श्रीमद-भागवतम का विधान कि तल लभ्यते दुःखवद अन्यतः सुखम (श्री.भा. १.५.१८)। आप तथाकथित आर्थिक विकास का प्रयास मत कीजिए। आप जो प्राप्त करने के लिए नियत हैं उससे अधिक नहीं पा सकते। यह पहले से ही तय हो चुका है। प्रत्येक जीव को विभिन्न प्रकार के जीवन का स्तर प्राप्त होता है, जो की आधारित है पिछले कर्म के अनुसार, दैवेन, दैव-नेत्रेण (श्री.भा. ३.३१.१), कर्मणा। तो आप इसे बदल नहीं सकते। वह प्रकृति के नियम, आप नहीं बदल सकते। क्यों ये जीवन की किस्में है, स्थिति की किस्में, कार्य की किस्में। यह निर्धारित है। विषय: खलु सर्वतः स्यात (श्री.भा. ११.९.२९)। इस भौतिक आनंद का अर्थ है खाना, सोना, संभोग करना और बचाव करना... केवल मानक अलग हैं। मैं कुछ खा रहा हूं, आप कुछ खा रहे हैं। शायद, मेरी गणना में, आप बहुत अच्छा नहीं खा रहे हैं। आपकी गणना में मैं बहुत अच्छा नहीं खा रहा हूं। परंतु खाना वही है। आप खा रहे हैं। मैं खा रहा हूँ। तो भौतिक संसार में सुख का स्तर, बुनियादी सिद्धांत पर आधारित है। परंतु यह हमने बनाया है, 'यह अच्छा मानक है। वह खराब मानक है। यह बहुत अच्छा है। यह बहुत बुरा है।'
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