HI/Prabhupada 0066 - हमें कृष्ण की इच्छाओं से सेहमत होना है: Difference between revisions

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अब हम चुनाव है - हम भक्त बनना चाहते है या नही या हम दानव रहना चाहते है. या मेरा चुनाव है. कृष्ण कहता है की तुम इस राक्षसी सगाई को छोड़के मेरे पास आत्मसमर्पण हो जाओ. यह कृष्ण का इच्छा है. अगर तुम कृष्ण का इच्छा से सहमत नही हो अगर तुम अपना खुद के इच्छा से अनांगे मे रहना चाहते हो तो फिर भी कृष्ण खुश हो जाएगा, और तुम्हारे सारे आवश्यकताओं को पूरा करेगा पर यह इतना अच्छा नही है. हमें कृष्ण के इच्छाओं को सहमत करना चाहिए हमें अपने इच्छाओं को बढ़ने से रोकना चाहिए. इस को तपस्या कहते है हमें अपने इच्छाओं को भी त्याग करना चाहिए. इसी कोई बलिदान कहते है हमे बस कृष्ण का इच्छा को स्वीकार करना चाहिए. यही भगवत गीता का सिक्षा है अर्जुन लाढ़ना नही चाहता था परंतु कृष्णा लाढ़न चाहता था. बिल्कुल विपरीत. अंत में अर्जुन ने कृष्ण का इच्छा को मान लिया... "हाँ" करिश्ये वचनाम तवा (गीता 18.73): "हाँ, मैं तुम्हारा इच्छा के अनुसार चलूँगा" यही भक्ति है. भक्ति और कर्म में यही अंतर है. कर्मा का मतलब है की मेरे इच्छाओं को पूरी करो, और भक्ति का मतलब है को कृष्ण की इच्छाओं को पूरी करो. फर्क यही है. अब तुम चुनो. तुम अपने इच्छाओं को पूरी करना चाहते हो या कृष्ण का इच्छाओं को पूरी करना चाहते हो अगर तुम कृष्णा का इच्छाओं को चुना है, तो तुम्हारा जीवन सफल है. यही कृष्णा भावणामृत जीवन है. कृष्ण चाहता है, "मुझे करना पढ़ेगा. मैं अपने लिए कुछ नही करने वाला" यही वृंदावन है. वृंदावन के सारे वासियों बस कृष्ण के इच्छाओं को पूरी करना चाहते है ग्वालों, बछढ़रो, गाय, पेड़, और फूल. पानी, गोपियों, बुजुर्ग निवासियों, माता यशोदा, और नन्द वे सब कृष्ण की इच्छा को पूरी करने में लगे हुए हैं. यही वृंदावन है. तो तुम इस भौतिक संसार को वृंदावन में बदल सकते हो अगर तुम कृष्ण के इच्छाओं को पूरी करने के लिए तय्यार हो तो. वही वृंदावन है. अगर तुम अपने इच्छाओं को पूरी करना छठे हो तो यह भौतिक है यही भौतिक और अध्यात्मिक का अंतर है.
अब यह हमारा चुनाव है - हम भक्त बनना चाहते हैं या नहीं या हम दानव बने रहना चाहते हैं । यह मेरा चुनाव है कृष्ण कहते हैं कि, "तुम इस अासुरी प्रवृत्ति को छोड़ कर मेरी शरण में अाअो ।" यह कृष्ण की इच्छा है अगर तुम कृष्ण की इच्छा से सहमत नही होते हो, अगर तुम अपनी इच्छाअों का भोग करना चाहते हो, तब भी, कृष्ण प्रसन्न होते हैं, वे तुम्हारी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे । पर एसा करना बहुत अच्छा नहीं है हमें कृष्ण की इच्छाओं से सहमत होना चाहिए
 
हमें अपनी इच्छाओं को, अासुरी इच्छाअों, को बढ़ने से रोकना चाहिए । इसी को तपस्या कहते हैं । हमें अपनी इच्छाओं को त्यागना है । इसे त्याग कहते हैं । हमें केवल कृष्ण की इच्छा को स्वीकार करना चाहिए यही भगवत्-गीता का अादेश है अर्जुन की इच्छा थी युद्ध न करने की, परन्तु कृष्ण की इच्छा युद्ध करने की थी, बिल्कुल विपरीत । अर्जुन अंत में कृष्ण की इच्छा की पूर्ति करने के लिए सहमत हो गए: "हाँ," करिष्ये वचनं तव ([[HI/BG 18.73|भ गी १८.७३ ]]): "हाँ, मैं अापकी इच्छा के अनुसार कार्य करूँगा ।" यही भक्ति है
 
भक्ति और कर्म के बीच में यही अंतर है । कर्म का अर्थ है कि अपनी इच्छाओं को पूरा करना और भक्ति का अर्थ है कृष्ण की इच्छाओं को पूरा करना । यही अंतर है अब आप चुनाव करो, कि आप अपनी इच्छाओं को पूरा करना चाहते हैं या कृष्ण की इच्छाओं को पूरा करना चाहते हैं । अगर आप कृष्ण की इच्छाओं को पूरा करने का चुनाव करते हैं, तो आपका जीवन सफल है । यह हमारा कृष्णभावनामृत जीवन है । "कृष्ण इसे चाहते हैं, मुझे यह करना होगा । मैं अपने लिए कुछ नहीं करूँगा ।" यह वृंदावन है
 
वृंदावन के सभी निवासी, वे कृष्ण की इच्छा को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं । ग्वालबाल, बछ़डे, गाय, पेड़, फूल, जल, गोपियँ, वृद्ध निवासी, माता यशोदा, नन्द, वे सब कृष्ण की इच्छा को पूरा करने में लगे हुए हैं यही वृंदावन है। तो आप इस भौतिक संसार को वृंदावन में बदल सकते हैं बशर्ते आप कृष्ण की इच्छाओं को पूरा करने के लिए सहमत हों । यह वृंदावन है । और यदि आप अपनी इच्छाओं को पूरा करना चाहते हैं, तो यह भौतिक है यही भौतिक और अाध्यात्मिक में अंतर है
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Latest revision as of 18:04, 17 September 2020



Lecture on BG 16.4 -- Hawaii, January 30, 1975

अब यह हमारा चुनाव है - हम भक्त बनना चाहते हैं या नहीं या हम दानव बने रहना चाहते हैं । यह मेरा चुनाव है । कृष्ण कहते हैं कि, "तुम इस अासुरी प्रवृत्ति को छोड़ कर मेरी शरण में अाअो ।" यह कृष्ण की इच्छा है । अगर तुम कृष्ण की इच्छा से सहमत नही होते हो, अगर तुम अपनी इच्छाअों का भोग करना चाहते हो, तब भी, कृष्ण प्रसन्न होते हैं, वे तुम्हारी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे । पर एसा करना बहुत अच्छा नहीं है । हमें कृष्ण की इच्छाओं से सहमत होना चाहिए ।

हमें अपनी इच्छाओं को, अासुरी इच्छाअों, को बढ़ने से रोकना चाहिए । इसी को तपस्या कहते हैं । हमें अपनी इच्छाओं को त्यागना है । इसे त्याग कहते हैं । हमें केवल कृष्ण की इच्छा को स्वीकार करना चाहिए । यही भगवत्-गीता का अादेश है । अर्जुन की इच्छा थी युद्ध न करने की, परन्तु कृष्ण की इच्छा युद्ध करने की थी, बिल्कुल विपरीत । अर्जुन अंत में कृष्ण की इच्छा की पूर्ति करने के लिए सहमत हो गए: "हाँ," करिष्ये वचनं तव (भ गी १८.७३ ): "हाँ, मैं अापकी इच्छा के अनुसार कार्य करूँगा ।" यही भक्ति है ।

भक्ति और कर्म के बीच में यही अंतर है । कर्म का अर्थ है कि अपनी इच्छाओं को पूरा करना और भक्ति का अर्थ है कृष्ण की इच्छाओं को पूरा करना । यही अंतर है । अब आप चुनाव करो, कि आप अपनी इच्छाओं को पूरा करना चाहते हैं या कृष्ण की इच्छाओं को पूरा करना चाहते हैं । अगर आप कृष्ण की इच्छाओं को पूरा करने का चुनाव करते हैं, तो आपका जीवन सफल है । यह हमारा कृष्णभावनामृत जीवन है । "कृष्ण इसे चाहते हैं, मुझे यह करना होगा । मैं अपने लिए कुछ नहीं करूँगा ।" यह वृंदावन है ।

वृंदावन के सभी निवासी, वे कृष्ण की इच्छा को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं । ग्वालबाल, बछ़डे, गाय, पेड़, फूल, जल, गोपियँ, वृद्ध निवासी, माता यशोदा, नन्द, वे सब कृष्ण की इच्छा को पूरा करने में लगे हुए हैं । यही वृंदावन है। तो आप इस भौतिक संसार को वृंदावन में बदल सकते हैं बशर्ते आप कृष्ण की इच्छाओं को पूरा करने के लिए सहमत हों । यह वृंदावन है । और यदि आप अपनी इच्छाओं को पूरा करना चाहते हैं, तो यह भौतिक है । यही भौतिक और अाध्यात्मिक में अंतर है ।