HI/Prabhupada 0279 - वास्तव में हम पैसे की सेवा कर रहे हैं: Difference between revisions

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अब यहाँ, इस अध्याय में, यह स्पष्ट रूप से समझाया गया है, कि कौन सर्वोच्च पूजनीय है । हम पूजा कर रहे हैं । हमारी क्षमता के अनुसार, हम किसी की पूजा कर रहे हैं । कम से कम हम अपने मालिक की पूजा कर रहे हैं । मान लीजिए, मैं एक कार्यालय में या एक कारखाने में काम कर रहा हूँ, मुझे मेरे मालिक की पूजा करनी होगी मुझे उसके आदेशों का पालन करना होगा । तो हर कोई किसी की पूजा कर रहा है । अब, सर्वोच्च पूजनीय विषय कौन है, कृष्ण कैसे वे परम पूजनीय विषय हैं, यह इस अध्याय में स्पष्ट किया गया है । या स्वरूपम् सर्व करम च यच च धीयम् तद उभय-विशयकम् ज्ञानम् व्यक्तुम अत्र भक्ति-प्रतिज्ञानम । इसलिए अगर हम समझते हैं कि यहाँ सर्वोच्च नियंत्रक हैं , यहाँ सर्वोच्च पूजनीय विषय हैं, तब हमारे जीवन की समस्याऍ एक बार में ही हल हो जाऍगी । हम खोज रहे हैं ... बस उस दिन, मैंने एक कहानी सनाई थी, कि एक मुसलमान भक्त, वह परम की सेवा करना चाहता था । वह नवाब की सेवा कर रहा था, तो वह सम्राट, बादशाह के पास गया, फिर सम्राट से हरिदास, एक साधु व्यक्ति और हरिदास से उसे प्रोत्साहित किया गया कि वह वृन्दावन में कृष्ण की पूजा करे । इसलिए हमें काफी बुद्धिमान, जिज्ञासु होना चाहिए । हम सेवा कर रहे हैं । हर कोई, हम सेवा कर रहे हैं, कम से कम हम अपने इन्द्रियों की सेवा कर रहे हैं । हर कोई, व्यावहारिक रूप से, वे किसी भी मालिक या किसी गुरु की सेवा नहीं कर रहे हैं, वे अपने इन्द्रियों की सेवा कर रहे हैं । अगर मैं अपने मालिक के रूप में किसी की सेवा कर रहा हूँ, वास्तव में उस व्यक्ति की सेवा नहीं कर रहा हूँ, मैं उसके पैसे की सेवा कर रहा हूँ । अगर वह कहते हैं, "कल तुम्हे मुफ्त में काम करना होगा । अब तुम्हे बीस डॉलर प्रतिदिन मिल रहे हैं । कल मेरे पास पैसे नहीं होंगे । तुम्हे मुफ्त में काम करना होगा ।" "आह, नहीं, नहीं, सर मैं नहीं अाऊँगा क्योंकि मैं आपकी सेवा नहीं कर रहा हूँ, मैं अापके पैसे की सेवा कर रहा हूँ ।" तो वास्तव में हम पैसे की सेवा कर रहे हैं । और क्यों तुम पैसे की सेवा कर रहे हो? क्योंकि पैसे के साथ हम अपनी इंद्रियों को संतुष्ट कर सकते हैं । पैसे के बिना, हम इन दुर्जेय इन्द्रियों को संतुष्ट नहीं कर सकते हैं । अगर मैं पीना चाहते हूँ, अगर मैं फलां चीजों का आनंद लेना चाहते हूँ, तो मुझे पैसे की आवश्यकता होगी । इसलिए अंत में मैं अपने इन्द्रियों की सेवा कर रहा हूँ । इसलिए कृष्ण को गोविंदा कहा जाता है । हमें अंततः हमारी इन्द्रय संतुष्टि चाहिए, और गो का मतलब है इंद्रियॉ । यहाँ हैं यह व्यक्ति, देवत्व के परम व्यक्तित्व । अगर तुम कृष्ण की सेवा करते हो, तो तुम्हारी इन्द्रयॉ संतुष्ट हो जाऍगी । इसलिए उनका नाम गोविंदा है । दरअसल, हम अपनी इंद्रियों की सेवा करना चाहते हैं, लेकिन असली इन्द्रियॉ, दिव्य इन्द्रियॉ, कृष्ण हैं, गोविंदा । इसलिए भक्ति, भक्ति सेवा, का मतलब है इन्द्रियों की शुद्धि । सर्वोच्च शुद्ध की सेवा में कार्यरत रहना । भगवान परम शुद्ध है । भगवद गीता में, दसवीं अध्याय में तुम पाअोगे कि कृष्ण अर्जुन द्वारा वर्णित हैं, पवित्रम परमम् भवान: "आप सर्वोच्च शुद्ध हैं ।" तो अगर हम सर्वोच्च शुद्ध के इन्द्रियों कि सेवा करना चाहते हैं, तो हमें भी शुद्ध होना होगा । क्योंकि बिना ... शुद्ध होने का अर्थ है आध्यात्मिक । आध्यात्मिक जीवन का मतलब है शुद्ध जीवन और भौतिक जीवन का अर्थ है दूषित जीवन । वैसे ही जैसे हमें यह शरीर मिला है, भौतिक शरीर । यह अशुद्ध शरीर है । इसलिए हम रोग से पीड़ित हैं, हम बुढ़ापे से पीड़ित हैं, हम जन्म से पीड़ित हैं, हम मृत्यु से ग्रस्त हैं । और हमारे वास्तविक, शुद्ध रूप, आध्यात्मिक रूप में, इस तरह का कोई दुख नहीं है । कोई जन्म नहीं है, मृत्यु नहीं है, कोई बीमारी नहीं है और कोई बुढ़ापा नहीं है । भगवद गीता में तुमने यह पढ़ा है, नित्य: शाश्वतो अयम् न हन्यते हन्यमाने शरीरे ([[Vanisource:BG 2.20|भ गी २।२०]]) नित्य । हालांकि मैं सबसे पुराना हूँ, क्योंकि मैं अपने शरीर को बदल रहा हूँ, ... मैं, आत्मा के रूप में, शुद्ध हूँ । मेरा जन्म नहीं है, मेरी कोई मौत नहीं है, लेकिन मैं बस शरीर बदल रहा हूँ । इसलिए मैं सबसे पुराना हूँ । इसलिए हालांकि मैं सबसे पुराना हूँ, मेरी अात्मा नई है । मैं हमेशा नवीनतापूर्वक हूँ । यह मेरी स्थिति है ।
अब यहाँ, इस अध्याय में, यह स्पष्ट रूप से समझाया गया है, कि कौन सर्वोच्च पूजनीय है । हम पूजा कर रहे हैं । हमारी क्षमता के अनुसार, हम किसी की पूजा कर रहे हैं । कम से कम हम अपने मालिक की पूजा कर रहे हैं । मान लीजिए, मैं एक कार्यालय में या एक कारखाने में काम कर रहा हूँ, मुझे मेरे मालिक की पूजा करनी होगी, मुझे उसके आदेशों का पालन करना होगा । तो हर कोई किसी की पूजा कर रहा है । अब, सर्वोच्च पूजनीय विषय कौन है, कृष्ण, कैसे वे परम पूजनीय विषय हैं, यह इस अध्याय में स्पष्ट किया गया है । या स्वरूपम् सर्व करम च यच च धीयम् तद उभय-विशयकम् ज्ञानम् व्यक्तुम अत्र भक्ति-प्रतिज्ञानम । इसलिए अगर हम समझते हैं कि यहाँ सर्वोच्च नियंत्रक हैं , यहाँ सर्वोच्च पूजनीय विषय हैं, तब हमारे जीवन की समस्याऍ एक बार में ही हल हो जाऍगी ।
 
हम खोज रहे हैं ... बस उस दिन, मैंने एक कहानी सनाई थी, कि एक मुसलमान भक्त, वह परम व्यक्ति की सेवा करना चाहता था । वह नवाब की सेवा कर रहा था, तो वह सम्राट, बादशाह के पास गया, फिर सम्राट से हरिदास, एक साधु व्यक्ति और हरिदास से उसे प्रोत्साहित किया गया कि वह वृन्दावन में कृष्ण की पूजा करे । इसलिए हमें काफी बुद्धिमान, जिज्ञासु होना चाहिए । हम सेवा कर रहे हैं । हर कोई, हम सेवा कर रहे हैं, कम से कम हम अपने इन्द्रियों की सेवा कर रहे हैं । हर कोई, व्यावहारिक रूप से, वे किसी भी मालिक या किसी गुरु की सेवा नहीं कर रहा हैं, वे अपने इन्द्रियों की सेवा कर रहा हैं ।  
 
अगर मैं अपने मालिक के रूप में किसी की सेवा कर रहा हूँ, वास्तव में उस व्यक्ति की सेवा नहीं कर रहा हूँ, मैं उसके पैसे की सेवा कर रहा हूँ । अगर वह कहते हैं, "कल तुम्हे मुफ्त में काम करना होगा । अभी तुम्हे बीस डॉलर प्रतिदिन मिल रहे हैं । कल मेरे पास पैसे नहीं होंगे । तुम्हे मुफ्त में काम करना होगा ।" "आह, नहीं, नहीं, श्रीमान | मैं नहीं अाऊँगा क्योंकि मैं आपकी सेवा नहीं कर रहा हूँ, मैं अापके पैसे की सेवा कर रहा हूँ ।" तो वास्तव में हम पैसे की सेवा कर रहे हैं । और क्यों तुम पैसे की सेवा कर रहे हो? क्योंकि पैसे के साथ हम अपनी इंद्रियों को संतुष्ट कर सकते हैं । पैसे के बिना, हम इन दुर्जेय इन्द्रियों को संतुष्ट नहीं कर सकते हैं । अगर मैं पीना चाहते हूँ, अगर मैं फलाना चीजों का आनंद लेना चाहते हूँ, तो मुझे पैसे की आवश्यकता होगी ।  
 
इसलिए अंत में मैं अपने इन्द्रियों की सेवा कर रहा हूँ । इसलिए कृष्ण को गोविंद कहा जाता है । हमें अंततः हमारी इन्द्रय संतुष्टि चाहिए, और गो का मतलब है इंद्रियॉ । यहाँ हैं यह व्यक्ति, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान । अगर तुम कृष्ण की सेवा करते हो, तो तुम्हारी इन्द्रयॉ संतुष्ट हो जाऍगी । इसलिए उनका नाम गोविंद है । दरअसल, हम अपनी इंद्रियों की सेवा करना चाहते हैं, लेकिन असली इन्द्रियॉ, दिव्य इन्द्रियॉ, कृष्ण हैं, गोविंद । इसलिए भक्ति, भक्तिमय सेवा, का मतलब है इन्द्रियों की शुद्धि । सर्वोच्च शुद्ध की सेवा में कार्यरत रहना । भगवान परम शुद्ध है । भगवद गीता में, दसवे अध्याय में तुम पाअोगे कि कृष्ण अर्जुन द्वारा वर्णित हैं, पवित्रम परमम् भवान ([[HI/BG 10.12-13|भ.गी. १०.१२]]): "आप सर्वोच्च शुद्ध हैं ।"  
 
तो अगर हम सर्वोच्च शुद्ध के इन्द्रियों की सेवा करना चाहते हैं, तो हमें भी शुद्ध होना होगा । क्योंकि बिना ... शुद्ध होने का अर्थ है आध्यात्मिक । आध्यात्मिक जीवन का मतलब है शुद्ध जीवन और भौतिक जीवन का अर्थ है दूषित जीवन । वैसे ही जैसे हमें यह शरीर मिला है, भौतिक शरीर । यह अशुद्ध शरीर है । इसलिए हम रोग से पीड़ित हैं, हम बुढ़ापे से पीड़ित हैं, हम जन्म से पीड़ित हैं, हम मृत्यु से ग्रस्त हैं । और हमारे वास्तविक, शुद्ध रूप, आध्यात्मिक रूप में, इस तरह का कोई दुख नहीं है । कोई जन्म नहीं है, मृत्यु नहीं है, कोई बीमारी नहीं है और कोई बुढ़ापा नहीं है ।  
 
भगवद गीता में तुमने यह पढ़ा है, नित्य: शाश्वतो अयम् न हन्यते हन्यमाने शरीरे ([[HI/BG 2.20|भ.गी. २.२०]]) | नित्य । हालांकि मैं सबसे पुराना हूँ, क्योंकि मैं अपने शरीर को बदल रहा हूँ, ... मैं, आत्मा के रूप में, शुद्ध हूँ । मेरा जन्म नहीं है, मेरी कोई मौत नहीं है, लेकिन मैं बस शरीर बदल रहा हूँ । इसलिए मैं सबसे पुराना हूँ । इसलिए हालांकि मैं सबसे पुराना हूँ, मेरी अात्मा नई है । मैं हमेशा नवीनतापूर्वक हूँ । यह मेरी स्थिति है ।  
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Latest revision as of 18:28, 17 September 2020



Lecture on BG 7.2 -- San Francisco, September 11, 1968

अब यहाँ, इस अध्याय में, यह स्पष्ट रूप से समझाया गया है, कि कौन सर्वोच्च पूजनीय है । हम पूजा कर रहे हैं । हमारी क्षमता के अनुसार, हम किसी की पूजा कर रहे हैं । कम से कम हम अपने मालिक की पूजा कर रहे हैं । मान लीजिए, मैं एक कार्यालय में या एक कारखाने में काम कर रहा हूँ, मुझे मेरे मालिक की पूजा करनी होगी, मुझे उसके आदेशों का पालन करना होगा । तो हर कोई किसी की पूजा कर रहा है । अब, सर्वोच्च पूजनीय विषय कौन है, कृष्ण, कैसे वे परम पूजनीय विषय हैं, यह इस अध्याय में स्पष्ट किया गया है । या स्वरूपम् सर्व करम च यच च धीयम् तद उभय-विशयकम् ज्ञानम् व्यक्तुम अत्र भक्ति-प्रतिज्ञानम । इसलिए अगर हम समझते हैं कि यहाँ सर्वोच्च नियंत्रक हैं , यहाँ सर्वोच्च पूजनीय विषय हैं, तब हमारे जीवन की समस्याऍ एक बार में ही हल हो जाऍगी ।

हम खोज रहे हैं ... बस उस दिन, मैंने एक कहानी सनाई थी, कि एक मुसलमान भक्त, वह परम व्यक्ति की सेवा करना चाहता था । वह नवाब की सेवा कर रहा था, तो वह सम्राट, बादशाह के पास गया, फिर सम्राट से हरिदास, एक साधु व्यक्ति और हरिदास से उसे प्रोत्साहित किया गया कि वह वृन्दावन में कृष्ण की पूजा करे । इसलिए हमें काफी बुद्धिमान, जिज्ञासु होना चाहिए । हम सेवा कर रहे हैं । हर कोई, हम सेवा कर रहे हैं, कम से कम हम अपने इन्द्रियों की सेवा कर रहे हैं । हर कोई, व्यावहारिक रूप से, वे किसी भी मालिक या किसी गुरु की सेवा नहीं कर रहा हैं, वे अपने इन्द्रियों की सेवा कर रहा हैं ।

अगर मैं अपने मालिक के रूप में किसी की सेवा कर रहा हूँ, वास्तव में उस व्यक्ति की सेवा नहीं कर रहा हूँ, मैं उसके पैसे की सेवा कर रहा हूँ । अगर वह कहते हैं, "कल तुम्हे मुफ्त में काम करना होगा । अभी तुम्हे बीस डॉलर प्रतिदिन मिल रहे हैं । कल मेरे पास पैसे नहीं होंगे । तुम्हे मुफ्त में काम करना होगा ।" "आह, नहीं, नहीं, श्रीमान | मैं नहीं अाऊँगा क्योंकि मैं आपकी सेवा नहीं कर रहा हूँ, मैं अापके पैसे की सेवा कर रहा हूँ ।" तो वास्तव में हम पैसे की सेवा कर रहे हैं । और क्यों तुम पैसे की सेवा कर रहे हो? क्योंकि पैसे के साथ हम अपनी इंद्रियों को संतुष्ट कर सकते हैं । पैसे के बिना, हम इन दुर्जेय इन्द्रियों को संतुष्ट नहीं कर सकते हैं । अगर मैं पीना चाहते हूँ, अगर मैं फलाना चीजों का आनंद लेना चाहते हूँ, तो मुझे पैसे की आवश्यकता होगी ।

इसलिए अंत में मैं अपने इन्द्रियों की सेवा कर रहा हूँ । इसलिए कृष्ण को गोविंद कहा जाता है । हमें अंततः हमारी इन्द्रय संतुष्टि चाहिए, और गो का मतलब है इंद्रियॉ । यहाँ हैं यह व्यक्ति, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान । अगर तुम कृष्ण की सेवा करते हो, तो तुम्हारी इन्द्रयॉ संतुष्ट हो जाऍगी । इसलिए उनका नाम गोविंद है । दरअसल, हम अपनी इंद्रियों की सेवा करना चाहते हैं, लेकिन असली इन्द्रियॉ, दिव्य इन्द्रियॉ, कृष्ण हैं, गोविंद । इसलिए भक्ति, भक्तिमय सेवा, का मतलब है इन्द्रियों की शुद्धि । सर्वोच्च शुद्ध की सेवा में कार्यरत रहना । भगवान परम शुद्ध है । भगवद गीता में, दसवे अध्याय में तुम पाअोगे कि कृष्ण अर्जुन द्वारा वर्णित हैं, पवित्रम परमम् भवान (भ.गी. १०.१२): "आप सर्वोच्च शुद्ध हैं ।"

तो अगर हम सर्वोच्च शुद्ध के इन्द्रियों की सेवा करना चाहते हैं, तो हमें भी शुद्ध होना होगा । क्योंकि बिना ... शुद्ध होने का अर्थ है आध्यात्मिक । आध्यात्मिक जीवन का मतलब है शुद्ध जीवन और भौतिक जीवन का अर्थ है दूषित जीवन । वैसे ही जैसे हमें यह शरीर मिला है, भौतिक शरीर । यह अशुद्ध शरीर है । इसलिए हम रोग से पीड़ित हैं, हम बुढ़ापे से पीड़ित हैं, हम जन्म से पीड़ित हैं, हम मृत्यु से ग्रस्त हैं । और हमारे वास्तविक, शुद्ध रूप, आध्यात्मिक रूप में, इस तरह का कोई दुख नहीं है । कोई जन्म नहीं है, मृत्यु नहीं है, कोई बीमारी नहीं है और कोई बुढ़ापा नहीं है ।

भगवद गीता में तुमने यह पढ़ा है, नित्य: शाश्वतो अयम् न हन्यते हन्यमाने शरीरे (भ.गी. २.२०) | नित्य । हालांकि मैं सबसे पुराना हूँ, क्योंकि मैं अपने शरीर को बदल रहा हूँ, ... मैं, आत्मा के रूप में, शुद्ध हूँ । मेरा जन्म नहीं है, मेरी कोई मौत नहीं है, लेकिन मैं बस शरीर बदल रहा हूँ । इसलिए मैं सबसे पुराना हूँ । इसलिए हालांकि मैं सबसे पुराना हूँ, मेरी अात्मा नई है । मैं हमेशा नवीनतापूर्वक हूँ । यह मेरी स्थिति है ।