"जहाँ तक भौतिक वादियों का संबंध है, वे चबाये हुए को पुन: चबाते हैं। पुन: पुनस चर्वित चर्वाणानाम् (श्री.भा. ७.५.३०)। मैंने उस दिन यह उदाहरण दिया था कि, एक व्यक्ति गन्ने का रस चूस कर फैंक देता है और फिर कोई उसे उठाकर पुन: चूसने लगता है, जब कि उसमें कोई रस शेष नहीं है। तो हम सभी उसी प्रकार किए हुए कार्य को पुन: कर रहे हैं। हम कभी यह प्रश्न नहीं उठाते कि, क्या वास्तव में यह विधि हमें संतुष्टि दे सकती है। किन्तु हम उसी कार्य को अनेको बार करने का प्रयास कर रहे हैं। इन्द्रियों की तृप्ति ही परम लक्ष्य है और, मैथुन युक्त जीवन सर्वोच्च इन्द्रिय तृप्ति है। इस प्रकार हम चबाए हुए को पुन: चबा रहे हैं। परन्तु वह सुख प्राप्त करने का उचित माध्यम नहीं है। सुख भिन्न है। सुखम अत्यन्तिकं यत तद अतीन्द्रिय ग्राह्यम (भ.गी.६.२१) है। वास्तविक सुख दिव्य है। और उस दिव्य का अर्थ है कि, मैं यह समझूँ कि मेरी अपनी स्थिति क्या है और मेरे अपने जीवन की प्रक्रिया क्या है। इस प्रकार से यह कृष्ण भावनामृत आपको सिखाएगा।" ।
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