HI/Prabhupada 0028 - बुद्ध भगवान हैं: Difference between revisions

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गर्गमुनी (पढ़ते हुए :) "यह विचार करना भी गलत है कि केवल एक शाकाहारी बनके हम खुद को बचा सकते हैं, प्रकृति के कानूनों का उल्लंघन करने से । सब्जियाों में भी जीवन है । एक जीवन किसि दूसरे जीवन का भोजन होता है, और यह ही प्रकृति का नियम है । हमें सख्त शाकाहारी होने का गर्व नहीं होना चाहिए । बात यह है कि सर्वोच्च भगवान की पहचान होनी चाहिए । जानवरों के पास प्रभु को पहचाने के लिए विकसित चेतना नहीं है, लेकिन एक मनुष्य ... "
गर्गमुनी (पढ़ते हुए :) "यह विचार करना भी गलत है कि केवल एक शाकाहारी बनके हम खुद को बचा सकते हैं, प्रकृति के कानूनों का उल्लंघन करने से । सब्जियों में भी जीवन है । एक जीवन किसी दूसरे जीवन का भोजन होता है, और यह ही प्रकृति का नियम है । हमें सख्त शाकाहारी होने का गर्व नहीं होना चाहिए । बात यह है कि परेमेश्वर की पहचान होनी चाहिए । जानवरों के पास प्रभु को पहचानने के लिए विकसित चेतना नहीं है, लेकिन एक मनुष्य... "


प्रभुपाद: मुख्य मुद्दा यही है । जैसे की बौद्ध हैं, वे भी शाकाहारी हैं । बौद्ध सिद्धांत के अनुसार ... आजकल सब कुछ खराब हो गया है, लेकिन भगवान बुद्ध का प्रचार धुर्तों को कम से कम पशु हत्या से रोकने के लिए था । अहिंसा परमो धर्म । भगवान बुद्ध का अवतार श्रीमद्-भागवतम् और कई वैदिक साहित्य में वर्णित है । सुर-द्वि्षां । वे राक्षसों को धोखा देने के लिए आए थे । ये राक्षस ... उन्होंने ऐसी नीती बनाई कि राक्षस धोखा खा गए । उन्होंने कैसे धोखा दिया है ? राक्षस, वे भगवान के खिलाफ हैं । वे भगवान में विश्वास नहीं करते । इसलिए भगवान बुद्ध नें प्रचार किया "हाँ, कोई भगवान नहीं है । लेकिन जो मैं कहता हूँ, तुम उसका पालन करो ।" "हाँ, श्रीमान ।" लेकिन वे भगवान हैं । यह धोखा है । हॉ । वे भगवान में विश्वास नहीं करते, लेकिन बुद्ध में विश्वास करते हैं, और बुद्ध भगवान हैं । केशव धृत बुद्ध शरीर जय जगदीश हरे । इसलिए यही राक्षस और एक भक्त के बीच का अंतर है । एक भक्त देखता है कि कैसे कृष्ण, केशव, इन धूर्तों को धोखा दे रहे हैं । भक्त समझ सकता है । लेकिन राक्षस, उन्हें लगता है कि, "ओह, हमे एक अच्छा नेता मिल गया है । वह भगवान में विश्वास नहीं करता । " (हंसी) तुम समझ रहे हो ? सम्मोहाय सुर द्वि्षां (श्री भ १।३।२४) । सटीक संस्कृत शब्द श्रीमद्-भागवतम् में कहा गया है । तुमने देखा है, जिन्होने पढ़ा है : सम्मोहाय, सुर-द्विषां को भ्रमित करने के लिए । सुर-द्विषां का मतलब है जो व्यक्ति वैशणवों से जलते हैं । नास्तिक वर्ग, राक्षस, वे हमेशा भक्तों से जलते हैं । यही प्रकृति का नियम है । तुम इस पिता को देखते हो । यह पिता अपने पांच साल के बेटे का दुश्मन बन गया । उसकी गलती क्या थी ? वह एक भक्त था । बस । मासूम बच्चा । बस वह था, मेरे कहने का मतलब है, हरे कृष्ण मंत्र जाप के लिए आकर्षित था । पिता स्वयं, वह एक कट्टर दुश्मन बन गया । "इस लड़के को मार डालो ।" तो यदि एक पिता दुश्मन बन सकता है, तो दूसरों की क्या बात करें । तो तुम्हे हमेशा अपेक्षा करनी चाहिए कि जैसे ही तुम भक्त बन जाते हो, तो पूरी दुनिया तुम्हारी दुश्मन बन जाती है । बस । लेकिन तुम्हे उन लोगों के साथ व्यवहार करना पडेगा, क्योंकि तुम भगवान के सेवक नियुक्त हो । तुमहारा उद्देश्य है उन्हें प्रबुद्ध करना । तो तुम नहीं हो सकते हो । जैसे भगवान नित्यानंद, वे घायल हो गए, लेकिन फिर भी उन्होने जगाइ मधाइ का उध्धार किया । यही तुम्हारा सिद्धांत होना चाहिए । कभी कभी हमें धोखा देना पडता है, कभी कभी घायल होना पडता है - ऐसी बहुत सी बातें हैं । एकमात्र उपाय है लोग कृष्ण भावनाभावित कैसे बन सकते हैं । यही हमारा उद्देश्य है । किसी न किसी तरह से इन धूर्तों को परिवर्तित किया जाना चाहिए कृष्ण भावनामृत में, या तो इस तरह से या उस तरह से ।
प्रभुपाद: मुख्य मुद्दा यही है । जैसे की बौद्ध हैं, वे भी शाकाहारी हैं । बौद्ध सिद्धांत के अनुसार ... आजकल सब कुछ खराब हो गया है, लेकिन भगवान बुद्ध का प्रचार धुर्तों को कम से कम पशु हत्या से रोकने के लिए था । अहिंसा परमो धर्म । भगवान बुद्ध का अवतार श्रीमद्-भागवतम् और कई वैदिक साहित्य में वर्णित है । सुर-द्वि्षां । वे राक्षसों को धोखा देने के लिए आए थे । ये राक्षस ... उन्होंने ऐसी नीती बनाई कि राक्षस धोखा खा गए । उन्होंने कैसे धोखा दिया ? राक्षस, वे भगवान के खिलाफ हैं । वे भगवान में विश्वास नहीं करते । इसलिए भगवान बुद्ध नें प्रचार किया "हाँ, कोई भगवान नहीं है । लेकिन जो मैं कहता हूँ, तुम उसका पालन करो ।" "हाँ, श्रीमान ।" लेकिन वे भगवान हैं । यह धोखा है । हाँ । वे भगवान में विश्वास नहीं करते, लेकिन बुद्ध में विश्वास करते हैं, और बुद्ध भगवान हैं । केशव-धृत-बुद्ध-शरीर जय जगदीश हरे (दशवतार स्तोत्र) । इसलिए यही राक्षस और एक भक्त के बीच का अंतर है । एक भक्त देखता है कि कैसे कृष्ण, केशव, इन धूर्तों को धोखा दे रहे हैं । भक्त समझ सकता है । लेकिन राक्षस, उन्हें लगता है कि, "ओह, हमें एक अच्छा नेता मिल गया है । वह भगवान में विश्वास नहीं करता । " (हंसी) तुम समझ रहे हो ? सम्मोहाय सुर द्वि्षां ([[Vanisource:SB 1.3.24|श्रीमद भागवतम १.३.२४]]) । सटीक संस्कृत शब्द श्रीमद्-भागवतम् में कहा गया है । तुमने देखा है, जिन्होने पढ़ा है : सम्मोहाय, सुर-द्विषां को भ्रमित करने के लिए । सुर-द्विषां का अर्थ है जो व्यक्ति वैष्णवों से जलते हैं । नास्तिक वर्ग, राक्षस, वे हमेशा भक्तों से जलते हैं । यही प्रकृति का नियम है ।
 
तुम इस पिता को देखते हो । यह पिता अपने पांच साल के बेटे का दुश्मन बन गया । उसकी गलती क्या थी ? वह एक भक्त था । बस । मासूम बच्चा । बस वह था, मेरे कहने का मतलब है, हरे कृष्ण मंत्र जाप के प्रति आकर्षित था । पिता स्वयं, वह एक कट्टर दुश्मन बन गया । "इस लड़के को मार डालो ।" तो यदि एक पिता दुश्मन बन सकता है, तो दूसरों की क्या बात करें । तो तुम्हें हमेशा अपेक्षा करनी चाहिए कि जैसे ही तुम भक्त बन जाते हो, तो पूरी दुनिया तुम्हारी दुश्मन बन जाती है । बस । लेकिन तुम्हें उन लोगों के साथ व्यवहार करना पड़ेगा, क्योंकि तुम भगवान के सेवक नियुक्त हुए हो । तुम्हारा उद्देश्य है उन्हें प्रबुद्ध करना । तो तुम नहीं हो सकते हो । जैसे भगवान नित्यानंद, वे घायल हो गए, लेकिन फिर भी उन्होंने जगाइ मधाइ का उध्धार किया । यही तुम्हारा सिद्धांत होना चाहिए । कभी कभी हमें धोखा देना पड़ता है, कभी कभी घायल होना पड़ता है - ऐसी बहुत सी बातें हैं । एकमात्र उपाय है लोग कृष्ण भावनाभावित कैसे बन सकते हैं । यही हमारा उद्देश्य है । किसी न किसी तरह से इन धूर्तों को परिवर्तित किया जाना चाहिए कृष्ण भावनामृत में, या तो इस तरह से या उस तरह से ।  
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020



Lecture on Sri Isopanisad, Mantra 1 -- Los Angeles, May 3, 1970

गर्गमुनी (पढ़ते हुए :) "यह विचार करना भी गलत है कि केवल एक शाकाहारी बनके हम खुद को बचा सकते हैं, प्रकृति के कानूनों का उल्लंघन करने से । सब्जियों में भी जीवन है । एक जीवन किसी दूसरे जीवन का भोजन होता है, और यह ही प्रकृति का नियम है । हमें सख्त शाकाहारी होने का गर्व नहीं होना चाहिए । बात यह है कि परेमेश्वर की पहचान होनी चाहिए । जानवरों के पास प्रभु को पहचानने के लिए विकसित चेतना नहीं है, लेकिन एक मनुष्य... "

प्रभुपाद: मुख्य मुद्दा यही है । जैसे की बौद्ध हैं, वे भी शाकाहारी हैं । बौद्ध सिद्धांत के अनुसार ... आजकल सब कुछ खराब हो गया है, लेकिन भगवान बुद्ध का प्रचार धुर्तों को कम से कम पशु हत्या से रोकने के लिए था । अहिंसा परमो धर्म । भगवान बुद्ध का अवतार श्रीमद्-भागवतम् और कई वैदिक साहित्य में वर्णित है । सुर-द्वि्षां । वे राक्षसों को धोखा देने के लिए आए थे । ये राक्षस ... उन्होंने ऐसी नीती बनाई कि राक्षस धोखा खा गए । उन्होंने कैसे धोखा दिया ? राक्षस, वे भगवान के खिलाफ हैं । वे भगवान में विश्वास नहीं करते । इसलिए भगवान बुद्ध नें प्रचार किया "हाँ, कोई भगवान नहीं है । लेकिन जो मैं कहता हूँ, तुम उसका पालन करो ।" "हाँ, श्रीमान ।" लेकिन वे भगवान हैं । यह धोखा है । हाँ । वे भगवान में विश्वास नहीं करते, लेकिन बुद्ध में विश्वास करते हैं, और बुद्ध भगवान हैं । केशव-धृत-बुद्ध-शरीर जय जगदीश हरे (दशवतार स्तोत्र) । इसलिए यही राक्षस और एक भक्त के बीच का अंतर है । एक भक्त देखता है कि कैसे कृष्ण, केशव, इन धूर्तों को धोखा दे रहे हैं । भक्त समझ सकता है । लेकिन राक्षस, उन्हें लगता है कि, "ओह, हमें एक अच्छा नेता मिल गया है । वह भगवान में विश्वास नहीं करता । " (हंसी) तुम समझ रहे हो ? सम्मोहाय सुर द्वि्षां (श्रीमद भागवतम १.३.२४) । सटीक संस्कृत शब्द श्रीमद्-भागवतम् में कहा गया है । तुमने देखा है, जिन्होने पढ़ा है : सम्मोहाय, सुर-द्विषां को भ्रमित करने के लिए । सुर-द्विषां का अर्थ है जो व्यक्ति वैष्णवों से जलते हैं । नास्तिक वर्ग, राक्षस, वे हमेशा भक्तों से जलते हैं । यही प्रकृति का नियम है ।

तुम इस पिता को देखते हो । यह पिता अपने पांच साल के बेटे का दुश्मन बन गया । उसकी गलती क्या थी ? वह एक भक्त था । बस । मासूम बच्चा । बस वह था, मेरे कहने का मतलब है, हरे कृष्ण मंत्र जाप के प्रति आकर्षित था । पिता स्वयं, वह एक कट्टर दुश्मन बन गया । "इस लड़के को मार डालो ।" तो यदि एक पिता दुश्मन बन सकता है, तो दूसरों की क्या बात करें । तो तुम्हें हमेशा अपेक्षा करनी चाहिए कि जैसे ही तुम भक्त बन जाते हो, तो पूरी दुनिया तुम्हारी दुश्मन बन जाती है । बस । लेकिन तुम्हें उन लोगों के साथ व्यवहार करना पड़ेगा, क्योंकि तुम भगवान के सेवक नियुक्त हुए हो । तुम्हारा उद्देश्य है उन्हें प्रबुद्ध करना । तो तुम नहीं हो सकते हो । जैसे भगवान नित्यानंद, वे घायल हो गए, लेकिन फिर भी उन्होंने जगाइ मधाइ का उध्धार किया । यही तुम्हारा सिद्धांत होना चाहिए । कभी कभी हमें धोखा देना पड़ता है, कभी कभी घायल होना पड़ता है - ऐसी बहुत सी बातें हैं । एकमात्र उपाय है लोग कृष्ण भावनाभावित कैसे बन सकते हैं । यही हमारा उद्देश्य है । किसी न किसी तरह से इन धूर्तों को परिवर्तित किया जाना चाहिए कृष्ण भावनामृत में, या तो इस तरह से या उस तरह से ।