BN/Prabhupada 0045 - জ্ঞানের বিষয়বস্তুকে বলা হয় জ্ঞেয়: Difference between revisions

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:প্রকৃতিং পুরুষং চৈব


'''Hindi'''
:ক্ষেত্রং ক্ষেত্রজ্ঞমেব চ।


प्रक्रतिम पुरुषम् चैव क्षेत्रम् श्रेत्र ज्ञाम् एव च वेदितुम इच्छामि ज्ञानम् ज्ञेयम् च केशव (भ गी १३।१) यह इंसान की विशेष परमाधिकार है। कि वह प्रकृति को समझ सकते हैं, इस लौकिक अभिव्यक्ति को, और प्रकृति के उपभोगी को, और वह पूरी तरह से परिचित हो सकते हैं ज्ञान का प्रयोजन क्या है , ज्ञेयम्। तीन बातें हैं, ज्ञेयम्, ज्ञाता और ज्ञान। ज्ञान का प्रयोजन, ज्ञान जो जानता है उसे ज्ञाता कहते हैं। अौर ज्ञान का प्रयोजन है ज्ञेयम्। और जिस प्रक्रिया द्वारा इसे समझा जाता है, उसे ज्ञान कहा जाता है। जैसे ही हम ज्ञान की बात करते है, वहाँ तीन चीजें होनी चाहिए: ज्ञान का प्रयोजन, जो व्यक्ति पता करने की कोशिश कर रहा है, और वह प्रक्रिया जिसके द्वारा ज्ञान का प्रयोजन हासिल किया जाता है। उनमें से कुछ तो ... जैसे भौतिकवादी वैज्ञानिकों की तरह, वे बस प्रक्रति के बारे में पता करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उन्हे पुरुष का पता नहीं है। प्रक्रति का मतलब है उपभोगी, और पुरुष का मतलब है उपभोक्ता। दरअसल उपभोक्ता कृष्ण है। वह मूल पुरुष है। अर्जुन इसे स्वीकार करते हैं: पुरुषम् शाष्वतम् "आप मूल उपभोक्ता हैं, पुरुषम्।" कृष्ण उपभोक्ता है, और हम में से हर एक, जीव, और प्रकृति, सब कुछ, कृष्ण के उपभोग के लिए है। यही कृष्ण का है ... एक अन्य पुरुष, हम जीव। हम पुरुष नहीं हैं। हम भी प्रक्रति हैं। हम उपभोगी हैं। लेकिन इस भौतिक् हालत में, हम पुरुष उपभोक्ता बनते की कोशिश कर रहे हैं। इसका मतलब है कि जब प्रक्रति, या जीव, पुरुष बनना चाहते हैं, यह भौतिक हालत है। अगर एक औरत आदमी बनने कि कोशिश करता है, तो यह अप्राकृतिक है, इसी तरह जब जीव जिसका स्वभाव है उपभोगी रहना..... यह उदाहरण, हमने कई बार दिया है, यह उंगली, कुछ अच्छा खाने का पदार्थ है उस पर कब्जा करती है, लेकिन वास्तव में उंगलियों उपभोक्ता नहीं हैं। उंगलियों मदद कर सकती हैं वास्तविक उपभोक्ता की, अर्थात् पेट को। यह कुछ अच्छा खाने का पदार्थ ले सकता है और मुंह में डाल सकता है, और जब यह पेट के अन्दर जाता है, असली उपभोक्ता, तब सभी प्रक्रतियॉ, शरीर के सभी भाग, शरीर के सभी अंग, वे संतोष महसूस करते हैं। तो उपभोक्ता है पेट, न कि शरीर का कोइ भी भाग। हितोपनिशद में एक कहानी है, हितोपदेश, जिसमें ईसप कल्पित का अनुवाद किया गया है। वहाँ है, वहाँ एक कहानी है: उदरेन्द्रियानाम्। उदर। उदर का मतलब है यह पेट, और इन्द्रियों का मतलब है इन्द्रियॉ। उदरेन्द्रियानाम् की कहानी है। इंद्रियॉ, सभी इंद्रियों एक बैठक में एक साथ मुलाकात करते हैं। वे कहते हैं कि "हम काम कर रहे हैं, इंद्रियॉ....." (एक तरफ :) क्यों यह खुला है? "हम काम कर रहे हैं." पैर ने कहा: "हाँ, मैं हूँ, सारा दिन, मैं चल रहा हूं।" हाथ का कहना है: "हाँ, मैं पूरे दिन काम कर रहा हूँ जहाँ भी शरीर कहता है, "तुम यहाँ आते हो और खाना उठाते हो", मैं खाना भी पकाती हूँ। " फिर आँखें, वे कहती हैं कि "मैं देख रही हूँ। " हर अंग, शरीर की लंबाई, वे हड़ताल पर जाते हैं कि, "हम केवल पेट के लिए ही काम नहि करेंगे जो सिर्फ खा रहा है। हम सब काम कर रहा है, और यह आदमी, या यह पेट सिर्फ खा रहा है।" फिर, हड़ताल ... जैसे पूंजीवादी और कार्यकर्ता। कार्यकर्ता हड़ताल पर जाते हैं, अब कोई काम नहि। इसलिए यह सभी अंग, शरीर के हिस्से, वे हड़ताल पर गए, और दो​​, तीन दिनों के बाद, फिर जब वे मिले, वे आपस में बात करते हैं कि: "हम क्यों कमजोर हो रहे हैं ? हम अब काम नहीं कर सकते हैं। " पैर ने भी कहा: "हाँ, मैं कमजोरी महसूस कर रहा हूँ।" हाथ भी कमजोर है, हर कोइ। तो क्या कारण है? कारण ... फिर पेट ने कहा: " क्योंकि मैं नहीं खा रहा हूँ। तो तुम मजबूत रहना चाहते हो, तो तुम्हे मुझे खाने के लिए देना होगा। वरना ... तो मैं उपभोक्ता हूँ। तुम उपभोक्ता नहीं हो। तुम्हे मेरे आनंद के लिए चीजों की आपूर्ति करनी होगी। यही तुम्हारी स्थिति है।" तो वे समझे: "हाँ, हम सीधे आनंद ले सकते हैं। यह संभव नहीं है।" आनंद पेट के माध्यम से होना चाहिए। तुम एक रसगुल्ला लो, तुम, उंगलियॉ, तुम आनंद नहीं ले सकते हो। आप मुंह को दो, और यह पेट में जाता है, तुरंत ऊर्जा अाती है। केवल उंगलियों ही अानन्द नहीं लेती, आंखें, अन्य सभी भाग, वे भी संतोष और ताकत महसूस करते हैं। इसी तरह असली उपभोक्ता कृष्ण है। कृष्ण कहते हैं: भोक्तारम् यज्ञ-तपसाम् सर्व-लोक-महेशवरम् सुह्रदम् सर्व-भूतानाम् ज्ञात्वा माम् शान्तिम् रिच्छति (भ गी ५।२९)
:এতদ্‌ বেদিতুমিচ্ছামি


'''Bengali'''
:জ্ঞানং জ্ঞেয়ং চ কেশব।।


:([[Vanisource:BG 13.1-2 (1972)|ভ. গী.  ১৩.১]])


প্রকৃতিং পুরুষং চৈব ক্ষেত্রং ক্ষেত্রজ্ঞমেব চ। এতদ্‌ বেদিতুমিচ্ছামি জ্ঞানং জ্ঞেয়ং চ কেশব।। ([[Vanisource:BG 13.1-2|ভ. গী. ১৩/১]]) মানুষের বিশেষ ক্ষমতা হল , এই যে সে প্রকৃতি, জড় জগৎ এর প্রকাশ এবং প্রকৃতির ভোক্তা, এবং সে সুচারুভাবে জানতে পারে জ্ঞানের উদ্দেশ্য সম্বন্ধে, জ্ঞেয়ম। তিনটি বিষয় রয়েছে আর তা হলঃ, জ্ঞেয়ং, জ্ঞাতা, এবং জ্ঞান জ্ঞানের উদ্দেশ্য সম্পর্কে যিনি অবগত তিনি জ্ঞাতা, জ্ঞানের উদ্দেশ্যকে বলা হয় জ্ঞেয়ং, এবং যে পদ্ধতি অবলম্বন করে কেউ জানতে পারে তাকে বলা হয় জ্ঞান। যখনি আমরা জ্ঞানের কথা বলি, সেখানে অবশ্যই তিনটি বিষয় থাকবেঃ জ্ঞানের উদ্দেশ্য, ব্যাক্তি যিনি জানতে চান এবং পদ্ধতি যা অবলম্বন করে জ্ঞান অর্জন করা যায়। তাদের মধ্যে কেউ... ঠিক যেমন জড় জাগতিক বিজ্ঞানীরা, তারা শুধুমাত্র প্রকৃতিকে জানার চেষ্টা করছে। কিন্তু তারা পুরুষকে জানেনা। প্রকৃতি হল ভোগ্য এবং পুরুষ হলেন ভোক্তা। প্রকৃত ভোক্তা হলেন কৃষ্ণ। তিনি হলেন প্রকৃত পুরুষ। এটি অর্জুন মহাশয় স্বীকার করেছেনঃ "puruṣaṁ śāśvatam। "তুমি প্রকৃত ভোক্তা, পুরুষম্‌।” কৃষ্ণই হলেন ভোক্তা এবং আমরা সকলে, জীব এবং প্রকৃতি, সবকিছুই হল কৃষ্ণের ভোগ্য। অর্থা্ৎ কৃষ্ণের... আমরা জীব সকল হল অন্য এক প্রকারের পুরুষ। আমরা পুরুষ নই। আমরাও প্রকৃতি। আমরা হলাম কৃষ্ণের ভোগ্য। কিন্তু এই জড় জগতে আমরা পুরুষ হয়ে ভোগ করার চেষ্টায় রত। অর্থাৎ, যখনি প্রকৃতি অথবা জীব পুরুষ হতে চায় তখন সেটাই জড় জাগতিক অবস্থা। যদি একজন মহিলা পুরুষ হতে চায়, তখন সেটি যেমন অস্বাভাবিক, ঠিক তেমনি জড়-জগতে জীব যে স্বাভাবিকভাবেই ভোগ্য... আমরা বহুবার উদাহরন দিয়েছি , যে, একটি আঙ্গুল কিছু সুস্বাদু খাদ্য ধরতে পারে, কিন্তু প্রকৃতপক্ষে আঙ্গুলটি তা ভোগ করতে পারেনা, আঙ্গুলটি এখানে খাদ্যের ভোক্তা পাকস্থলীকে সহায়তা করতে পারে মাত্র। এটি কিছু সুস্বাদু খাদ্য নিয়ে মুখে দিতে পারে, এবং যখন উহা প্রকৃত ভোক্তা পাকস্থলীতে যায় তখন সকল প্রকৃতিই অর্থাৎ শরীরের সকল অঙ্গ-প্রত্যঙ্গ তৃপ্তিলাভ করে। তাই এখানে ভোক্তা হল পাকস্থলী, শরীরের অঙ্গ-প্রত্যঙ্গ নয়। হিতোপনিষদে একটি গল্প রয়েছে, হিতোপদেশ, যা থেকে ঈশপের গল্পের অনুবাদিত হয়। সেখানে একটি গল্প রয়েছেঃ উদারেনদ্রিয়ানাম্‌। উদর। উদর হল পেট এবং ইন্দ্রিয় হল আমাদের ইন্দ্রিয় সমুহ। সে সম্পর্কে একটি গল্প রয়েছে যার নাম উদারেনদ্রিয়ানাম। সকল ইন্দ্রিয় সমূহ একটি বৈঠকে একত্রিত হয়। তারা বলল যেঃ "আমরা হলাম কর্ম ইন্দ্রিয়"... (পার্শ্ব থেকে) "ইহা উন্মুক্ত কেনো? "আমরা কাজ করছি" পা বলল: "হ্যাঁ, আমি সারা দিন হাটি।" হাত বললঃ "হ্যাঁ আমি সারাদিন শরীর যা করতে বলে তাই করি: যেমনঃ "তুমি এখানে এসে খাবার গুলো উত্তোলন করো" রান্নার জন্য বস্তুর যোগান দেই, এবং আমি নিজে রান্নাও করি। তখন চক্ষু সমুহ বলল, "আমি দেখি" তখন শরীরের প্রত্যেক অঙ্গ-প্রত্যঙ্গ মিলে একটি অনশন করল যে, "আমরা আর পাকস্থলীর জন্য কাজ করব না যে শুধু একাই আহার করে।" । আমরা সবাই কাজ করে যাচ্ছি আর এই ব্যাক্তি বা এই পাকস্থলী শুধুই খেয়ে যাচ্ছে। তখন অনশন চলতে লাগলো ঠিক যেমন পুঁজিবাদী এবং শ্রমিকদের মধ্যে হয়। শ্রমিকদল কাজ-কর্ম ছেড়ে অনশনে গেলো। তো শরীরের সকল অঙ্গ-প্রত্যঙ্গ এই অনশন পালন করল এবং দুই, তিনদিন পর যখন তারা সাক্ষাৎ করলো, তখন তারা নিজেদের মধ্যে বলছিল যে, "আমরা দুর্বল হয়ে পড়ছি কেনো?" আমরা এখন কাজ করতে পারিনা। "পা বলল, হ্যাঁ আমি দুর্বলতা অনুভব করছি।" হাত এবং সকলে দুর্বল বোধ করলো। এর কারণটি কি? কারণ... তখন পাকস্থলী বলল: "কারন আমি আহার করছি না।" তাই তোমরা যদি সবল থাকতে চাও, তাহলে আমাকে খাবার দিতে হবে। অন্যথায়...তাই আমি হলাম ভোক্তা। তোমরা ভোক্তা নও। তোমরা আমার ভোগ্য বস্তুর যোগান দিতে পারো মাত্র। এটাই তোমাদের কাজ।” তখন ইন্দ্রিয় সমুহ অনুধাবন করলো, "হ্যাঁ, আমরা সরাসরি ভোগ করতে পারিনা। এটি সম্ভব নয়।" ভোগ শুধুমাত্র পাকস্থলীর মাধ্যমেই হতে পারে। তুমি আঙ্গুল, তুমি একটি রসগোল্লা তুলতে পারো, তুমি তা ভোগ করতে পারনা। তুমি তা মুখে সরবরাহ করতে পারো, এবং যখন তা পাকস্থলীতে পৌঁছে, তখন সাথে সাথে শক্তি উৎপন্ন হয়। শুধুমাত্র আঙ্গুলই নয়, চক্ষু, শরীরের সকল ইন্দ্রিয়ও বল প্রাপ্ত এবং তৃপ্ত হয়। একইভাবে, প্রকৃত ভোক্তা হলেন কৃষ্ণ। ভোক্তারাং যজ্ঞতপসাং সর্বলোকমহেশ্বরম্‌। সুহৃদং সর্বভূতানাং জ্ঞাত্বা মাং শান্তি মৃচ্ছতি।। ([[Vanisource:BG 5.29|ভ. গী. ৫/২৯]])
এটি মানুষের বিশেষাধিকার, যে সে প্রকৃতিকে বুঝতে পারে, এই মহাজাগতিক প্রকাশ, এবং প্রকৃতির উপভোগকারী, এবং সে এই ব্যপারে সম্পূর্ণরূপে জানতে পারে যে জ্ঞানের উদ্দেশ্য 'জ্ঞেয়ম্' কি।


তিনটি বিষয় রয়েছে আর তা হলঃ , জ্ঞেয়ং, জ্ঞাতা, এবং জ্ঞান। জ্ঞানের বিষয় সম্পর্কে যিনি অবগত তিনি জ্ঞাতা, জ্ঞানের বিষয়কে বলা হয় জ্ঞেয়ং, এবং যে প্রক্রিয়াটি দ্বারা কেউ তা বুঝতে পারে, তাকে বলা হয় জ্ঞান। যখনই আমরা জ্ঞানের কথা বলি, সেখানে অবশ্যই তিনটি বিষয় থাকবে ; জ্ঞানের বিষয়, সেই ব্যাক্তি যিনি জানতে চান এবং যেই পদ্ধতি যা অবলম্বন করে জ্ঞান অর্জন করা যায়।
তাদের মধ্যে কেউ... ঠিক যেমন জড় জাগতিক বিজ্ঞানীরা, তারা শুধুমাত্র প্রকৃতিকে জানার চেষ্টা করছে। কিন্তু তারা পুরুষকে জানে না। প্রকৃতি হল ভোগ্য এবং পুরুষ হলেন ভোক্তা। প্রকৃতপক্ষে প্রকৃত ভোক্তা হলেন কৃষ্ণ। তিনি হলেন প্রকৃত পুরুষ। এটি অর্জুন মহাশয় স্বীকার করেছেনঃ "পুরুষম্‌ শাশ্বতাম। "তুমি প্রকৃত ভোক্তা, পুরুষম্‌।” শ্রীকৃষ্ণই হলেন ভোক্তা এবং আমরা সকলে, জীব, এবং প্রকৃতি, সবকিছুই হল কৃষ্ণের ভোগ্য। সেটি শ্রীকৃষ্ণের... অন্য পুরুষ, আমরা জীবেরা , আমরা পুরুষ নই। আমরাও প্রকৃতি। আমরা হলাম শ্রীকৃষ্ণের ভোগের জন্য। কিন্তু এই জড় জগতে আমরা পুরুষ হয়ে ভোগ করার চেষ্টা করছি। অর্থাৎ, যখন প্রকৃতি অথবা জীব পুরুষ হতে চায় তখন সেটাই জড় জাগতিক অবস্থা। যদি একজন মহিলা পুরুষ হতে চায়, তখন সেটি যেমন অস্বাভাবিক, ঠিক তেমনি জড়-জগতে জীব স্বাভাবিকভাবেই ভোগ্য... যেমন আমরা অনেকবার উদাহরণ দিয়েছি , যে, একটি আঙ্গুল কিছু সুস্বাদু খাদ্য ধরতে পারে, কিন্তু প্রকৃতপক্ষে আঙ্গুলটি তা ভোগ করতে পারে না, আঙ্গুলটি এখানে খাদ্যের ভোক্তা পাকস্থলীকে সহায়তা করতে পারে মাত্র। এটি কিছু সুস্বাদু খাদ্য নিয়ে মুখে দিতে পারে, এবং যখন সেটি প্রকৃত ভোক্তা পাকস্থলীতে যায় তখন সকল প্রকৃতিই অর্থাৎ শরীরের সকল অঙ্গ-প্রত্যঙ্গই তৃপ্তিলাভ করে। তাই এখানে ভোক্তা হল পাকস্থলী, শরীরের অঙ্গ-প্রত্যঙ্গ নয়। হিতোপনিষদে একটি গল্প রয়েছে, হিতোপদেশ, যা থেকে ঈশপের গল্পগুলো অনূদিত হয়েছে। সেখানে একটি গল্প রয়েছেঃ উদরেন্দ্রিয়ানাম্। উদর। উদর হল পেট এবং ইন্দ্রিয় হল আমাদের ইন্দ্রিয়সমূহ। সে সম্পর্কে একটি গল্প রয়েছে যার নাম 'উদরেন্দ্রিয়ানাম্' সব ইন্দ্রিয়গুলো একটি বৈঠকে একত্রিত হয়। তারা বলল যেঃ "আমরা হলাম কর্ম ইন্দ্রিয়"... (পাশ থেকে) "এটি খোলা কেন?" "আমরা কাজ করছি" পা বলল: "হ্যাঁ, আমি সারা দিন হাটি।" হাত বললঃ "হ্যাঁ আমি সারাদিন শরীর যা করতে বলে তাই করি : যেমনঃ "তুমি এখানে এসে খাবার গুলো তোলো" রান্নার জন্য বস্তুর যোগান দেই, এবং আমি নিজে রান্নাও করি। তখন চোখদুটো বলল, "আমি দেখি" তখন শরীরের প্রত্যেক অঙ্গ-প্রত্যঙ্গ মিলে একটি অনশন করল যে, "আমরা আর পাকস্থলীর জন্য কাজ করব না যে শুধু একাই আহার করে।" । আমরা সবাই কাজ করে যাচ্ছি আর এই ব্যাক্তি বা এই পাকস্থলী শুধু খেয়েই যাচ্ছে। তখন তারা অনশন চালালো ঠিক যেমন পুঁজিবাদী এবং শ্রমিকদের মধ্যে হয়। শ্রমিকদল কাজ-কর্ম ছেড়ে অনশন করে। শরীরের সকল অঙ্গ-প্রত্যঙ্গ এইভাবে অনশন পালন করল, এবং দুই, তিনদিন পর যখন তারা সাক্ষাৎ করলো, তখন তারা নিজেদের মধ্যে বলছিল যে, "আমরা দুর্বল হয়ে পড়ছি কেনো?" আমরা এখন কাজ করতে পারি না। "পা বলল, হ্যাঁ আমি দুর্বলতা অনুভব করছি।" হাতও দুর্বল বোধ করলো, এভাবে সকলেই। এর কারণটি কি?  কারণ... তখন পাকস্থলী বলল: "কারণ আমি খাচ্ছি না।" তাই তোমরা যদি সবল থাকতে চাও, তাহলে আমাকে খাবার দিতে হবে। অন্যথায়...তাই আমি হলাম ভোক্তা। তোমরা ভোক্তা নও। তোমরা আমার ভোগ্য বস্তুর যোগান দিতে পার মাত্র। এটাই তোমাদের কাজ।” তখন ইন্দ্রিয়সমূহ বুঝতে পারল, "হ্যাঁ, আমরা সরাসরি ভোগ করতে পারিনা। এটি সম্ভব নয়।" ভোগ শুধুমাত্র পাকস্থলীর মাধ্যমেই হতে পারে। তুমি আঙ্গুল, তুমি একটি রসগোল্লা তুলতে পারো, তুমি তা ভোগ করতে পার না। তুমি তা মুখে সরবরাহ করতে পারো, এবং যখন তা পাকস্থলীতে পৌঁছে, তখন সাথে সাথে শক্তি উৎপন্ন হয়। শুধুমাত্র আঙ্গুলই নয়, চক্ষু, শরীরের সকল ইন্দ্রিয়ও বল প্রাপ্ত এবং তৃপ্ত হয়। একইভাবে, প্রকৃত ভোক্তা হলেন শ্রীকৃষ্ণ। শ্রীকৃষ্ণ বলেছেন:
:ভোক্তারং যজ্ঞতপসাং
:সর্বলোকমহেশ্বরম্‌।
:সুহৃদং সর্বভূতানাং
:জ্ঞাত্বা মাং শান্তি মৃচ্ছতি।।
:([[Vanisource:BG 5.29 (1972)|ভগবদ্গীতা ৫.২৯]])
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Latest revision as of 10:58, 2 June 2021



Lecture on BG 13.1-2 -- Paris, August 10, 1973

প্রকৃতিং পুরুষং চৈব
ক্ষেত্রং ক্ষেত্রজ্ঞমেব চ।
এতদ্‌ বেদিতুমিচ্ছামি
জ্ঞানং জ্ঞেয়ং চ কেশব।।
(ভ. গী. ১৩.১)

এটি মানুষের বিশেষাধিকার, যে সে প্রকৃতিকে বুঝতে পারে, এই মহাজাগতিক প্রকাশ, এবং প্রকৃতির উপভোগকারী, এবং সে এই ব্যপারে সম্পূর্ণরূপে জানতে পারে যে জ্ঞানের উদ্দেশ্য 'জ্ঞেয়ম্' কি।

তিনটি বিষয় রয়েছে আর তা হলঃ , জ্ঞেয়ং, জ্ঞাতা, এবং জ্ঞান। জ্ঞানের বিষয় সম্পর্কে যিনি অবগত তিনি জ্ঞাতা, জ্ঞানের বিষয়কে বলা হয় জ্ঞেয়ং, এবং যে প্রক্রিয়াটি দ্বারা কেউ তা বুঝতে পারে, তাকে বলা হয় জ্ঞান। যখনই আমরা জ্ঞানের কথা বলি, সেখানে অবশ্যই তিনটি বিষয় থাকবে ; জ্ঞানের বিষয়, সেই ব্যাক্তি যিনি জানতে চান এবং যেই পদ্ধতি যা অবলম্বন করে জ্ঞান অর্জন করা যায়।

তাদের মধ্যে কেউ... ঠিক যেমন জড় জাগতিক বিজ্ঞানীরা, তারা শুধুমাত্র প্রকৃতিকে জানার চেষ্টা করছে। কিন্তু তারা পুরুষকে জানে না। প্রকৃতি হল ভোগ্য এবং পুরুষ হলেন ভোক্তা। প্রকৃতপক্ষে প্রকৃত ভোক্তা হলেন কৃষ্ণ। তিনি হলেন প্রকৃত পুরুষ। এটি অর্জুন মহাশয় স্বীকার করেছেনঃ "পুরুষম্‌ শাশ্বতাম। "তুমি প্রকৃত ভোক্তা, পুরুষম্‌।” শ্রীকৃষ্ণই হলেন ভোক্তা এবং আমরা সকলে, জীব, এবং প্রকৃতি, সবকিছুই হল কৃষ্ণের ভোগ্য। সেটি শ্রীকৃষ্ণের... অন্য পুরুষ, আমরা জীবেরা , আমরা পুরুষ নই। আমরাও প্রকৃতি। আমরা হলাম শ্রীকৃষ্ণের ভোগের জন্য। কিন্তু এই জড় জগতে আমরা পুরুষ হয়ে ভোগ করার চেষ্টা করছি। অর্থাৎ, যখন প্রকৃতি অথবা জীব পুরুষ হতে চায় তখন সেটাই জড় জাগতিক অবস্থা। যদি একজন মহিলা পুরুষ হতে চায়, তখন সেটি যেমন অস্বাভাবিক, ঠিক তেমনি জড়-জগতে জীব স্বাভাবিকভাবেই ভোগ্য... যেমন আমরা অনেকবার উদাহরণ দিয়েছি , যে, একটি আঙ্গুল কিছু সুস্বাদু খাদ্য ধরতে পারে, কিন্তু প্রকৃতপক্ষে আঙ্গুলটি তা ভোগ করতে পারে না, আঙ্গুলটি এখানে খাদ্যের ভোক্তা পাকস্থলীকে সহায়তা করতে পারে মাত্র। এটি কিছু সুস্বাদু খাদ্য নিয়ে মুখে দিতে পারে, এবং যখন সেটি প্রকৃত ভোক্তা পাকস্থলীতে যায় তখন সকল প্রকৃতিই অর্থাৎ শরীরের সকল অঙ্গ-প্রত্যঙ্গই তৃপ্তিলাভ করে। তাই এখানে ভোক্তা হল পাকস্থলী, শরীরের অঙ্গ-প্রত্যঙ্গ নয়। হিতোপনিষদে একটি গল্প রয়েছে, হিতোপদেশ, যা থেকে ঈশপের গল্পগুলো অনূদিত হয়েছে। সেখানে একটি গল্প রয়েছেঃ উদরেন্দ্রিয়ানাম্। উদর। উদর হল পেট এবং ইন্দ্রিয় হল আমাদের ইন্দ্রিয়সমূহ। সে সম্পর্কে একটি গল্প রয়েছে যার নাম 'উদরেন্দ্রিয়ানাম্' সব ইন্দ্রিয়গুলো একটি বৈঠকে একত্রিত হয়। তারা বলল যেঃ "আমরা হলাম কর্ম ইন্দ্রিয়"... (পাশ থেকে) "এটি খোলা কেন?" "আমরা কাজ করছি" পা বলল: "হ্যাঁ, আমি সারা দিন হাটি।" হাত বললঃ "হ্যাঁ আমি সারাদিন শরীর যা করতে বলে তাই করি : যেমনঃ "তুমি এখানে এসে খাবার গুলো তোলো" রান্নার জন্য বস্তুর যোগান দেই, এবং আমি নিজে রান্নাও করি। তখন চোখদুটো বলল, "আমি দেখি" তখন শরীরের প্রত্যেক অঙ্গ-প্রত্যঙ্গ মিলে একটি অনশন করল যে, "আমরা আর পাকস্থলীর জন্য কাজ করব না যে শুধু একাই আহার করে।" । আমরা সবাই কাজ করে যাচ্ছি আর এই ব্যাক্তি বা এই পাকস্থলী শুধু খেয়েই যাচ্ছে। তখন তারা অনশন চালালো ঠিক যেমন পুঁজিবাদী এবং শ্রমিকদের মধ্যে হয়। শ্রমিকদল কাজ-কর্ম ছেড়ে অনশন করে। শরীরের সকল অঙ্গ-প্রত্যঙ্গ এইভাবে অনশন পালন করল, এবং দুই, তিনদিন পর যখন তারা সাক্ষাৎ করলো, তখন তারা নিজেদের মধ্যে বলছিল যে, "আমরা দুর্বল হয়ে পড়ছি কেনো?" আমরা এখন কাজ করতে পারি না। "পা বলল, হ্যাঁ আমি দুর্বলতা অনুভব করছি।" হাতও দুর্বল বোধ করলো, এভাবে সকলেই। এর কারণটি কি? কারণ... তখন পাকস্থলী বলল: "কারণ আমি খাচ্ছি না।" তাই তোমরা যদি সবল থাকতে চাও, তাহলে আমাকে খাবার দিতে হবে। অন্যথায়...তাই আমি হলাম ভোক্তা। তোমরা ভোক্তা নও। তোমরা আমার ভোগ্য বস্তুর যোগান দিতে পার মাত্র। এটাই তোমাদের কাজ।” তখন ইন্দ্রিয়সমূহ বুঝতে পারল, "হ্যাঁ, আমরা সরাসরি ভোগ করতে পারিনা। এটি সম্ভব নয়।" ভোগ শুধুমাত্র পাকস্থলীর মাধ্যমেই হতে পারে। তুমি আঙ্গুল, তুমি একটি রসগোল্লা তুলতে পারো, তুমি তা ভোগ করতে পার না। তুমি তা মুখে সরবরাহ করতে পারো, এবং যখন তা পাকস্থলীতে পৌঁছে, তখন সাথে সাথে শক্তি উৎপন্ন হয়। শুধুমাত্র আঙ্গুলই নয়, চক্ষু, শরীরের সকল ইন্দ্রিয়ও বল প্রাপ্ত এবং তৃপ্ত হয়। একইভাবে, প্রকৃত ভোক্তা হলেন শ্রীকৃষ্ণ। শ্রীকৃষ্ণ বলেছেন:

ভোক্তারং যজ্ঞতপসাং
সর্বলোকমহেশ্বরম্‌।
সুহৃদং সর্বভূতানাং
জ্ঞাত্বা মাং শান্তি মৃচ্ছতি।।
(ভগবদ্গীতা ৫.২৯)