HI/Prabhupada 0387 - गौरंगेर दूति पदा तात्पर्य भाग २

Revision as of 17:39, 1 October 2020 by Elad (talk | contribs) (Text replacement - "(<!-- (BEGIN|END) NAVIGATION (.*?) -->\s*){2,15}" to "<!-- $2 NAVIGATION $3 -->")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)


Purport to Gaurangera Duti Pada -- Los Angeles, January 6, 1969

गौरंग संगे-गणे, नित्य-सिद्ध बोलि माने । जो भी समझ गया है की, भगवान चैतन्य के सहयोगी, वे साधारण बद्ध आत्मा नहीं हैं ... वे मुक्त आत्मा हैं । नित्य-सिद्ध बोले मानि । भक्त तीन प्रकार के होते हैं । एक साधना-सिद्ध कहा जाता है । साधना-सिद्ध, मतलब भक्ति सेवा के नियामक सिद्धांतों का पालन करते हुए, अगर हम आदर्श बन जाते हैं, वह साधना-सिद्ध कहा जाता है । एक और भक्त कृपा-सिद्ध कहा जाता है । कृपा-सिद्ध, इसका मतलब है भले ही उसने सख्ती से सभी नियामक सिद्धांत का पालन नहीं किया है, फिर भी, आचार्य की दया या एक भक्त द्वारा, या कृष्ण द्वारा, वह उच्च स्तर पर है । यह विशेष है ।

और एक अन्य भक्त नित्य-सिद्ध कहा जाता है । नित्य-सिद्ध मतलब है वे कभी भी दूषित नहीं थे । साधना-सिद्ध और कृपा-सिद्ध वे भौतिक स्पर्श से दूषित थे, और नियामक सिद्धांतों का पालन करते हुए, या कुछ दया या कृपा से भक्त और आचार्य की, वे उच्च स्तर पर हैं अब । लेकिन नित्य-सिद्ध मतलब है वे कभी दूषित नहीं थे । वे हमेशा मुक्त हैं । तो भगवान चैतन्य के सभी सहयोगी, जैसे अद्वैत प्रभु, श्रीवास, गदाधर, नित्यानंद की तरह, वे विष्णु-तत्त्व हैं । वे सभी मुक्त हैं । वे ही नहीं, गौस्वामी ... कई अन्य हैं । तो वे हमेशा मुक्त हैं । तो जो भगवान चैतन्य के सहयोगीयों को समझ सकते हैं वे हमेशा मुक्त हैं .... नित्य-सिद्ध बले मानि, सेई यय व्रजेन्द्र सुत-पाश । तुरंत वह कृष्ण के निवास में प्रवेश के लिए योग्य हो जाता है ।

और फिर वे कहते हैं, गौड-मंडल-भुमि, येब जानि चिंतामणी । गौर- मंडल मतलब है पश्चिम बंगाल में वह जगह जहॉ भगवान चैतन्य नें उनकी लीलाऍ की । नवद्वीप में, भगवान चैतन्य के जन्म दिवस के दौरान, श्रद्धालु जाते हैं, और भगवान चैतन्य की लीलाओं के विभिन्न स्थानों की परिक्रमा करते हैं । इसमे नौ दिन लगते हैं । तो बंगाल के उस हिस्से को गौड-मंडल कहा जाता है । तो नरोत्तम दास ठाकुर कहते हैं, "जो समझता है कि कोई अंतर नहीं है, देश के इस हिस्से अौर वृन्दावन के बीच," तारा हय व्रज-भूमि वास, "यह वृन्दावन में रहने के बराबर ही है ।"

फिर वे कहते हैं गौर-प्रेम रसार्णवे । भगवान चैतन्य की गतिविधियॉ कृष्ण प्रेम की लीलाअों के एक सागर की तरह है | इसलिए जो इस सागर में एक डुबकी लेता है, गौर-प्रेम-रसार्णवे, सेई तरंग येबा डुबे । जैसे हम एक डुबकी लेते हैं और नहाते हें, और हम खेलते हैं समुद्र या समुद्र की लहरों में | इसी तरह, जो भगवान चैतन्य के परमेश्वर के प्रेम के वितरण में डुबकी लेने में और समुद्र की लहरों के साथ खेलने में आनंद लेता है, एसा व्यक्ति तुरंत भगवान कृष्ण का एक गोपनीय भक्त बन जाता है । सेई राधा माधव-अंतरंग । अंतरंग का मतलब है साधारण भक्त नहीं । वे गोपनीय भक्त हैं ।

नरोत्तम दास ठाकुर कहते हैं, गृहे वा वनेते थाके | "इस तरह का भक्त जो भगवान चैतन्य के आंदोलन की लहरों में आनंद ले रहा है, " क्योंकि वह भगवान का एक बहुत ही गोपनीय भक्त बन गया है... इसलिए नरोत्तम दास ठाकुर कहते हैं, "इस तरह का भक्त, कोई फर्क नहीं पड़ता, वह सन्यासी है या वह एक गृहस्थ है । " गृह । गृह का मतलब है गृहस्थ । तो चैतन्य महाप्रभु का आंदोलन यह नहीं कहता है कि हमें सन्यासी बनना हैं । जैसे मायावादी संन्यासी, शंकराचार्य की तरह, वे पहली शर्त डालते हैं कि "तुम पहले सन्यास लो और फिर आध्यात्मिक उन्नति की बात करो ।" तो शंकर सम्प्रदाय कोई भी प्रामाणिक मायावादी के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है जब तक उसने सन्यास न लिया हो ।

लेकिन यहाँ, चैतन्य के आंदोलन में, इस तरह का कोई प्रतिबंध नहीं है । अद्वैत प्रभु, वह एक गृहस्थ थे । नित्यानंद, वह गृहस्थ थे । गदाधर वे भी गृहस्थ थे । और श्रीवास, वे भी गृहस्थ थे । और चैतन्य महाप्रभु नें भी दो बार शादी की । तो कोई फर्क नहीं पड़ता । नरोत्तम दास ठाकुर कहते हैं कि, सन्यासी बनने के लिए, या गृहस्थ जीवन में रहने के लिए, कोई फर्क नहीं पड़ता । अगर वह वास्तव में चैतन्य के संकीर्तन आंदोलनों की गतिविधियों में भाग ले रहा है, और वास्तव में समझ रहा है कि यह क्या है, वह इस तरह के भक्ति सागर की लहरों में खेल रहा है, तो ऐसा व्यक्ति हमेशा मुक्त हैं । और नरोत्तम दास ठाकुर तेजी से उनके संग के इच्छुक हैं । यह इस गीत का सार है ।