HI/Prabhupada 0259 - कृष्ण को प्यार करने के उत्कृष्ट मंच पर पुन: स्थापित होना

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Lecture -- Seattle, September 27, 1968

कोई भी इस बैठक में कह सकता है कि वह किसी का भी यह किसी चीज़ का भी नौकर नहीं है ? उसे होना चाहिए क्योंकि उसकी संवैधानिक स्थिति यही है । लेकिन कठिनाई यह है कि अपनी इंद्रियों की सेवा करके, समस्याअों का कोई समाधान नहीं है, दुख का । कुछ समय के लिए, मैं, मैं अपने आप को संतुष्ट कर सकता हूँ कि मैने यह नशा लिया है, और इस नशे के जादू के तहत मैं सोचता हूँ, ", मैं आज़ाद हूँ । मैं किसी का भी नौकर नहीं हूँ," लेकिन यह कृत्रिम है ।

जैसे ही माया चला जाती है, वह उसी हालत में पहुँ जाता है, नौकर के । फिर से नौकर । तो यह हमारी स्थिति है । लेकिन क्यों यह संघर्ष है? मैं सेवा करने के लिए मजबूर किया जा रहा हूँ, लेकिन मैं सेवा करने की इच्छा नहीं रखता हूँ । तो ठीक करना कैसे है? ठीक कर सकते है कृष्ण भावनामृत से, अगर तुम कृष्ण के नौकर हो जाते हो, तो तुम्हारी आकांक्षा मालिक बनने की, अौर उसी समय तुम्हारी आकांक्षा स्वतंत्रता की, तुरंत हासिल की जाती है ।

जैसे यहाँ पर तुम अर्जुन और कृष्ण की एक तस्वीर देखोगे । कृष्ण परम भगवान हैं । अर्जुन जीव हैं, एक इंसान हैं लेकिन वह दोस्त के रूप में कृष्ण को प्यार करते हैं । और उसके अनुकूल प्यार के बदले में, कृष्ण उनके चालक, उनके नौकर बन गए हैं । इसी तरह, अगर हम में से हर एक, हम पुन: स्थापित होते हैं कृष्ण को प्यार करने के उत्कृष्ट मंच पर, तो हमारी आकांक्षा मालिक बनने की पूरा हो जाएगी । यह वर्तमान में हम नहीं जान पाते, लेकिन अगर हम कृष्ण की सेवा करने के लिए सहमत होते हैं, फिर धीरे - धीरे हम देखेंगे कि कृष्ण तुम्हारी सेवा कर रहे हैं । ये साक्षात्कार का सवाल है ।

लेकिन अगर तुम इस भौतिक दुनिया की सेवा से बाहर निकलना चाहते हो, इन्द्रियों की, तो हमें कृष्ण के लिए हमारी सेवा भाव को स्थानांतरित करना होगा यह कृष्ण भावनामृत कहा जाता है । कामादीनाम कटि ना कटिधा पालिता दुर्निदेशास् तेशाम् मयि न करुणा जाता न त्रापा नोपशान्ति: साम्प्रतम अहम लब्ध-बुद्धिस त्वाम अायात: नियुंक्श्वात्म-दास्ये । एक भक्त कृष्ण से प्रार्थना कर रहा है "अब तक, मेरे जीवन में, मैंने अपने इन्द्रियों की सेवा की है ।" कामाादीनाम ।

काम का मतलब है इंद्रियॉ, वासना । "तो जो मुझे नहीं करना चाहिए, फिर भी, मेरी वासना के तहत मैंने यह किया है ।" हमें करना ही पडता है । जब तक एक व्यक्ति गुलाम हैं या नौकर हैं, तब वह मजबूर है वह काम करने के लिए जो वह करना नहीं चाहता है । वह मजबूर है । तो यहाँ, एक भक्त स्वीकार कर रहा है, मैंने किया है, मेरी वासना के तहत, मुझे जो नहीं करना चाहिए, लेकिन मैंने किया है ।" ठीक है, तुमने किया है, तो तुम अपने इन्द्रियों की सेवा कर रहे हो । कोई बात नहीं ।

"लेकिन कठिनाई यह है कि तेशाम करुणा ना जाता ना त्रपा नोपशानति: | मैं इतनी सेवा की है, लेकिन मैं देखता हूँ कि वे संतुष्ट नहीं हैं । वे संतुष्ट नहीं हैं । यही मेरी कठिनाई है । न तो इन्द्रियॉ संतुष्ट हैं और न ही मैं संतुष्ट हूँ, न ही इन्द्रियॉ कृपा करती हैं मुझे राहत देकर, मुझे पेंशन देती हैं सेवा के लिए । यह मेरी स्थिति है ।" अगर मैं देख सकता, मतलब अगर हम महसूस करते, "मैंने इतने साल अपने इन्द्रियों की सेवा की है, अब मेरे इन्द्रियॉ संतुष्ट हैं ..." नहीं, वे संतुष्ट नहीं हैं । फिर भी हुक्म चलाती हैं ।

फिर भी हुक्म चलाती हैं । "मैं बहुत..." बेशक, यह बहुत ही स्वाभाविक है, लेकिन मैं इसके साथ खुलासा करता हूँ, मेरे छात्रों में से कुछ नें कहा कि उनकी मा बुजुर्ग उम्र की होकर, वह शादी करने जा रही है । ज़रा देखो । उसके सयाने बच्चे हैं । और कोई शिकायत कर रहा था कि उसकी दादी नें भी शादी की है । क्यों? ज़रा देखो । पचहत्तर साल की उम्र में, पचास साल की उम्र में, इन्द्रियॉ अभी भी बहुत बलवान हैं, कि वह तय कर रही हैं: "हाँ, तुम्हे यह करना चाहिए ।"