HI/Prabhupada 0022 - कृष्ण भूखे नहीं है: Difference between revisions

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कृष्ण कहते हैं, "मेरा भक्त, स्नेह के साथ" यो मे भक्त्या प्रयच्छति । कृष्ण भूखे नहीं हैं । श्री कृष्ण तुमहारी भेंट को स्वीकार करने के लिए तुम्हारे पास नहीं आए हैं क्योंकि वह भूखे हैं । नहीं । वे भूखे नहीं हैं । वे अात्मतुष्ट हैं, और आध्यात्मिक दुनिया में उनकी सेवा हो रही है, लक्ष्मी सहस्र शत सम्भ्रम सेवयमानम्, उनकी सेवा सैकड़ों और हजारों धन की देवियॉ करती हैं । लेकिन कृष्ण इतने दयालु हैं, क्योंकि अगर तुम कृष्ण के संजीदा प्रेमी हो, वे तुमse पत्रं पुष्पं स्वीकार करने के लिए अाते हैं । यहां तक ​​कि अगर तुम गरीब से गरीब हो, तुम जो कुछ भी जमा कर सकते हो उसे स्वीकार करेंगें एक छोटी सी पत्ती, थोड़ा पानी, छोटा फूल । दुनिया के किसी भी हिस्से में, कोइ भी प्राप्त कर सकता है और कृष्ण को भेंट कर सकता है । "कृष्ण, मेरे पास आप को भेंट करने के लिए कुछ भी नहीं है, मैं बहुत गरीब हूँ । कृपया यह स्वीकार करें ।" कृष्ण स्वीकार करेंगे । कृष्ण कहते हैं, तद अहं अश्नामि, "मैं स्वीकार करता हूँ । " तो मुख्य बात है भक्ति, स्नेह, प्रेम । तो यहाँ कहा गाया है अलक्क्षयं । कृष्ण दिखाई नहीं देते हैं, भगवान दिखाई नहीं देते हैं, लेकिन वे बहुत दयालु हैं कि वे तुम्हारे सामने अाए हैं, तुम्हारी भौतिक आंखों को दिखाई देते हैं । कृष्ण इस भौतिक दुनिया में दिखते नहीं हैं, भौतिक आंखें । जैसे कृष्ण के अंश रूप । हम कृष्ण के अंश हैं, सभी जीव, लेकिन हम एक दूसरे को देख नहीं सकते हैं । तुम मुझे नहीं देख सकते हो, मैं तुमहे नहीं देख सकता हूँ । "नहीं, मैं तुमहे देखता हूँ ।" तुम क्या देखते हो ? तुम मेरे शरीर को देखते हो । फिर, जब आत्मा शरीर से निकल जाती है, तुम क्यों रो रहे हो "मेरे पिता चला गया है" ? क्यों पिता चला गया ? पिता यहाँ लेटा हुअा है । तो फिर तुमने क्या देखा है ? तुम अपने पिता के मृत शरीर को देखते हो, अपने पिता को नहीं । इसलिए यदि तुम कृष्ण के कण को नहीं देख सकते हो, आत्मा , तो कैसे कृष्ण को देख पाअोगे ? इसलिए शास्त्र कहते हैं, अत: श्री कृष्ण-नामादि न भवेद ग्राह्यम् इन्द्रियै: (सीसी मध्य १७।१३६)। यह कुंद भौतिक आँखें, वह कृष्ण को नहीं देख सकती हैं, या कृष्ण का नाम नहीं सुन सकते हो, नामादि । नाम मतलब नाम । नाम मतलब नाम, रूप, गुण, लीला । ये बातें तुम्हारी भौतिक कुंद आँखें या इंद्रियों के द्वारा नहीं समझी जा सकती हैं । लेकिन अगर वे शुद्ध हैं, सेवन्मुखे हि, जिहवादौ, अगर वे भक्ति सेवा की प्रक्रिया द्वारा शुद्ध हो रहे हैं, तुम हर समय और हर जगह कृष्ण को देख सकते हो । लेकिन आम आदमी के लिए, अलक्क्षयं : दिखाई नहीं देते । कृष्ण हर जगह हैं, भगवान हर जगह हैं, अंडांतर स्थ परमाणु चायान्तर स्थं । तो अलक्क्षयं सर्व-भूतानां । हालांकि कृष्ण अंदर अौर बाहर हैं, दोनो, पर हम कृष्ण को देख नहीं सकते हैं जब तक आंखें न हो उन्हें देखने के लिए । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन, कृष्ण को देखने के लिए कैसे आँखें खोलें, उसके लिए है, अौर अगर तुम कृष्ण को देख सकते हो, अंत: बहि:, तो तुम्हारा जीवन सफल है । इसलिए शास्त्र कहता है कि अंतर बहिर । अंतर बहिर यदि हरिस तपसा तत: किं नान्तर बहिर यदि हरिस तपसा तत: किं हर कोई आदर्श बनने की कोशिश कर रहा है, लेकिन पूर्णता का मतलब है जब हम कृष्ण को देख सकते हैं भीतर और बाहर । यही पूर्णता है ।
कृष्ण कहते हैं, "मेरा भक्त, स्नेह के साथ" यो मे भक्त्या प्रयच्छति ([[HI/BG 9.26|भ गी ९.२६]]) । कृष्ण भूखे नहीं हैं । कृष्ण तुम्हारी भेंट को स्वीकार करने के लिए तुम्हारे पास नहीं आए हैं क्योंकि वे भूखे हैं । नहीं । वे भूखे नहीं हैं । वे अात्मतुष्ट हैं, और आध्यात्मिक दुनिया में उनकी सेवा हो रही है, लक्ष्मी-सहस्र-शत-सम्भ्रम-सेवयमानम् (ब्रह्मसंहिता ५.२९), उनकी सेवा सैकड़ों और हजारों लक्ष्मीया करती हैं । लेकिन कृष्ण इतने दयालु हैं, क्योंकि अगर तुम कृष्ण के संजीदा प्रेमी हो, वे तुमसे पत्रं पुष्पं स्वीकार करने के लिए अाते हैं । यहां तक ​​कि अगर तुम गरीब से गरीब हो, तुम जो कुछ भी जमा कर सकते हो, उसे वे स्वीकार करेंगें थोडा सा पत्र, थोड़ा जल, थोडे पुष्प । दुनिया के किसी भी हिस्से में, कोइ भी प्राप्त कर सकता है और कृष्ण को भेंट कर सकता है । "कृष्ण, मेरे पास आप को भेंट करने के लिए कुछ भी नहीं है, मैं बहुत गरीब हूँ । कृपया यह स्वीकार करें ।" कृष्ण स्वीकार करेंगे । कृष्ण कहते हैं, तदहं अश्नामि, "मैं स्वीकार करता हूँ ।" तो मुख्य बात है भक्ति, स्नेह, प्रेम ।
 
तो यहाँ कहा गाया है अलक्क्षयं । कृष्ण दिखाई नहीं देते हैं, भगवान दिखाई नहीं देते हैं, लेकिन वे बहुत दयालु हैं कि वे तुम्हारे सामने अाए हैं, तुम्हारी भौतिक आंखों को दिखाई देते हैं । कृष्ण इस भौतिक दुनिया में भौतिक आंखों को  दिखते नहीं हैं । जैसे कृष्ण के अंश । हम कृष्ण के अंश हैं, सभी जीव, लेकिन हम एक दूसरे को देख नहीं सकते । तुम मुझे नहीं देख सकते हो, मैं तुम्हें नहीं देख सकता हूँ । "नहीं, मैं तुम्हे देखता हूँ ।" तुम क्या देखते हो ? तुम मेरे शरीर को देखते हो । फिर, जब आत्मा शरीर से निकल जाती है, तुम क्यों रो रहे हो "मेरे पिता चले गए हैं?" क्यों पिता चले गए ? पिता यहाँ लेटा हुए हैं । तो फिर तुमने क्या देखा है ? तुमने अपने पिता के मृत शरीर को देखा है, अपने पिता को नहीं । इसलिए यदि तुम कृष्ण के अंश, आत्मा को नहीं देख सकते हो, तो कैसे कृष्ण को देख पाअोगे ? इसलिए शास्त्र कहते हैं, अत: श्री-कृष्ण-नामादि न भवेद ग्राह्यम् इन्द्रियै: (चैतन्य चरितामृत मध्य १७.१३६) । यह कुंठित भौतिक आँखें, वह कृष्ण को नहीं देख सकती हैं, या कृष्ण का नाम नहीं सुन सकती हैं, नामादि । नाम का अर्थ है नाम । नाम का अर्थ है नाम, रूप, गुण, लीला ।
 
ये बातें तुम्हारी भौतिक कुंठित आँखों या इंद्रियों के द्वारा नहीं समझी जा सकती हैं । लेकिन अगर वे शुद्ध की जाती हैं, सेवन्मुखे हि जिहवादौ ([[Vanisource:CC Madhya 17.136|चैतन्य चरितामृत मध्य १७.१३६]]), अगर वे भक्तिमय सेवा की प्रक्रिया द्वारा शुद्ध की जाती हैं, तुम हर समय और हर जगह कृष्ण को देख सकते हो । लेकिन आम आदमी के लिए, अलक्क्षयं : दिखाई नहीं देते । कृष्ण हर जगह हैं, भगवान हर जगह हैं, अंडांतर-स्थ-परमाणु-चयान्तर- स्थं (ब्रह्मसंहिता ५.३५) । तो अलक्क्षयं सर्व-भूतानां ([[Vanisource:SB 1.2.12|श्रीमद भागवतम १.८.१८]]) । हालांकि कृष्ण अंदर अौर बाहर हैं, दोनों, पर हम कृष्ण को देख नहीं सकते हैं जब तक आंखें न हो उन्हें देखने के लिए ।
 
तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन आँखें खोलने के लिए, कि कैसे कृष्ण को देखा जा सकता है, अौर अगर तुम कृष्ण को देख सकते हो, अंत: बहि:, तो तुम्हारा जीवन सफल है । इसलिए शास्त्र कहता है कि,अंतर् बहिर्
 
:अंतर बहिर, यदि हरिस तपसा तत: किं,
:नान्तर बहिर यदि हरिस तपसा तत: किं
:(नारद पंचरात्र)
 
हर कोई सिद्ध बनने की कोशिश कर रहा है, लेकिन पूर्णता का मतलब है जब हम कृष्ण को देख सकते हैं भीतर और बाहर । यही पूर्णता है ।  
 
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020



Lecture on SB 1.8.18 -- Chicago, July 4, 1974

कृष्ण कहते हैं, "मेरा भक्त, स्नेह के साथ" यो मे भक्त्या प्रयच्छति (भ गी ९.२६) । कृष्ण भूखे नहीं हैं । कृष्ण तुम्हारी भेंट को स्वीकार करने के लिए तुम्हारे पास नहीं आए हैं क्योंकि वे भूखे हैं । नहीं । वे भूखे नहीं हैं । वे अात्मतुष्ट हैं, और आध्यात्मिक दुनिया में उनकी सेवा हो रही है, लक्ष्मी-सहस्र-शत-सम्भ्रम-सेवयमानम् (ब्रह्मसंहिता ५.२९), उनकी सेवा सैकड़ों और हजारों लक्ष्मीया करती हैं । लेकिन कृष्ण इतने दयालु हैं, क्योंकि अगर तुम कृष्ण के संजीदा प्रेमी हो, वे तुमसे पत्रं पुष्पं स्वीकार करने के लिए अाते हैं । यहां तक ​​कि अगर तुम गरीब से गरीब हो, तुम जो कुछ भी जमा कर सकते हो, उसे वे स्वीकार करेंगें थोडा सा पत्र, थोड़ा जल, थोडे पुष्प । दुनिया के किसी भी हिस्से में, कोइ भी प्राप्त कर सकता है और कृष्ण को भेंट कर सकता है । "कृष्ण, मेरे पास आप को भेंट करने के लिए कुछ भी नहीं है, मैं बहुत गरीब हूँ । कृपया यह स्वीकार करें ।" कृष्ण स्वीकार करेंगे । कृष्ण कहते हैं, तदहं अश्नामि, "मैं स्वीकार करता हूँ ।" तो मुख्य बात है भक्ति, स्नेह, प्रेम ।

तो यहाँ कहा गाया है अलक्क्षयं । कृष्ण दिखाई नहीं देते हैं, भगवान दिखाई नहीं देते हैं, लेकिन वे बहुत दयालु हैं कि वे तुम्हारे सामने अाए हैं, तुम्हारी भौतिक आंखों को दिखाई देते हैं । कृष्ण इस भौतिक दुनिया में भौतिक आंखों को दिखते नहीं हैं । जैसे कृष्ण के अंश । हम कृष्ण के अंश हैं, सभी जीव, लेकिन हम एक दूसरे को देख नहीं सकते । तुम मुझे नहीं देख सकते हो, मैं तुम्हें नहीं देख सकता हूँ । "नहीं, मैं तुम्हे देखता हूँ ।" तुम क्या देखते हो ? तुम मेरे शरीर को देखते हो । फिर, जब आत्मा शरीर से निकल जाती है, तुम क्यों रो रहे हो "मेरे पिता चले गए हैं?" क्यों पिता चले गए ? पिता यहाँ लेटा हुए हैं । तो फिर तुमने क्या देखा है ? तुमने अपने पिता के मृत शरीर को देखा है, अपने पिता को नहीं । इसलिए यदि तुम कृष्ण के अंश, आत्मा को नहीं देख सकते हो, तो कैसे कृष्ण को देख पाअोगे ? इसलिए शास्त्र कहते हैं, अत: श्री-कृष्ण-नामादि न भवेद ग्राह्यम् इन्द्रियै: (चैतन्य चरितामृत मध्य १७.१३६) । यह कुंठित भौतिक आँखें, वह कृष्ण को नहीं देख सकती हैं, या कृष्ण का नाम नहीं सुन सकती हैं, नामादि । नाम का अर्थ है नाम । नाम का अर्थ है नाम, रूप, गुण, लीला ।

ये बातें तुम्हारी भौतिक कुंठित आँखों या इंद्रियों के द्वारा नहीं समझी जा सकती हैं । लेकिन अगर वे शुद्ध की जाती हैं, सेवन्मुखे हि जिहवादौ (चैतन्य चरितामृत मध्य १७.१३६), अगर वे भक्तिमय सेवा की प्रक्रिया द्वारा शुद्ध की जाती हैं, तुम हर समय और हर जगह कृष्ण को देख सकते हो । लेकिन आम आदमी के लिए, अलक्क्षयं : दिखाई नहीं देते । कृष्ण हर जगह हैं, भगवान हर जगह हैं, अंडांतर-स्थ-परमाणु-चयान्तर- स्थं (ब्रह्मसंहिता ५.३५) । तो अलक्क्षयं सर्व-भूतानां (श्रीमद भागवतम १.८.१८) । हालांकि कृष्ण अंदर अौर बाहर हैं, दोनों, पर हम कृष्ण को देख नहीं सकते हैं जब तक आंखें न हो उन्हें देखने के लिए ।

तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन आँखें खोलने के लिए, कि कैसे कृष्ण को देखा जा सकता है, अौर अगर तुम कृष्ण को देख सकते हो, अंत: बहि:, तो तुम्हारा जीवन सफल है । इसलिए शास्त्र कहता है कि,अंतर् बहिर् ।

अंतर बहिर, यदि हरिस तपसा तत: किं,
नान्तर बहिर यदि हरिस तपसा तत: किं
(नारद पंचरात्र)

हर कोई सिद्ध बनने की कोशिश कर रहा है, लेकिन पूर्णता का मतलब है जब हम कृष्ण को देख सकते हैं भीतर और बाहर । यही पूर्णता है ।