HI/Prabhupada 0423 - मैं तुम्हारे लिए बहुत कठिन परिश्रम कर रहा हूँ, लेकिन तुम इसका लाभ नहीं लेते हो
Lecture on SB 2.9.14 -- Melbourne, April 13, 1972
तो यह बहुत ही अच्छी बात है। यहां अवसर है। हमें अवसर मिलता है, लक्षमी। कैसे कृष्ण की सेवा की जाती है। लक्षमी-सहस्र-शट-सम्भ्रम-सेव्वयमानम् (ब्र स ५।२९) एक जीवन में कोशिश करके ही, अगर मुझे कृष्ण के धाम में प्रवेश करने का मौका मिल रहा है, अनन्त, आनंदमय जीवन जीने का, अौर मैं इसे अस्वीकार करता हूँ तो मै कितना अभागा हूँ। अगर तुम नीचे भी गिर पड़ो। लेकिन एक मौका है बनने का, तुरंत स्थानांतरित होने का। लेकिन अगर कोई मौका नहीं है, अगर पूरा नहीं हो पाया है, यहां तक कि यह विफलता है, फिर भी कहा जाता है "यह शुभ है।" क्योंकि अगले जन्म में एक मनुष्य जीवन निश्चित है। और साधारण कर्मी के लिए, अगले जन्म में क्या है? कोई जानकारी नहीं है। यम् यम् वापि स्मरण लोके त्यजते अंते कलेवरम् (भ गी ८।६) वह एक पेड़ बन सकता है, वह बिल्ली बन सकता है, वह एक देवता बन सकता है। देवता से अधिक नहीं। बस। और देवता क्या हैं? उन्हें उच्च ग्रहों में कुछ अवसर मिलता है और फिर नीचे गिर जाते हैं। क्षीने पुन्ये पुनर म्रत्य लोकम् विशन्ति। बैंक बैलेंस, पुण्य, धार्मिक गतिविधि, धार्मिक गतिविधियों के एवज में कार्रवाई, समाप्त होने के बाद, फिर से नीचे आ जाना। अा-ब्रह्म भुवनाल लोकान् पुनर् अावर्तिनो अ्जर्ना: " यहां तक कि अगर तुम ब्रह्लोक जाते हो जहां ब्रह्मा रहते हैं, जिसके एक दिन की गणना हम नहीं कर सकते हैं, तुम वहां भी चले जाअो, तो भी वे वापस आ जाऍगे।" मद-धाम गत्वा पुनर जन्म न विद्यते। " लेकिन अगर तुम मेरे पास आओ, तो फिर यहाँ नीचे (भौतिक जगत) अाना नहीं होगा। यह कृष्ण चेतना द्वारा दिया जाने वाला अवसर है।
- त्यक्तवा स्व धर्मम् चरणाम्भुजम् हरेर
- भजन् अपक्वो अथ पतेत् ततो यदि
- यत्र क्व वाभद्रम् अभूद अमुस्य किम्
- को वार्था अाप्तो अभजताम् स्व धर्मत:
- (श्री भ १।५।१७)
- तस्यैव हेतो: प्रयतेत कोविदो
- न लभयते यद भ्रमताम् उपरि अद:
- तल् लभयते दुक्खवद् अन्यत: सुखम्का
- लेन सर्वत्र गभीर रम्हसा
- (श्री भ १।५।१८)
तुम्हे यह पढ़ना चाहिए। तुम पढ़ते नहीं हो। भागवत के प्रथम खंड में इन बातों को समझाया गया है। लेकिन मुझे लगता है कि तुम यह सब पढ़ते नहीं हो। तुम पढ़ते हो? तो अगर पढ़ागे नहीं, तो तुम बेचैनी महसूस करोगे: "ओह, मुझे भारत से जापान जाना है, जापान से भारत जाना है। " तुम बेचैन हो क्योंकि तुम पढ़ते नहीं हो। मैं तुम्हारे लिए बहुत कठिन परिश्रम कर रहा हूँ, लेकिन तुम इसका लाभ नहीं लेते हो। खाने और सोने का लाभ नहीं लो। इन पुस्तकों का लाभ ले लो। तो फिर तुम्हारा जीवन सफल हो जाएगा। मेरा कर्तव्य - मैंने तुम्हें इतने कीमती चीजें दी हैं, दिन और रात तुम्हे समझाने की कोशिश कर रहा हूँ , हर एक शब्द। तुम इस का लाभ नहीं लेते, तो मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ? ठीक है।