HI/Prabhupada 0061 - यह शरीर त्वचा, हड्डी, रक्त का एक थैला है: Difference between revisions

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मेरे प्यारे लड़कों और लड़कियों, मैं इस बैठक में भाग लेने के लिए तुम्हारा बहुत बहुत धन्यवाद करता हूँ। हम यह कृष्ण चेतना आंदोलन फैला रहे हैं क्योंकि इस आंदोलन की एक बड़ी जरूरत है, पूरी दुनिया में, और इसकि प्रक्रिया बहुत आसान है। यही फायदा है। तो पहले, यह समझने कि कोशिश करो कि यह दिव्य मंच क्या है। जहॉ तक हमारे रहने की स्थिति का संबंध है, हम विभिन्न मंचो पर हैं। इसलिए सबसे पहले हमें इस दिव्य मंच पर खडा होना होगा। फिर ही दिव्य ध्यान का सवाल है। भगवद गीता के, तीसरा अध्याय में, तुम्हें ज्ञात होगा कि सशर्त जीवन के विभिन्न दर्जे हैं। पहला है इन्द्रियानि परानि अहुर् .. (भ गी ३।४२) संस्कृत, इन्द्रियानि पहली बात यह है कि शारीरिक जीवन की अवधारणा। इस भौतिक संसार में हम में से हर एक, हम इस शारीरिक जीवन की अवधारणा के तहत हैं। मैं सोच रहा हूँ भारतीय, "मैं भारतीय हूं।", तुम सोच रहे हो तुम अमेरिकी हो। कोइ सोचता है, "मैं रूसी हूँ।" कोइ सोचता है "मैं कोइ अौर हूँ।" तो हर कोई सोच रहा है कि "मैं यह शरीर हूँ।" यह एक मानक है, या एक मंच है। इस मंच को कामुक मंच कहा जाता है क्योंकि इतने लंबे समय से हम जीवन की शारीरिक अवधारणा में हैं, हमें लगता है कि खुशी का मतलब है इन्द्रिय संतुष्टि। बस। खुशी का मतलब है इन्द्रिय संतुष्टि क्योंकि शरीर का मतलब है इन्द्रियॉ। तो इन्द्रियानि परानि अाहुर् इन्द्रियेभ्यह परम् मनह (भ गी ३।४२) भगवान कृष्ण कहते हैं कि, जीवन की भौतिक अवधारणा में, या जीवन की शारीरिक अवधारणा में, हमारी इन्द्रियॉ बहुत महत्वपूर्ण हैं। यही वर्तमान समय में चल रहा है। वर्तमान समय में नहीं, इस भौतिक दुनिया के निर्माण के प्रारम्भ से। यही बीमारी है कि "मैं यह शरीर हूँ।" श्रीमद-भागवत का कहना है कि यस्यात्म बुध्धिहि कुनपे त्रि धातुके स्व-दिहि कलत्रादिशु भौम इज्य-दिहि ( श्री भ १०।८४।१३) कि "जो भी इस शारीरिक अवधारणा कि समझ रखता है, कि "मैं यह शरीर हूँ ..." अात्म बुद्धिहि कुनपे त्रि धातु। आत्म-बुद्धिहि का मतलब है स्वयं की अवधारणा इस त्वचा और हड्डी के बैग में। यह एक बैग (थैला) है। यह शरीर एक बैग है, त्वचा, हड्डी, रक्त, मूत्र, मल, और इतनी सारी अच्छी बातों का। तुम देख रहे हो? लेकिन हम सोच रहे हैं कि "मैं हड्डी और त्वचा और मल और मूत्र का यह बैग हूँ। यही हमारा सौंदर्य है। यही हमारा सब कुछ है।" कई अच्छी कहानियाँ हैं ... लेकिन, हमारे पास समय बहुत ही कम है। फिर भी, मैं एक छोटी सी कहानी सुनाने की इच्छा रखता हूँ। कि एक आदमी, एक लड़का, एक खूबसूरत लड़की से आकर्षित हो गया था। तो लड़की सहमत नहीं है, और लड़का लगातार कोशीश करता है। तो भारत में, जाहिर है, लड़कियॉ, वे बहुत सख्ती से अपने शुद्धता रखती हैं। तो लड़की सहमत नहीं थी। तो उसने कहा, "ठीक है, मैं मानती हूँ। तुम एक सप्ताह के बाद अाना।" उसने नियुक्त किया "ऐसे समय पर तुम आना।" तो लड़का बहुत खुश हुअा। और उस लड़की नें, सात दिन तक कुछ रेचक ले लिया, और वह दिन और रात मल कर रही थी और उल्टी कर रही थी। और उसने एक अच्छे बर्तन में इन सभी उल्टी और मल को रखा। तो नियमित समय पर, वह लड़का आया, और लड़की दरवाजे पर बैठा थी। लड़के ने पूछा, "कहाँ है वह लड़की?" उसने कहा, "मैं ही वह लड़की हूँ।" "नहीं, नहीं। तुम नहीं हो। तुम बहुत बदसूरत हैं। वह इतनी सुंदर थी। तुम वह लड़की नहीं हो।" "नहीं, मैं वही लड़की हूँ, लेकिन मैंनें अब अपनी सुंदरता को अलग कर दिया है एक बर्तन में।" "वह क्या है?" वह दिखाति है: "यह सुंदरता है , यह मल और उल्टी। यह घटक है। असल में कोइ भी बहुत मजबूत या बहुत खूबसूरत हो सकता है - अगर वह तीन या चार बार मल से गुजरता है, तो सब कुछ बदल जाता है। तो मेरे कहने का मतलब है, जैसे कि श्रीमद-भागवत में कहा गया है, जीवन की यह शारीरिक अवधारणा बहुत आशावादी नहीं है। यस्यात्म बुध्धिहि कुनपे त्रि धातुके ( श्री भ १०।८४।१३)
मेरे प्यारे लड़कों और लड़कियों, मैं इस बैठक में भाग लेने के लिए तुम्हें बहुत बहुत धन्यवाद करता हूँ । हम यह कृष्णभावनामृत आंदोलन फैला रहे हैं क्योंकि इस आंदोलन की बड़ी जरूरत है, पूरी दुनिया में, और इसकी प्रक्रिया बहुत आसान है । यही फायदा है । सब से पहले, यह समझने की कोशिश करो कि यह दिव्य स्तर क्या है । जहाँ तक हमारे रहने की स्थिति का संबंध है, हम विभिन्न स्तरों पर हैं । इसलिए सबसे पहले हमें इस दिव्य स्तर पर अाना होगा । फिर दिव्य समाधि का सवाल है । भगवद्गीता के, तीसरे अध्याय में, तुम्हें ज्ञात होगा कि बद्ध जीवन के विभिन्न दर्जे हैं । पहला है इन्द्रियाणि पराण्य अहुर् .. ([[HI/BG 3.42|भ गी ३.४२ ]]) संस्कृत, इन्द्रियाणि ।
 
पहली बात है यह देहात्मबुद्धि । इस भौतिक संसार में हम में से हर एक, हम इस देहात्मबुद्धि के अधीन हैं । मैं सोच रहा हूँ भारतीय, "मैं भारतीय हूँ ।" आप सोच रहे हैं आप अमरिकी हैं । कोइ सोचता है, "मैं रूसी हूँ ।" कोइ सोचता है "मैं कोइ अौर हूँ ।" तो हर कोई सोच रहा है कि, "मैं यह शरीर हूँ ।" यह एक अादर्श है, या एक स्तर है । इस स्तर को विषयी-स्तर कहा जाता है क्योंकि जब तक हम देहात्मबुद्धि में हैं, हमें लगता है कि सुख का अर्थ है इन्द्रिय संतुष्टि ।  बस । सुख का अर्थ है इन्द्रिय संतुष्टि क्योंकि शरीर का अर्थ है इन्द्रियाँ । तो इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन: ([[HI/BG 3.42|भ गी ३.४२ ]]) भगवान कृष्ण कहते हैं कि, देहात्मबुद्धि में, हमारी इन्द्रियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं । यही वर्तमान समय में चल रहा है । वर्तमान समय में नहीं, इस भौतिक संसार के सृजन से । यही बिमारी है कि, "मैं यह शरीर हूँ ।"
 
श्रीमद-भागवत का कहना है कि यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रिधातुके स्व-धी: कलत्रादिषु भौम इज्य-धि: ([[Vanisource:SB 10.84.13|श्रीमद भागवतम् १०.८४.१३]]), कि, "जो भी इस देहात्मबुद्धि की समझ रखता है, कि "मैं यह शरीर हूँ ..." अात्म बुद्धि: कुनपे त्रि-धातु । आत्म-बुद्धि: का अर्थ है स्वयं की धारणा इस त्वचा और हड्डी के थैले में । यह एक थैला है । यह शरीर एक थैला है, त्वचा, हड्डी, रक्त, मूत्र, मल और इतनी सारी अच्छी चीजों का । अाप समझ रहे हैं ? लेकिन हम सोच रहे हैं कि, "मैं हड्डी और त्वचा और मल और मूत्र का यह थैला हूँ । यही हमारा सौंदर्य है । यही हमारा सब कुछ है ।"
 
कई अच्छी कहानियाँ हैं ... निश्चित रुप से, हमारे पास समय बहुत ही कम है । फिर भी, मैं एक छोटी-सी कहानी सुनाने की इच्छा रखता हूँ, कि एक आदमी, एक लड़का, एक खूबसूरत लड़की से आकर्षित हो गया था । परन्तु लड़की सहमत नहीं होती और लड़का लगातार कोशिश करता है । तो भारत में, निस्सन्देह, लड़कियाँ, वे बहुत सख्त़ी से अपनी शुद्धता रखती हैं । तो लड़की सहमत नहीं हो रही थी । तो उसने कहा, "ठीक है, मैं सहमत हूँ । तुम एक सप्ताह के बाद अाना ।" उसने नियुक्त किया "इस समय पर तुम आना ।" तो लड़का बहुत खुश हुअा । और उस लड़की नें, सात दिनों तक कुछ जुलाब लिया, और वह दिन और रात मल त्याग रही थी और उल्टी कर रही थी, और उसने एक अच्छे बर्तन में इन सभी उल्टी और मल को रखा । तो जब नियत समय अाया, वह लड़का आया, और लड़की दरवाजे पर बैठी थी । लड़के ने पूछा, " वह लड़की कहाँ है ?" उसने कहा, "मैं ही वह लड़की हूँ ।" "नहीं, नहीं । तुम नहीं हो । तुम बहुत बदसूरत हो । वह इतनी सुंदर थी । तुम वह लड़की नहीं हो ।" "नहीं, मैं वही लड़की हूँ, लेकिन अब मैंनें अपनी सुंदरता को एक अलग बर्तन में रख दिया है " "वह क्या है ?" वह दिखाती है: "यह सुंदरता है, यह मल और उल्टी । यह उपादान हैं ।"
 
असल में कोइ भी बहुत मज़बूत या बहुत खूबसूरत हो सकता है - अगर वह तीन या चार बार मल त्यगता है, तो सब कुछ बदल जाता है । तो मेरे कहने का अर्थ है, जैसा कि श्रीमद-भागवतम् में कहा गया है, कि देहात्मबुद्धि बहुत प्रत्याशापूर्ण नहीं है । यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके ([[Vanisource:SB 10.84.13|श्रीमद् भागवतस् १०.८४.१३ ]])
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Latest revision as of 18:03, 17 September 2020



Northeastern University Lecture -- Boston, April 30, 1969

मेरे प्यारे लड़कों और लड़कियों, मैं इस बैठक में भाग लेने के लिए तुम्हें बहुत बहुत धन्यवाद करता हूँ । हम यह कृष्णभावनामृत आंदोलन फैला रहे हैं क्योंकि इस आंदोलन की बड़ी जरूरत है, पूरी दुनिया में, और इसकी प्रक्रिया बहुत आसान है । यही फायदा है । सब से पहले, यह समझने की कोशिश करो कि यह दिव्य स्तर क्या है । जहाँ तक हमारे रहने की स्थिति का संबंध है, हम विभिन्न स्तरों पर हैं । इसलिए सबसे पहले हमें इस दिव्य स्तर पर अाना होगा । फिर दिव्य समाधि का सवाल है । भगवद्गीता के, तीसरे अध्याय में, तुम्हें ज्ञात होगा कि बद्ध जीवन के विभिन्न दर्जे हैं । पहला है इन्द्रियाणि पराण्य अहुर् .. (भ गी ३.४२ ) । संस्कृत, इन्द्रियाणि ।

पहली बात है यह देहात्मबुद्धि । इस भौतिक संसार में हम में से हर एक, हम इस देहात्मबुद्धि के अधीन हैं । मैं सोच रहा हूँ भारतीय, "मैं भारतीय हूँ ।" आप सोच रहे हैं आप अमरिकी हैं । कोइ सोचता है, "मैं रूसी हूँ ।" कोइ सोचता है "मैं कोइ अौर हूँ ।" तो हर कोई सोच रहा है कि, "मैं यह शरीर हूँ ।" यह एक अादर्श है, या एक स्तर है । इस स्तर को विषयी-स्तर कहा जाता है क्योंकि जब तक हम देहात्मबुद्धि में हैं, हमें लगता है कि सुख का अर्थ है इन्द्रिय संतुष्टि । बस । सुख का अर्थ है इन्द्रिय संतुष्टि क्योंकि शरीर का अर्थ है इन्द्रियाँ । तो इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन: (भ गी ३.४२ ) । भगवान कृष्ण कहते हैं कि, देहात्मबुद्धि में, हमारी इन्द्रियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं । यही वर्तमान समय में चल रहा है । वर्तमान समय में नहीं, इस भौतिक संसार के सृजन से । यही बिमारी है कि, "मैं यह शरीर हूँ ।"

श्रीमद-भागवत का कहना है कि यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रिधातुके स्व-धी: कलत्रादिषु भौम इज्य-धि: (श्रीमद भागवतम् १०.८४.१३), कि, "जो भी इस देहात्मबुद्धि की समझ रखता है, कि "मैं यह शरीर हूँ ..." अात्म बुद्धि: कुनपे त्रि-धातु । आत्म-बुद्धि: का अर्थ है स्वयं की धारणा इस त्वचा और हड्डी के थैले में । यह एक थैला है । यह शरीर एक थैला है, त्वचा, हड्डी, रक्त, मूत्र, मल और इतनी सारी अच्छी चीजों का । अाप समझ रहे हैं ? लेकिन हम सोच रहे हैं कि, "मैं हड्डी और त्वचा और मल और मूत्र का यह थैला हूँ । यही हमारा सौंदर्य है । यही हमारा सब कुछ है ।"

कई अच्छी कहानियाँ हैं ... निश्चित रुप से, हमारे पास समय बहुत ही कम है । फिर भी, मैं एक छोटी-सी कहानी सुनाने की इच्छा रखता हूँ, कि एक आदमी, एक लड़का, एक खूबसूरत लड़की से आकर्षित हो गया था । परन्तु लड़की सहमत नहीं होती और लड़का लगातार कोशिश करता है । तो भारत में, निस्सन्देह, लड़कियाँ, वे बहुत सख्त़ी से अपनी शुद्धता रखती हैं । तो लड़की सहमत नहीं हो रही थी । तो उसने कहा, "ठीक है, मैं सहमत हूँ । तुम एक सप्ताह के बाद अाना ।" उसने नियुक्त किया "इस समय पर तुम आना ।" तो लड़का बहुत खुश हुअा । और उस लड़की नें, सात दिनों तक कुछ जुलाब लिया, और वह दिन और रात मल त्याग रही थी और उल्टी कर रही थी, और उसने एक अच्छे बर्तन में इन सभी उल्टी और मल को रखा । तो जब नियत समय अाया, वह लड़का आया, और लड़की दरवाजे पर बैठी थी । लड़के ने पूछा, " वह लड़की कहाँ है ?" उसने कहा, "मैं ही वह लड़की हूँ ।" "नहीं, नहीं । तुम नहीं हो । तुम बहुत बदसूरत हो । वह इतनी सुंदर थी । तुम वह लड़की नहीं हो ।" "नहीं, मैं वही लड़की हूँ, लेकिन अब मैंनें अपनी सुंदरता को एक अलग बर्तन में रख दिया है ।" "वह क्या है ?" वह दिखाती है: "यह सुंदरता है, यह मल और उल्टी । यह उपादान हैं ।"

असल में कोइ भी बहुत मज़बूत या बहुत खूबसूरत हो सकता है - अगर वह तीन या चार बार मल त्यगता है, तो सब कुछ बदल जाता है । तो मेरे कहने का अर्थ है, जैसा कि श्रीमद-भागवतम् में कहा गया है, कि देहात्मबुद्धि बहुत प्रत्याशापूर्ण नहीं है । यस्यात्म बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके (श्रीमद् भागवतस् १०.८४.१३ ) ।