HI/661208 प्रवचन - श्रील प्रभुपाद न्यूयार्क में अपनी अमृतवाणी व्यक्त करते हैं

HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी
"जहाँ तक भौतिक वादियों से तालुक है, वे चबाये हुए को पुन: चबाते हैं। पुन: पुनश्चर्वितर्वणानाम् (श्री.भा. ७.५.३०) मैंने पिछले दिन यह उदाहरण दिया था कि गन्ने का रस चूस कर फैंक देता है और फिर कोई उसे उठाकर पुन: चूसने लगता है, जब कि उसमें कोई रस नहीं बचा है। अत: हम सभी उसी प्रकार किए हुए कार्य को पुन: कर रहे हैं। हम यह प्रश्न ही नहीं उठाते कि क्या जीवन की यह विधि हमें ख़ुशी व सुख दे सकती है। लेकिन हम उसी काम को बार-बार करने का प्रयास कर रहे हैं। इन्द्रियों की तृप्ति ही परम लक्ष्य है और इन्द्रिय तृप्ति की मूल वस्तु कामुकता (संभोग) है। अत: हम चूसे हुए को पुन: चूस रहे हैं। लेकिन वह आनन्द प्राप्त करने का सही माध्यम नहीं है। सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् (भ.गी.६.२१) है। वास्तव में ख़ुशी दिव्य है। दिव्य का अर्थ है, कि मैं यह समझूँ कि मेरे जीवन की प्रक्रिया और स्थान क्या है। इस प्रकार कृष्ण भावनामृत तुम्हें यह सिखाता है।"
661208 - Lecture BG 09.22-23 - New York