HI/Prabhupada 0182 - उसी धुली हुई हालत में अपने आप को रखो

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Lecture on SB 2.3.15 -- Los Angeles, June 1, 1972

एक लाभ है, कृष्ण के बारे में सुनकर, वह धीरे - धीरे निष्पाप हो जाता है, सिर्फ सुनने से । अगर हम पापी न होते, तो हम इस भौतिक संसार में नहीं आते । तो हमें भगवद धाम जाने से पहले निष्पाप बनना है । क्योंकि परमेश्वर का राज्य ... भगवान शुद्ध है, राज्य शुद्ध है । कोई अशुद्ध जीव वहां प्रवेश नहीं कर सकता है । तो हमें शुद्ध होना है । वह भी भगवद गीता में कहा गया है । येशाम अंत-गतम पापम । "जो पूरी तरह से मुक्त है अपने जीवन के सारे पाप की प्रतिक्रियाअों से," येशाम अंत-गतम पापम जनानाम पुण्य-कर्मणाम, "और हमेशा पवित्र गतिविधियों में लगे हुए हैं, कोई और पापी कार्य नहीं..." इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन में एक मौका दिया जाता है कि वह सभी पापी गतिविधियों को मिटा दे और खुद को बरकरार रखते हुए : कोई अवैध मैथुन नहीं, कोई नशा नहीं, कोई मांस खाना नहीं, कोई जुआ नहीं । अगर हम इन नियमों का पालन करें, तो दीक्षा के बाद, मेरे सारे पाप धुल जाते हैं । और अगर हम अपने अाप को धुला हुअा रखते हैं, तो फिर से पापी बनने का सवाल कहाँ है? लेकिन एक बार धूल जाने के बाद, तुम स्नान लो, और फिर धूल लेकर अपने शरीर पर फेंको - यह प्रक्रिया मदद नहीं करेगी । यदि तुम कहते हो, "मैं धोता हूँ अौर फिर फेंकता हूँ, " तो उस धोने का क्या लाभ ? धो डालो । एक बार धोया, अब उसी धूलि हुई हालत में अपने आप को रखो यह आवश्यक है ।

तो यह संभव होगा जब तुम कृष्ण के साथ लगातार संपर्क में खुद को रखो, उनके बारे में सुनकर । बस । तुम्हे पवित्र रहना होगा । अौर यह है पुण्य-श्रवण-कीर्तन: । अगर तुम कृष्ण के बारे में सुनते हो, तो पुण्य, तुम पवित्र स्थिति में हमेशा रहोगे । पुण्य-श्रवण-कीर्तन: । या तुम जप करो या इसलिए हमारी सिफारिश है हमेशा मंत्र का जप करो - हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे । इसलिए हमें ख़ुदको फिर से नीचे पापी कार्योमें गिरने सावधान रहना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को सावधान रहना होगा, और जप प्रक्रिया में अपने आप को रखना चाहिए । फिर वह ठीक है । तो शृण्वताम स्व-कथा कृष्ण : पुण्य-श्रवण-कीर्तन: (श्रीमद भागवतम १.२.१७) | और धीरे - धीरे, जैसे तुम कृष्ण के बारे में सुनते रहोगे, ह्रदय के भीतर की सभी अशुद्ध बातें शुद्ध हो जाएँगी । अशुद्ध चीजें यह कि "मैं एक भौतिक शरीर हूँ, " मैं अमेरिकी हूँ, मैं भारतीय हूं, मैं हिंदू हूँ, मैं मुसलमान हूं, मैं यह हूँ, में वह हूँ। " ये सभी आत्मा के विभिन्न प्रकार के आवरण हैं ।

निरावरणित आत्मा पूरी तरह से सचेत है "मैं भगवान का अनन्त दास हूं। " बस । कोई अन्य पहचान नहीं है । यही मुक्ति कहा जाता है । जब हमें समझ में आता है कि "मैं कृष्ण, भगवान, का अनन्त दास हूं। और मेरा काम उनकी सेवा करना है, " यह मुक्ति कहा जाता है। मुक्ति का मतलब यह नहीं है, कि तुम्हारे अौर दो हाथ होंगे, अौर दो पैर । नहीं । एक ही बात है, बस यह शुद्ध है । जैसे एक आदमी बुखार से पीड़ित है । लक्षण तो कई हैं, लेकिन जैसे ही बुखार नहीं रहता, तो सभी लक्षण चले जाते हैं । तो हमारा बुखार इस भौतिक दुनिया में इन्द्रिय संतुष्टि है । इन्द्रिय संतुष्टि । यही बुखार है । तो जब हम कृष्ण भावनामृत में लगते हें, यह इन्द्रिय संतुष्टि का काम नहीं रहता । फर्क यही है । यही परीक्षण है कि कैसे तुम कृष्ण भावनामृत में उन्नती कर रहे हो ।