HI/Prabhupada 0322 - यह शरीर उसके कर्म के अनुसार भगवान द्वारा प्रदान किया जाता है

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Lecture on SB 1.15.40 -- Los Angeles, December 18, 1973

हमें परम पिता द्वारा दिया गया है, "अब यह आपका अमेरिका है । यह अापका भारत है ।" लेकिन कुछ भी अमेरिका या भारत के अंतर्गत नही आता है । यह पिता के, परम पिता के, अंतर्गत आता है । तो जब तक वे इस चेतना में नहीं आते हैं, कि "पिता नें मुझे आनंद उठाने के लिए दिया है, "कि यह मेरा है, लेकिन वास्तव में यह पिता का है..." यही कृष्ण भावनामृत कहा जाता है । यही कृष्ण भावनामृत कहा जाता है ।

इसलिए जो कृष्ण के प्रति जागरूक हैं, पूरी तरह सचेत कि, "मेरा कुछ नहीं है । सब कुछ अंतर्गत है ... "ईशावास्यम इदम सर्वम यत किंच (ईशोपनिषद मंत्र १) | "यहां तक ​​कि क्षुद्र चीज़ भी, परमाणु भी, भगवान के अंतर्गत आता है । मैं मालिक नहीं हूं ।" अगर यह समझ तुम में आ जाती है, तो तुम स्वतंत्र हो । यह भगवद गीता में कहा गया है,

माम च यो अव्यभिचारेण
भक्ति योगेन सेवते
स गुणान समतीत्यैतान
ब्रह्म भूयाय कल्पते
(भ.गी. १४.२६) |

बंधन है गुणमयी माया, गुणात्मक प्राकृतिक गुणों से ढकी । यही बंधन है । लेकिन अगर कोई भक्ति सेवा में संलग्न है, तो वह इस बंधन में नहीं है, क्योंकि वह यथार्थ सब कुछ जानता है । तो ... जैसे मैं परदेसी हूं और मैं... तो मैं अापके देश में आया हूँ । तो अगर मैं दावा करता हूँ कि, "यह देश मेरा है," तो परेशानी होगी । लेकिन अगर मैं जानता हूँ कि मैं यहाँ आया हूँ एक विदेशी के रूप में या मैं एक आगंतुक के रूप में अाया हूँ, तो परेशानी नहीं होती है । मैं स्वतंत्र रूप से स्थानांतरित कर सकता हूँ । मुझे संयुक्त राज्य अमेरिका सरकार की सभी सुविधाएं प्राप्त हो सकती हैं । कोई परेशानी नहीं है । इसी तरह, हम इस भौतिक दुनिया में, आगंतुक के रूप में, यात्री के रूप में यहां आते हैं, और अगर हम यह दावा करते हैं कि, "यह भौतिक जगत मेरा है" या लोगों के एक समूह का, या राष्ट्र का समूह, तो इसे अज्ञान कहा जाता है ।

तो कृष्ण भावनामृत आंदोलन का मतलब है इस अज्ञानता को मिटाना, लोगों को बुद्धिमान बनाने के लिए, कि "कुछ भी तुम्हारे अंतर्गत नहीं आता है । सब कुछ भगवान के अंतर्गत आता है ।" तो यहाँ सामान्य प्रक्रिया है, त्याग, कि महाराज युधिष्ठिर, वे कह रहे हैं कि ... क्योंकि जैसे मैंने पहले से ही समझाया है कि, क्योंकि हम बहुत ज्यादा अहंकार की अवधारणा में अवशोषित हैं, "मैं यह शरीर हूँ, और मेरे इस शरीर के साथ संबंधित कुछ भी मेरा हैं ।" यह भ्रम है, मोह है । इसे मोह कहा जाता है, , भ्रम । जनस्य मोहो अयम । मोह का मतलब है भ्रम । यह भ्रम है । यह भ्रम क्या है? अहम ममेति (श्रीमद भागवतम ५.५.८) "मैं यह शरीर हूँ, और इस के साथ संबंध में कुछ भी, यह मेरा है ।" यह मोह कहा जाता है, भ्रम ।

यह शरीर भी उसका नहीं है, क्योंकि यह शरीर उसके कर्म के अनुसार भगवान द्वारा प्रदान किया जाता है । जैसे तुम्हारे भुगतान के अनुसार, मकान मालिक तुम्हे एक अपार्टमेंट देता है । अपार्टमेंट तुम्हारा नहीं है । यह एक तथ्य है । अगर तुम प्रति सप्ताह ५०० डॉलर का भुगतान करते हो, तो तुम्हे बहुत अच्छा, अच्छा अपार्टमेंट मिलता है । और अगर तुम २५ डॉलर का भुगतान करते हो, तो तुम्हे एक और मिलता है । इसी प्रकार, शरीर के ये विभिन्न प्रकार हमें मिले हैं ... हर किसी को हमें मिला है, विभिन्न प्रकार । यह अपार्टमेंट है । असल में, यह अपार्टमेंट है क्योंकि मैं इस शरीर के भीतर रह रहा हूँ । मैं यह शरीर नहीं हूं । यही भगवद गीता की शिक्षा है । देहिनो अस्मिन यथा देहे (भ.गी. २.१३) | अस्मिन देहे । देही, किरायेदार, मालिक नहीं । किरायेदार । जैसे किसी भी अपार्टमेंट में, किरायेदार कोई है और मालिक कोई है । इसी प्रकार, यह शरीर, यह अपार्टमेंट है । मैं आत्मा हूँ, किरायेदार । मैंने किराए पर लिया है भुगतान के अनुसार या कर्म के अनुसार ।