित बा . तब गीता के ठीक से देखीं त ओकर शिक्षा बा कि , हमनीं का अपना चेतना पर से भौतिक दूषण हटावे के चाहीं , शुद्ध चेतना से जवन कर्म होई, ओह से आनंद मिली . कर्म रुक नईखे सकत, हमनी के रोक नईखीं सकत. बस कर्म के शुद्धि के जरूरत बा . एही शुद्ध कर्म के कहल जाला भक्ति . भक्ति कर्म, साधारण काम जईसन ही दिखाई दी, , साधारण कर्म में अशुद्धि होला . भक्ति शुद्ध कर्म ह . केहू कह सकता की भगत त साधारण आदमी जईसन ही काम कर रहल बा , लेकिन उ आदमी भकोल कहाई , काहे कि ओकरा मालूम नईखे कि भक्त आ भगवान के काम कईसे होला , ओह कर्म में पदार्थ के अशुद्धि के कवनो जगहा ना होला , जहां प्रकृति के तीन गुण के अशुद्धि नईखे , केवल दिव्य कर्म कहल जाई. तब हमनी के ध्यान रहे कि , हमनी के चेतना पदार्थ के कारण दूषित हो गईल बा . | ||
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Latest revision as of 21:43, 8 June 2018
660219-20 - Lecture BG Introduction - New York
परम ब्रह्म के , भगवद गीता के अध्याय में जहां जीव आ ईश्वर में भेद बतावल बा ..... क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ . इ क्षेत्रज्ञ के स्पष्ट कईल गईल बा कि भगवान क्षेत्रज्ञ हईं. या परम चेतना , आ जीव , प्राणी लोग , उहो लोग त चेतन ह . ओह में भेद बा कि प्राणी अपना देह का सीमा में चेतन बा , भगवान सब शरीर में चेतन बानीं . ईश्वर: सर्व भूतेषु हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति (भ गी १८.६१) .
भगवान हर प्राणी का ह्रदय में निवास करी ले , जेकरा चलते दिमाग काम करता, काम- जीव के कर सकता . भुलाए के ना चाहीं . परमात्मा या भगवान सभका ह्रदय में ईश्वर का रूप में रहीले , नियंता का रूप में आ उन्ही का निर्देश से जीव चलायमान रहेला . उ हांकत रहे लन . सर्वस्य चाहम् हृदि संनिविष्ट: (भ गी १५.१५) . ह्रदय में रह के उ सभका के अपना इच्छा के अनुसार , निर्देश देत रहेलन , का करे के बा , ई जीव भूल जाला . पहिले त उ एक तरीका से काम करे के निर्णय लेला , आ तब उ अपना काम के क्रिया प्रतिक्रिया में उलझ जाला . लेकिन एक शरीर छोड़ के , जब उ दोसरा शरीर में प्रवेश करे ला .. जईसे हमनीं के वस्त्र बदल लिहिले , एक तरह के वस्त्र छोड़ के दोसर कपड़ा पहिर लिहनी ठीक ओही तरीका से , भगवद गीता में बतावल बा, वासांसि जीर्णानि यथा विहाय (भ गी २.२२). जईसे एक आदमी आपन कपड़ा बदल लेबेला , वैसे ही जीव दोसर शरीर में चल जाला . आत्मा के शरीर बदलल , पिछला जनम के करम के प्रतिक्रिया आ खिंचाव से होला . ई सब काम प्राणी सात्विक भाव में करे , शुद्ध मन से करे , आ, कईसन काम करे के चाहीं , एह पर विचार कर के करे , तब कर्म के सब प्रतिफल से बचल जा सकता, अ ओकर फल बदल जाई . एही कारण से कर्म शाश्वत ना होला . आउर पांच चीज, इश्वर, प्रकृति, काल जीव आ कर्म — में से चार , कर्म छोड़ के सब शाश्वत ह , कर्म केवल शाश्वत ना होला . अब ब्रह्म , परम चेतन ईश्वर , आ परम ब्रह्म आ भगवान में भेद , आ प्राणी में एतने भेद बा . चेतना , प्राणी के चेतना आ भगवान के चेतना , दूनो चेतना ह, लेकिन एक चेतना दिव्य होला. दिव्य चेतना के ऊपर पदार्थ के संगती के असर ना होला . ई सोचल की चेतना के विकास पदार्थ के संयोग से होला, गलत ह गीता एह के अस्वीकार कर देला . उ हो ही नईखे सकत . कभी कभी चेतना पदार्थ का अन्दर से विकृत होके झांकेला , जईसे रंगीन शीशा का भीतर से रोशनी , ओही रंग के दिखाई दी . भगवान के चेतना पदार्थ से प्रभावित ना होला . परम भगवान श्री कृष्ण , घोषणा कईले बाडन , मय्याध्यक्षेण प्रकृति: (भ गी ९.१०) . जब उनकर एह संसार में अवतार होला , उनका चेतना पर कवनो प्रभाव ना होला . अगर ओह पर संसार के प्रभाव पड जाईत त , भगवद गीता के दिव्य ज्ञान पर बोले खातिर अयोग्य हो जयीतन . दिव्य संसार के बारे में बोले खातिर चेतना भौतिक दोष से मुक्त चाहीं . एही से भगवान पर पदार्थ के कवनो दूषण ना रहे . हमनीं के चेतना , अभी एह हाल में , प्रदूषित बा . तब गीता के ठीक से देखीं त ओकर शिक्षा बा कि , हमनीं का अपना चेतना पर से भौतिक दूषण हटावे के चाहीं , शुद्ध चेतना से जवन कर्म होई, ओह से आनंद मिली . कर्म रुक नईखे सकत, हमनी के रोक नईखीं सकत. बस कर्म के शुद्धि के जरूरत बा . एही शुद्ध कर्म के कहल जाला भक्ति . भक्ति कर्म, साधारण काम जईसन ही दिखाई दी, , साधारण कर्म में अशुद्धि होला . भक्ति शुद्ध कर्म ह . केहू कह सकता की भगत त साधारण आदमी जईसन ही काम कर रहल बा , लेकिन उ आदमी भकोल कहाई , काहे कि ओकरा मालूम नईखे कि भक्त आ भगवान के काम कईसे होला , ओह कर्म में पदार्थ के अशुद्धि के कवनो जगहा ना होला , जहां प्रकृति के तीन गुण के अशुद्धि नईखे , केवल दिव्य कर्म कहल जाई. तब हमनी के ध्यान रहे कि , हमनी के चेतना पदार्थ के कारण दूषित हो गईल बा .