HI/Prabhupada 0280 - भक्ति सेवा का मतलब है इंद्रियों को शुद्ध करना

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Lecture on BG 7.2 -- San Francisco, September 11, 1968

तो कृष्ण भावनामृत, या भक्तिमय सेवा, का मतलब है इन्द्रियों की शुद्धि । बस । हमें खतम नहीं करना है, कामुक गतिविधियों से बाहर निकलना । नहीं । हमें इंद्रियों को शुद्ध करना है बस । कैसे तुम इन्द्रियों से निकल सकते हो? क्योंकि तुम जीव हो, इन्द्रियॉ हैं । लेकिन बात यह है, कि वर्तमान समय में, क्योंकि हम भौतिकता से दूषित हैं, हमारी इन्द्रियों को पूरा आनंद नहीं मिल रहा है । यह सबसे अधिक वैज्ञानिक है । इसलिए भक्तिमय सेवा का मतलब है इंद्रियों को शुद्ध करना । सर्वोपाधि विनिर्मुक्तम तत परत्वेन निर्मलम (चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०) |

निर्मलम का मतलब है शुद्धिकरण । कैसे तुम अपनी इन्द्रियों को शुद्ध कर सकते हो ? यही नारद भक्ति सूत्र में परिभाषित किया गया है । यह कहा जाता है कि सर्वोपाधि विनिर्मुक्तम । इ्द्रियों की शुद्धि का मतलब है तुम्हे सभी प्रकार की उपाधिओ से मुक्त होना होगा । हमारा जीवन उपाधिओ से भरा है । वैसे ही जैसे मैं सोच रहा हूँ "मैं भारतीय हूँ", मैं सोच रहा हूँ "मैं संन्यासी हूं," तुम सोच रहे हो तुम अमेरिकी हो, तुम सोच रहे हो 'आदमी', तुम सोच रहे हो "औरत", तुम सोच रहे हो "सफेद", तुम सोच रहे हो "काला ।" तो कई उपाधिया । ये सभी उपाधि हैं ।

तो इन्द्रियों की शुद्धि का मतलब है उपाधियो को शुद्ध करना । और कृष्ण भानवामृत का मतलब है की, " न तो मैं भारतीय हूँ और न ही यूरोपीयन और न ही अमेरिकी और न ही यह या वह। मैं सदा कृष्ण के साथ रिश्ता रखता हूँ । मैं कृष्ण का अभिन्न अंग हूँ । " जब हम पूरी तरह से आश्वस्त हैं कि "मैं कृष्ण का अभिन्न अंग हूँ," वही कृष्ण भावनामृत है और वही तुम्हारे इन्द्रियों की शुद्धि है । तो कृष्ण के अभिन्न अंग के रूप में, तुम्हे कृष्ण की सेवा करनी है । यही तुम्हारा अानन्द है ।

अभी हम अपने इन्द्रियों को संतुष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं, हमारे भौतिक इंद्रियों की । जब तुम ... अपने आप को एहसास होता है कि तुम कृष्ण का अभिन्न अंग हो, तो तुम कृष्ण, गोविंद की इन्द्रियों को संतुष्ट करोगे । और उनके इन्द्रियों को संतुष्ट करने से, तुम्हारी इन्द्रियॉ संतुष्ट हो जाएँगी । कच्चे उदाहरण की तरह - यह आध्यात्मिक नहीं है - जैसे पति भोक्ता के रूप में समझा जाता है, और पत्नी आनंद लेने का माध्यम मानी जाती है । लेकिन अगर पत्नी पति के इन्द्रियों को संतुष्ट करती है, तो उसकी इन्द्रिया भी संतुष्ट हो जाती है ।

इसी तरह, अगर तुम्हारे शरीर में खुजली है, और तुम्हारे शरीर का हिस्सा, उंगलियॉ, उस शरीर पर खुजाती हैं, तो संतोष उंगलियों को भी महसूस होता है । ऐसा नहीं है कि वह विशेष अंग को केवल संतोष की अनुभूति होती है, लेकिन पूरे शरीर को इस संतुष्टि भावना की अनुभूति होती है । इसी तरह, कृष्ण पूर्ण हैं, जब तुम कृष्ण को संतुष्ट करते हो, कृष्ण की, गोविन्द की, इन्द्रियों को, फिर सारे जगत की संतुष्टि होती है । यह विज्ञान है । तस्मिन तुष्टे जगत तुष्ट ।

एक और उदाहरण है कि अगर तुम अपने शरीर में पेट को संतुष्ट करते हो, तो पूरा शरीर संतुष्ट हो जाता है । पेट ऐसी शक्ति देगा खाद्य पदार्थों के पाचन से , कि यह रक्त में बदलेगा, यह ह्रदय में आएगा, और ह्रदय से यह सारे शरीर में फैलेगा । और सारे शरीर में जो थकावट थी, उसकि संतुष्टि हो जाएगी । तो यह कृष्ण भावनामृत की प्रक्रिया है । यह कृष्ण भावनामृत का विज्ञान है, और कृष्ण व्यक्तिगत रूप से समझाते हैं ।

तो यज ज्ञात्वा, अगर हम कृष्ण भावनामृत के विज्ञान को समझते हैं, तो अज्ञात कुछ नहीं रहेगा । सब कुछ जाना जाएगा । यह कितनी अच्छी बात है ।