HI/BG 1.14

Revision as of 09:03, 24 July 2020 by Harshita (talk | contribs)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 14

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ॥१४॥

शब्दार्थ

तत:—तत्पश्चात्; श्वेतै:—श्वेत; हयै:—घोड़ों से; युक्ते—युक्त; महति—विशाल; स्यन्दने—रथ में; स्थितौ—आसीन; माधव:—कृष्ण (लक्ष्मीपति) ने; पाण्डव:—अर्जुन (पाण्ड़ुपुत्र) ने; च—तथा; एव—निश्चय ही; दिव्यौ—दिव्य; शङ्खौ—शंख; प्रदध्मतु:—बजाये।

अनुवाद

दूसरी ओर से श्र्वेत घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ पर आसीन कृष्ण तथा अर्जुन ने अपने-अपने दिव्य शंख बजाये |

तात्पर्य

भीष्मदेव द्वारा बजाये गये शंख की तुलना में कृष्ण तथा अर्जुन के शंखों को दिव्य कहा गया है | दिव्य शंखों के नाद से यह सूचित हो रहा था कि दूसरे पक्ष की विजय की कोई आशा न थी क्योंकि कृष्ण पाण्डवों के पक्ष में थे | जयस्तु पाण्डुपुत्राणां येषां पक्षे जनार्दनः– जय सदा पाण्डु के पुत्र-जैसों कि होती है क्योंकि भगवान् कृष्ण उनके साथ हैं | और जहाँ जहाँ भगवान् विद्यमान हैं, वहीँ वहीँ लक्ष्मी भी रहती हैं क्योंकि वे अपने पति के बिना नहीं रह सकतीं | अतः जैसा कि विष्णु या भगवान् कृष्ण के शंख द्वारा उत्पन्न दिव्य ध्वनि से सूचित हो रहा था, विजय तथा श्री दोनों ही अर्जुन की प्रतीक्षा कर रही थीं | इसके अतिरिक्त, जिस रथ में दोनों मित्र आसीन थे वह अर्जुन को अग्नि देवता द्वारा प्रदत्त था और इससे सूचित हो रहा था कि तीनों लोकों में जहाँ कहीं भी यह जायेगा, वहाँ विजय निश्चित है |